स्वनिर्मित चक्रव्यूह

डॉ.सरोज व्यास

प्राचार्या
इंदरप्रस्थ विश्व विद्यालय, दिल्ली

किशोर से लेकर युवा एवं पौढ़ से लेकर वृद्धावस्था तक के पुरुषों द्वारा घर से बाहर परिचित लड़की/महिला सहकर्मियों से बातचीत में “Hello Dear! कैसी है आप ? क्या हाल है ? क्या चल रहा है ? Miss U Darling” कहा जाना आम बात हो गई है | वास्तविकता से परे, भावना विहीन, संवेदना रहित, शब्दों के गूढ़ मर्म से अनभिज्ञ असंख्य महानगरीय लोगों के लिये परिचय बढ़ाने, बातचीत करने और समय व्यतीत करने का एक विकल्प है | स्वछंद वातावरण, उन्मुक्त विचारधारा तथा सहशैक्षिक विद्यालय/विश्वविद्याल में शिक्षित और अध्यापनरत लड़की/महिला के लिये यह सुना/पढ़ा जाना किसी भी प्रकार का आश्चर्य उत्पन्न करने में भले ही सक्षम न हो, लेकिन साधारण परंपरागत मध्यमवर्गीय ग्रामीण और अर्धशहरी क्षेत्रों से जुड़ी लड़कियों/महिलाओं को संकुचित एवं रोमांचित करने में सहायक अवश्य है, यह शब्द | मुख से निकले शब्दों और उनके भावों की सत्यता में तारतम्य “स्वर्ण मृग मरीचिका” के समकक्ष है | इसीलिए पाठकों से करबद्ध अनुरोध है, कि लेख के परोक्ष संदेश की उपयोगिता से लाभान्वित होने की शक्ति और संयम का सृजन करके जीवन को सहज एवं सुखद बनाने हेतू प्रयास करें |

कई दिनों से ‘उसकी’ चंचलता और चपलता, उन्मुक्त हँसी, प्रांगण की स्तब्धता को भंग करते कदमों की आहट और गर्वीली हथिनी-सा आत्मसम्मान लेकर उद्घोष करते निर्देशों का अभाव, मुझे ही नहीं प्रत्येक सहयोगी एवं सहकर्मी को महसूस हो रहा था | उपर से शांत न जाने कौनसा दर्द उसने कलेजे में दबा रखा था, आमना-सामना होने पर भी नजरों को चुराकर वार्ता करने का ‘उसका’ अंदाज मुझे परेशान कर रहा था | ऐसा नही था कि पराजिता सबकी चहेती थी, प्यार न सही लेकिन कोई नफ़रत करे, इसकी इजाज़त भी ‘उसका’ स्नेही, अग्रजा-सा कर्मठ व्यक्तित्व नहीं देता | मैंने कई बार प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से टटोलने का भरकश प्रयत्न किया, किन्तु पराजिता स्व-निर्धारित मौन तोड़ने के लिए कदापि तैयार न थी |

भावात्मक प्रहार करते हुये एक दिन मैंने कहा- “मेरी जानकारी के अनुसार तुम्हारे पास पद, प्रतिष्ठा, पैसा, परिवार का साथ, संस्कारित संतान का सौभाग्य और सक्षम स्नेही पति का सानिध्य है | रूप-रंग-यौवन के अतिरिक्त बुद्धि और विवेक भी ईश्वर कृपा एवं स्वकर्म से तुम्हें प्राप्त है, पारिवारिक तथा व्यावसायिक क्षेत्र में मान-सम्मान से अभिभूत हो, फिर ऐसा कौनसा गम है ? केवल कहने भर को अपना कहती हो, काश ! तुमने मुझे स्वीकारा होता, तो अपनी पीड़ा में अवश्य शरीक करती | बांटने से दर्द कम होता है, कहकर तो देखो, शायद मैं कुछ कर पाऊँ तुम्हारे लिये” | कमजोर पड़ते हुये पराजिता ने कहा –“भावनाओं पर प्रहार सह लेती, लेकिन आत्मा लहू-लुहान है, दोष किसी का नहीं, मेरे द्वारा बोई गई ‘नागफनी के काँटों’ की चुभन अकेले ही सहनी होगी | तुमसे विनती है, पुन: आग्रह नहीं करना, समय आने पर अवश्य बताऊँगी, रिश्तों पर से विश्वास उठ गया है मेरा, कभी-कभी तुम पर भी शक होने लगता है | मेरे कथन को अन्यथा नहीं लेना, लेकिन जानना चाहती हूँ, क्या तुम्हें सच में मुझसे स्नेह है” ?

बोलते-बोलते ‘उसका’ गला रुँध गया, आंखे भर आई, आँसू छलक पड़े, संभालो स्वयं को, इतना कहकर मैं ‘उसके’ कक्ष से निकल आई | कई दिनों तक पराजिता मुझसे और मैं ‘उससे’ एकांत में मिलने से बचते रहे, लगभग 2-3 महीनों के अंतराल पर मैंने महसूस किया, कि अब पहले की भांति पराजिता स्वाभाविक व्यवहार करने लगी थी | चेहरे से वेदना नहीं संतोष झलक रहा था, निसंदेह पूर्व-सी उन्मुक्त हँसी अभी नहीं लौटी थी, किन्तु अधरों की मुस्कान काफी कुछ बयान कर रही थी | मैंने कक्ष में प्रवेश करते हुये औपचारिकता वश पूछ लिया –“सब ठीक है”? लगभग आश्चर्य व्यक्त करते हुये कहने लगी ‘What Happened ? I am always fine’. बनावटी क्रोध करते हुये मैंने कहा –“हूँ ! वह तो मैं देख ही रही हूँ” | यदपि मैं प्रसन्न थी कि पराजिता सामान्य हो रही है, तथापि चंचल मन जानने को आतुर था कि आखिर हुआ क्या था और अब “संजीवनी बूटी” कहाँ से मिली ? कही दर्द और दवा देने वाला एक ही शख़्स तो नहीं ?

अपेक्षा अनुकूल मेरे हाथों को अपनी हथेली पर हौले से रखते हुये पराजिता ने कहना आरंभ किया –“बीते 3महीनों में मैंने खुद को कैसे संभाला है, मैं ही जानती हूँ | पल-पल खुद को अपनी ही नजरों में गिरते देखा है, शरीर का नहीं, स्वाभिमान का बलात्कार होने का दर्द झेला है मैंने ! यदि मेरा अपराध बताकर सजा दी गई होती तो शायद घुटन कम होती, लेकिन अकारण अपमान ? मैं बस इतना जानना चाहती थी कि मेरी गलती क्या है ? लेकिन मेरे आँसू, याचना, दुहाई, सौगंध और कटाक्षों से बेपरवाह उसका मौन यथावत बना रहा | बहुत कोशिश की सामान्य होने की, लेकिन बार-बार एक ही ‘यक्ष प्रश्न’ मुझे खाये जा रहा था कि ‘वह’ ऐसा क्यों कर रहा है ? बस एक बार कारण बता दे, कभी मुड़कर उसे नहीं देखूँगी, किन्तु प्रतिदिन की निराशा !! किसी को कोई जानकारी नहीं थी, फिर भी मुझे ऐसा प्रतीत होता था मानों सब मुझे देखकर मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं, सोच रहे होगे, खुद को बड़ी ‘तीस मार खा’ समझती है, ‘अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे’ और न जाने क्या-क्या ?

जब इतना ही बता दिया तो यह भी बता ही दो कि “जीवन आदर्शों पर अडिग रहने वाली चट्टान-सी मजबूत तुम्हें तोड़कर, तुम्हारे वजूद को हिला देने का साहस कौन कर बैठा” ? वैसे नहीं बताना चाहती हो तो कोई बात नहीं, अतीत से बाहर निकलकर वर्तमान की वास्तविकता को अंगीकार करके तुमने सिद्ध कर दिया कि –“राख बेशक हूँ, मगर हरकत है मुझमें अभी भी, जिसको जलने की तमन्ना हो, वो हवा दे दे मुझको” |

पराजिता कहने लगी – “आशा अनुरूप एक दिन अजय का संदेश मिला, मिलना चाहता हूँ, मानों मेरी चिरप्रतीक्षित अभिलाषा पूरी हो रही थी, हम मिले, मौन ! शब्दहीन, अपराधी की भाँति ‘उसने’ अपना सर मेरी दोनों हथेलियों पर रख दिया, हथेली की नमी ने अहसास कराया कि ‘वह’ पश्चाताप के आँसुओं से मेरे दर्द और वेदना पर महरम लगा देना चाहता था | संभवतया ‘वह’ मुझसे अधिक मुझे जानता है, उपर से “नारियल सी कठोर, ह्रदय की कोमल” मुझे द्रवित होने में पल भी न लगा | कुछ ही देर में ‘वह’ सामान्य हो गया, और मैं पराजित |

जानती हो, मैंने हौंसला जुटाकर कहा –“बस इतना बता दीजिये, आपने मुझे किस अपराध की सजा दी ? क्यों किया मेरे साथ ऐसा व्यवहार ? मेरे नि:स्वार्थ स्नेह और निश्छल प्यार का अपमान करते हुये, क्या कभी भी आप शर्मिंदा नहीं हुये ? मित्रता नहीं रखना चाहते थे, कोई बात नहीं, किन्तु सम्मुख कहने का साहस भी न कर सकें ? मैं जिसे निडर और सच्चा समझ रही थी, वह कायर और धोखेबाज निकला | अजय तुमने मेरा स्वाभिमान ही नहीं अपितु आत्म-सम्मान भी कुचल दिया, इस अपराध के लिये तुम्हें कभी माफ़ नहीं किया जा सकता | ऐसी कौनसी मजबूरी थी, कि रिश्तों को दाँव पर लगा दिया”?

कहने लगा –“मैं मज़बूर था, तुम्हें कष्ट देने की योजना बनाई जा रही थी, मैं तुम्हारे संपर्क में रहता तो वे तुम्हें चोट पहुंचाते, मैंने जो भी किया तुम्हारे लिये किया | यदि तुम मेरी जगह होती तो तुम भी यही करती” | मैं स्तब्ध थी, उत्तेजित होकर प्रतिउत्तर में मैंने पूछा –“ऐसा है, तो आज क्यों आये हो ? और रही बात मेरी तो बस इतना समझ लो कि मैं अपनी व्यक्तिगत जिंदगी में किसी का भी हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करती और यह अधिकार भी किसी को नहीं दिया | वैसे परवाह मेरी थी अथवा स्वयं की” ? परोक्ष रूप से लगाये गये आरोप से आहत होते हुये, झुँझलाकर ‘वह’ बोला –“मैं तुमसे झूठ नहीं बोलता, मुझ पर यकीन नहीं है ना ? फिर क्यों बार-बार मिलने का आग्रह करती रही, ठीक है मैं जा रहा हूँ” | घबराकर ‘उसे’ रोकते हुये, बस इतना कह पाई –“अब कुछ नहीं कहूँगी” |

“यदपि अजय तत्क्षण सामान्य हो गया, वही अंदाज, वही बातें और उसी अधिकार से व्यवहार एवं आचरण करने लगा तथापि मेरे लिए यह असंभव था, भले ही उसकी खुशी के लिए मैंने सहजता का आवरण ओढ़ लिया था, किन्तु ‘उस’ पर यकीन कर लेना अब मेरे लिए मुमकिन नहीं | कभी-कभी ‘वह’ निसंकोच स्वीकार कर लेता है, कि मुझे पाना उसके लिए प्यार और मित्रता से अधिक जुनून था | मुझसे अधिक स्नेह नहीं है, अजय को तथापि अपनी सुविधानुसार मिलने कि स्वतन्त्रता और स्वैच्छिक साथ चाहिये, इतना ही नही, ‘उसे’ मेरी बेपरवाही बर्दाश्त नही | मेरी परवाह है, यह ‘उसका’ कहना है, लेकिन इसका अहसास मुझे अब नहीं होता, कभी-कभी लगता है, अजय के लिये हमारी मित्रता वैकल्पिक विकल्प मात्र है | यह अहसास किसी के भी स्वाभिमान को “धूल-धूसरित” करने हेतू पर्याप्त है” |

‘उसने’ आज हर्ष एवं विषाद को शब्दों में उड़ेल दिया था | मैं इतना ही कह पाई –“पराजिता अधिकाशत: अधिक पाने की “मृगतृष्णा” में लड़कियाँ/महिलाएँ छली जाती हैं, उनकी स्थिति उस “कस्तूरी मृग” के समकक्ष होती है, जिन्हें ज्ञान ही नहीं की वे स्वयं में सम्पूर्ण हैं | शिकारी की चाहत मृग को हासिल करना मात्र नहीं, उसका लक्ष्य कस्तूरी को पाना है, तुम्हारे विश्वास, सानिध्य और समर्पण के उपरांत शेष कुछ बचा ही नहीं, जिसकी व्याकुलता अजय में शेष हो | “चक्रव्यूह से स्वयं को मुक्त करो, क्योकि यह स्वनिर्मित है” |