बालीवुड में मौत का भी अपना अलग मायाजाल है

प्रेमबाबू शर्मा

भले ही वह नकली ही क्यों न हो। जब मौत आती है, तो रुलाती है। जो आपको दिल से चाहता है, उसे वह बहुत दुखी करती है। सिनेमा के परदे की मौत भले ही नकली होती है, लेकिन घर परिवार और दर्शकों को वह भी नहीं सुहाती। मौत आखिर मौत ही होती है क्या असली और क्या नकली दर्द के दावानल की भी भले ही अपनी एक अलग दुनिया होती है। लेकिन उस दुनिया में भी दर्द की दीवार की अपनी कोई एक शक्ल नहीं होती। वह हजार अलग-अलग चेहरों में हमारे सामने रह रहकर उभरता रहता है। कभी वह किसी प्यारी सी मुस्कान के रूप में भी उभर कर सामने आ सकता है। तो कभी खुशी सा खिलखिलाता है, फिर भी अट्टहास करता सा लगता है। कभी वह मौत के मर्मातक रूप में और कभी-कभी तो वह हंसी के रूप में भी हमारे सामने आकर खड़ा हो जाता है। 

यही वजह है कि जो लोग जिंदगी को सुख के सागर और दर्द की दीवारों के दायरों में नापते रहते हैं, वे जिस वजह से बहुत सफल हो जाते हैं, उन्हीं वजहों से अपने बहुत करीब के लोगों को दुखी भी कर जाते हैं। अगर यह सच नहीं है, तो झंडे गाड़ने वाली सफलता के शिखर पर खड़ी होने वाली फिल्म साबित होने के बावजूद ‘‘बाजीराव मस्तानी’ के हीरो रणवीर सिंह अपनी मां को यह फिल्म देखने से क्यों रोकते! रणवीर नहीं दिखाना चाहते थे मां को फिल्म किसी को शायद भरोसा नहीं होगा, लेकिन सच्चाई यही है कि देश भर में घूम-घूम कर अपनी फिल्म देखने के लिए लोगों के बीच जाकर प्रमोशन कर रहे रणवीर सिंह अपनी मां को यह फिल्म दिखाना ही नहीं चाहते थे।

संजय लीला भंसाली के निर्देशन में बनी फिल्म ‘‘बाजीराव मस्तानी’ में दीपिका पादुकोण की चमत्कृत कर देने वाली मस्तानी अदाओं, काशीबाई के रूप में प्रियंका चोपड़ा की प्रतिभा और मराठा शासक पेशवा बाजीराव के दमदार किरदार में रणवीर सिंह ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। रणवीर खुद इसे अब तक की अपनी सबसे बेहतरीन फिल्म बता चुके हैं। लेकिन रणवीर अपनी मां को यह फिल्म नहीं दिखाना चाहते थे। वजह यही थी कि रणवीर की मां उन फिल्मों से नफरत करती है, जिनमें रणवीर की मौत होते दिखाया जाता है। वैसे, कौन मां होगी, जो अपने बेटे को यूं मरता देखकर खुश होती होगी।
‘‘गोलियों की रासलीला-रामलीला’ में भी रणवीर सिंह को मरते दिखाया गया है। इस फिल्म को देखने से रणवीर की मां को बेहद दुरूख पहुंचा था। वह कई दिनों तक रह रहकर रोती रहीं। आंसू थामे नहीं थमते थे। ‘‘बाजीराव मस्तानी’ के अंत में भी बाजीराव मारा जाता है और रणवीर को पता था कि मां यह सीन देख दुरूखी होंगी। इसलिए उन्होंने मां को फिल्म देखने से मना किया था, लेकिन उनकी मां ने जिद करके रणवीर के साथ बैठकर यह फिल्म देखी। अपने बेटे के अभिनय से वह अभिभूत हो गई। 

फिल्म खत्म होते ही नम आंखों के साथ उन्होंने रणवीर को गले लगा लिया। फिर डबडबाई आंखों से बाहर निकलीं। और घर जाकर धार-धार रोई। यह दर्द की अपनी एक अलग शक्ल है जिसमें हर पल बेटे के जीने की कामना करने वाली एक मां की ममता का दर्द था।

दरअसल, जो लोग रिश्तों की सीमाओं को मानते हैं और जिंदगी की असलियत को कैमरे के सामने जी हुई जिंदगी को भी सच के आईने में देखते रहते हैं, उनके चेहरे पर कभी कभार जो हंसी उभरती है, वह अक्सर यही कहती है कि ये हंसी जो दिख रही है वह हंसी तो है, पर उसके पीछे का दर्द किसी को नहीं दिखता क्योंकि उस दर्द की कोई शक्ल नहीं होती। यह दर्द कभी सिनेमा के परदे पर अपनी प्रेमिका को गले लगाते वक्त घर में बैठी पत्नी के सीने में घाव कर जाता है। तो कभी सिनेमा के परदे पर शराब के नशे में बरबाद होते किसी बेटे की होती मौत पर किसी सफल पिता को मन को मायूस कर डालता है। कभी जब कोई हसीना किसी फिल्म के किसी दृश्य में किसी को बेइंतिहा चाहती दिखती है, तो असल जिंदगी में उसे चाहने वाले उसके प्रेमी को उस फिल्म के हीरो से ही स्थायी दुश्मनी होने का आभास होने लगता है।
मां की वजह से बदला क्लाइमेक्स जिन लोगों ने अमिताभ बच्चन की ‘‘दीवार’ फिल्म देखी है, और जिन्होंने ‘‘शोले’ देखी है, वे यह भी जानते हैं कि इन दोनों ही फिल्मों में अमिताभ बच्चन की मौत हो जाती है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि फिल्म के परदे पर अपने बेटे की इस तरह की मौत के दृश्य उनकी मां तेजी बच्चन को कतई नहीं सुहाते थे। ‘‘कुली‘‘ की मूल स्क्रिप्ट में अंत में अमिताभ बच्चन को मर जाना था, लेकिन उनकी मां तेजी बच्चन के अनुरोध पर ही यह सीन बदल दिया गया। इससे पहले की फिल्मों के अंत में अमिताभ मरते हुए दिखाए गए थे, तो मां दुखी होकर उस दुख को भूल जाया करती थी। लेकिन ‘‘कुली‘‘ में तेजी बच्चन उन्हें मरते हुए नहीं देखना चाहती थीं, क्योंकि इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान उनके बेटे को नया जीवन मिला था। उन्होंने कुली के निर्देशक मनमोहन देसाई को कहा कि फिल्म के अंत में अमिताभ को मरते हुए न दिखाया जाए और मां की ममता ने महानायक की इस फिल्म की स्क्रिप्ट में क्लाइमेक्स ही चेंज कर दिया। दर्शकों की खातिर प्रिय कलाकार को किया जीवित मौत के मंजर को थोड़ा गहरे से देखा जाए, 
अपने स्टारडम के दौर में राजेश खन्ना ने ‘‘आनंद’ फिल्म में परदे पर मर कर भी मौत को भले ही जिंदा कर दिया था। लेकिन फिल्म ‘‘बहारों के सपने’ में हीरो राजेश खन्ना को अंत में कुछ व्यक्तियों द्वारा गोलियां मार दी जाती है। उसे भीड़ में दबा दिया जाता है। वहीं राजेश खन्ना की मौत हो जाती है। कहते हैं ‘‘आनंद’ में राजेश खन्ना की मौत ने हर किसी को रुलाया, लेकिन असल जिंदगी में उनके रिश्तेदारों को कुछ ज्यादा ही रुलाया।
‘‘बहारों के सपने’ में भी राजेश खन्ना को मरते हुए तो दिखा दिया गया। लेकिन मुंबई के अलावा दूसरे शहरों में जब फिल्म प्रदर्शित हुई तो राजेश खन्ना को अंत में जीवित दिखाया गया और पोस्टरों पर बाकायदा लिखा गया था ‘‘अपने प्रिय कलाकार को जीवित देखिए’। यह किसी को जिंदा देखने के प्रति दिल की आवाज का आइना था। सिल्वर स्क्रीन पर राजेश खन्ना की अदाएं सिनेमाघर के अंधेरे में बैठी कमसिन कन्याओं के भीतर इश्क का इतना उजियारा भर देतीं कि वे राजेश खन्ना की कार को अपने होठों पर लगी लिपस्टिक से गुलाबी कर जातीं और खून से प्रेम पत्र लिखने से लेकर शरीर गुदवाकर अपने स्टार को अपनी जिंदगी के जाल में बुन लेतीं। 

इसी तर्ज पर आज देखें, तो रणवीर सिंह को देखकर हजारों लड़कियां अपनी दीवानगी का इजहार करती नजर आती हैं। यह जिंदगी में सिनेमा का अजब असर है इसीलिए जिसे दिल से चाहा हो, उसे परदे पर मरते देखने का दिल नहीं करता। होता है भावनात्मक लगाव वैसे, हम सभी जानते ही हैं कि भारतीय दर्शक अपने हीरो या हीरोइन के साथ भावनात्मक लगाव की वजह से ही फिल्म देखने घर से निकलता है।

फिल्मकार वासु भगनानी कहते हैं कि इसी कारण दर्शक अपनी फिल्मों में हीरो को हंसी-खुशी देखना चाहता है। वह यह भी नहीं चाहता है कि वह दर्द के दावानल में झुलसकर सिनेमाघर से बाहर निकले। यही कारण है कि यदि किसी फिल्म के आखिरी दृश्य में फिल्म के हीरो या हीरोइन की मौत दिखा दी जाये तो दर्शक इसे स्वीकार नहीं कर पाता। 
फिल्मकार मधुर भंडारकर का कहना है कि जब दर्शक का हाल यह है तो घर परिवार वालों का दुखी हो जाना तो बहुत स्वाभाविक है ही। भले ही उन्हें पता है कि सब कुछ नकली है, कैमरे के लिए है, कहानी की वजह से है, लेकिन दिल की भी अपनी अलग किस्म की तासीर होती है। मधुर कहते हैं कि जिन्होंने जिसकी जिंदगी की दुआएं की होती है, उसकी मौत देखना उनके लिए मरने जितना मुश्किल होता है। इसी कारण तेजी बच्चन का अमिताभ बच्चन के लिए दुखी होना और रणवीर सिंह के लिए उनकी मां अंजू भवनानी के आंसू निकलना बहुत स्वाभाविक है। 
वैसे, हर किसी को एक न एक दिन जाना ही है। किसी की मौत होना कोई अचरज की बात नहीं। लेकिन किसी के जीते जी उसकी मौत देखना अक्सर सिर्फ हादसा भर नहीं होती। खासकर रिश्तेदारों और चाहने वालो के लिए। और यह भी चाहत का ही असर है कि किसी अपने की मौत संसार का वह चेहरा है जो पल प्रतिपल मौत के और करीब ले जाता है। हेमा मालिनी शायद इसीलिए कह रही थीं कि उन्हें मौत से डर नहीं लगता, लेकिन किसी अपने की मौत से बहुत डर लगता है। कमल हमन और रति अग्निहोत्री स्टारर फिल्म ‘ एक दूजे के लिए ’ के अंत में दोनों युगल प्रेमी मर जाते है,सीन को भी दशकों की मांग पर बाद में बदल दिया गया।