बदलाव कब क्यो कैसे – समझो या उलझो

प्रवीण कुमार शर्मा 

बदलाव प्रकृति का नियम है। जानते सभी है पर क्या समझे है सभी। नही समझे तो समझ लो इस भूलोक पर घरती से लेकर आसमान तक सब कुछ बदलता है। पानी का रगं, आग की अगन, हवा का वेग भी बदलता है। दिन-रात को ही देखो किस तरह से एक छोटा सा बच्चा बडा होता है। ये सब बाते मेरे चारो तरफ घूम रही है। आज जब अपने दिमाग की सूइयां दौडाई तो देखा बच्चपन से लेकर आज तक बदलते लोगो से लेकर बदलते समाज तक बदलते विचारो से लेकर बदलती मान्यताऔ तक हर बदलाव को देखा है, जीया है और महसूस किया है। पर जो बदलाव हुए है। मुझमे हो रहे है। वो क्यो कब और कैसे हो गए। मेरे आस-पास का वातावरण मेरे दोस्त यहा तक की मेरी पसंद भी बदल गई हर रोज बदलती मेरी सोच मेरे लिये।

उलझा हूँ  उलझनो मे कुछ इस तरह कि उलझन भी उलझ गई।

मै क्या हूँ ,  मै क्या चाहता हूँ, क्या करता हूँ। समझना मुष्किल है मेरे लिये। क्योकि कभी सोचा ही नही इस तरह से मन के वशीभूत  होकर ना जाने क्या-क्या किया इस भवरें  ने, कितनी ही राते जगा, निगाहे थक गई है अब। चलते-चलते शारीर  ना साथ छोड दे। कहीं फिर भी कुछ तो है। मेरे अंदर जो आज भी इस भीड़ मे, बाजार मे मै अपने आप को ताजा बनाए रखा है।

अगर आप भी जमाने के साथ चलना चाहते हो तो बदलाव को समझो और महसूस करो फिर आपकी आवाज जमाने की आवाज होगी।

नही तो अफसोस और पछतावे के सिवाए कुछ ना होगा जिदंगी बद से बदतर  बन जाएगी क्योकि आप चाहे या ना चाहे बदलाव तो होगा ही क्योकि यही प्रकृति का नियम है। बेहतर यही होगा की आप सही समय पर बदल जाए वरना जबरन बदलना पडेगा और तब हाथ मलने के सिवाए कुछ नही होगा।

हे प्रभु मै आपका कृतृज्ञ हूँ कि आपने मुझे बदल दिया है।