फिल्म से लुप्त हो रहे गांव

प्रेमबाबू शर्मा

गांवों में दिल बसता है,किसान स्वंय भूखा रहकर अन्न देते है,यही कारण है कि फिल्मों से गांव का अहम् रिश्ता रहा है। हिंदुस्तान गांवों का देश है। यह भी कहा जाता है शहरों के मुकाबले गांवों की जिंदगी ज्यादा अच्छी हुआ करती है और वहां के लोगों में अपनापन हैं। भारत की 80 फीसदी आबादी गांवों में ही बसती है। और यही सबसे बड़ी आबादी हमारे सिनेमा के सबसे बड़े दर्शक को रूप में भी मानी जाती है।

पचास से अस्सी के दशक तक सिनेमा के परदे पर मेरा गांव मेरा देश,रामपुर का लक्ष्मण,मदर इंडिया,गंगा यमुना,राम और श्याम,एक गांव की कहानी,छोरी गांव की, पिंजौर,पोकटमार,पतिता,हीर रांझा….जैसी फिल्मों गांवों का महत्व रहा है,लेकिन वर्तमान के सिनेमा से गांव लुप्त हो रहे हैं। हमारा दर्शक तो बरसों बरसों से इन गांवों को देखता रहा है। गांव की गोरी और गांव की छटा को सिनेमा में देख देख हमारा दर्शक कभी रत्ती भर तक नहीं उकताया। सपनों जैसी सतरंगी सजावट से लबरेज दुनिया के दर्शन कराने वाला सिनेमा का परदा अब भी आबाद है। उस पर नित नई जगहें, हर रोज नए शहर और नए-नए किस्से कहानियां दिखते हैं। लेकिन गांवों के दर्शकों के बीच पहले से भी ज्यादा मजबूत मुकाम बना चुके सिनेमा से अब गांव गायब हैं। 

किसी फिल्म में कभी कभार कोई गांव आता भी है, तो वह सरसों से लहलहाता हुआ सरसब्ज समृद्ध पंजाब का कोई गांव होता है। या फुर्र से सीधे स्विट्जरलैंड का गांव। जहां की झलक रही समृद्धि हमारे गांव के अलसी स्वरूप को ही चिढ़ाती सी दिखती है। जिस तरह की तस्वीर हमारे सामने है, उसे देखकर माना जा सकता है कि हमारे सिनेमा से गांव, खेत खलिहान और ग्रामीण परिवेश से जुड़े कथानक दूर होते जा रहे हैं।
फणीश्वरनाथ रेणु की बहुचर्चित कहानी ‘‘मारे गए गुलफाम’ पर आधारित फिल्म ‘‘तीसरी कसम’ में राजकपूर ने कितना बढ़िया गांव दिखाया था। लोग उसे आज भी याद करते हैं। राजश्री की फिल्म ‘‘नदिया के पार’ का गांव भी अब तक लोगों को लुभा रहा है। कुछ साल पहले आई विजय दानदेथा की कहानी पर आधारित फिल्म ‘‘पहेली’, श्याम बेनेगल की ‘‘वेलकम टू सज्जनपुर’ और ‘‘वेल्डन अब्बा’, आमिर खान की ‘‘लगान’, आशुतोष गोवारीकर की ‘‘स्वदेश’, विशाल भारद्वाज की ‘‘इश्किया’ और दशरथ मांझी की जीवनी पर बनी फिल्म ‘‘मांझी द माउंटेनमैन’ जैसी कुछ ही फिल्में हैं, जो ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित हैं। पर, अब ज्यादातर फिल्मों में गांव बिल्कुल नहीं दिखता। दरअसल, गांव दिखते थे, तो गरीब भी परदे पर दिखते थे। लेकिन जब गांव ही गायब हो गए, तो गरीब को तो गायब होना ही था। पिछले पांच साल में कुल मिलाकर पांच फिल्में भी नहीं आईं, जिनकी पृष्ठभूमि में गांव और कथानक में गांव का जीवन हो। 
जब भारत का 80 फीसदी दर्शक गांवों में रहता है, फिर भी गांव हमारी फिल्मों से गायब क्यों हैं? इसके जवाब में फिल्म निर्माता महेश भट्ट कहते हैं ‘‘हमारी फिल्म इंडस्ट्री की ज्यादातर कमाई मेट्रो सिटी और विदेशों से होती है। इसी कारण फिल्मों के विषय तय करते वक्त इन्हीं इलाकों और यहीं के दर्शक को केंद्र में रखकर फिल्म बनाने के बारे में सोचा जाता है।’ महेश भट्ट की ज्यादातर फिल्में शहरी दर्शक को केंद्र में रखकर बनी है। मगर ऐसा नहीं है कि महेश भट्ट गांवों के बारे में नहीं जानते। भट्ट कहते हैं – ‘‘भले ही देश का ज्यादातर दर्शक गांवों में रहता हो, लेकिन वह भी शहर और शहरी जिंदगी को बारे में ही जानना चाहता है।’ फिल्मकार मधुर भंडारकर कहते हैं ‘‘सिनेमा कुल मिलाकर व्यापार है। दर्शक जिस दौर में जो देखना चाहता है, फिल्मकार वही दिखाता है। यही कारण है कि हमारे सिनेमा में गांव की बजाय शहर और शहरी जीवन की झलक ज्यादा दिखती है।’ भंडारकर जोर देकर कहते हैं, ‘‘गांव जब खुद भी शहर की ओर देखने लगे हैं। गांव जब खुद शहर बनने की फिराक में हैं। और गांव जब खुद भी गांव बने रहना नहीं चाहते, तो उन पर फिल्म बनाकर हमारा निर्माता दर्शक को कहां ढूंढने जाएगा।’
आज का सिनेमा कुल मिलाकर नफा नुकसान का बाजार है। सिनेमा कोई फोकट में नहीं बनता। बहुत बड़ा पैसा लगता है इसे बनाने में। लेकिन एक वह भी दौर था, जब गांव हमारे सिनेमा के केंद्र में था और ग्रामीण परिदृश्य सिनेमा की आधारशिला। आखिर, निर्माता निर्देशक त्रिलोक जेटली ने बिना किसी नफा – नुकसान का ख्याल किये, ‘‘गोदान’ बनाकर प्रेमचंद की आत्मा को पूरी दुनिया के सामने पेश किया ही था। यही नहीं, सच कहा जाए तो, ‘‘गोदान’ के बाद ही साहित्यिक कथानक पर फिल्में बनने का रास्ता साफ हुआ। बाद में तो, खैर राजकपूर ने फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पर आधारित ‘‘तीसरी कसम’ बनाई। इसी तरह ‘‘रजनीगंधा’, ‘‘सूरज का सातवां घोड़ा’, ‘‘आशा का एक दिन’, ‘‘एक था चंदर.एक थी सुधा’, ‘‘बदनाम बस्ती’, ‘‘सत्ताईस डाउन’, ‘‘सारा आकाश’ आदि फिल्में हमारे सिनेमा के इतिहास में एक खास अध्याय लिख गईं। गांव तो ‘‘शोले’ में भी दिखा था। गुरुदत्त की ‘‘प्यासा, ‘‘कागज के फूल’ तथा ‘‘साहब, बीबी और गुलाम’ जिन लोगों ने देखी है, वे इतने सालों बाद भी आज तक उन्हें नहीं भुला सकते। 
‘‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में भी गांव ही थे और जीनत अमान उस गांव में रहने वाली एक तरफ से कुरूप चेहरे वाली युवती जिसे एक इंजीनियर से प्यार हो जाता है,उसके मिलन की व्यथा और ग्रामीण परिवेश देखते ही बनता था,फिल्म हिट हुई थी, इससे भी पहले की बात करें, तो ‘‘धरती के लाल’ और ‘‘नीचा नगर’ के माध्यम से दर्शकों को नयापन देखने को मिला और माटी की सोंधी महक से दर्शकों का परिचय हुआ। ‘‘दो बीघा जमीन’, ‘‘देवदास’, ‘‘बन्दिनी’, ‘‘सुजाता’ और ‘‘परख’ भले ही कोई बहुत कमाऊ फिल्में नहीं रहीं, लेकिन हमारे सिनेमा के लिए आज भी मील का पत्थर मानी जाती हैं। गांव, दरअसल जिंदगी की हकीकत हैं। वे शहरों की तरह नकली नहीं हुआ करते। यही वजह है कि गांव जब भी दिखते हैं, भले ही सिनेमा के परदे पर या साक्षात में, तो दिल में उतर जाते हैं।
‘‘नदिया के पार’ जैसी ग्रामीण परिदृश्य वाली ग्राम्य संवेदनाओं को प्रकट करती फिल्में आज भी जब टीवी पर आती है, तो पूरा का पूरा परिवार टीवी की स्क्रीन से कोई यूं ही थोड़े ही चिपक जाता है! इस बहुत तेजी से बदले परिदृश्य पर जावेद अख्तर ने ठीक ही कहा कि जब वे सिनेमा में आए थे, तो उनके साथियों ने उन्हें सलाह दी थी कि वे ऐसी कहानियां लिखने की कोशिश करें, जो ग्रामीण दर्शक को बाकी देश से जोड़े। लेकिन जावेद कहते हैं- ‘‘अगर यही बात मैं अब किसी से कहूं, तो नए लेखक – निर्देशक मुझको ही पुरातनपंथी मान बैठेंगे।’ मगर किया क्या जाए। इसके जवाब में जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टीवल के अध्यक्ष और रंग दे बसंती फिल्म के लेखक कमलेश पांडेय ने कहा ‘‘फिल्में अब शुद्ध रूप से व्यवसाय का रूप ले चुकी है और किसी को भी इस विषय को भी व्यापार के इसी नजरिये से देखना चाहिए। लेकिन नजरिया बदलेगा तो काम करने का तरीका भी बदलेगा। बस, गांव के विषय बहुत मजबूती से सामने आने चाहिए।’ पांडेय कहते हैं, ‘‘आखिर देश ने और शहरी समाज ने भी ठेट बिहार के ग्रामीण पृष्ठभूमि की फिल्म मांझी द माउंटेनमैन को सिर आंखों पर बिठाया ही है। उन्होंने कहा कि जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टीवल अब से जयपुर के आसपास के गांवों में भी आयोजित किया जायेगा। ताकि परदे पर भले ही कुछ वक्त बाद फिर से लौटें, लेकिन सिनेमा बनाने वालों की सोच में फिल्मों से गायब होते गांव फिर से वापस लौट आएं।’ फिल्म निर्माता केसी बोकाड़िया कहते हैं, उनकी ज्यादातर फिल्मों गांवों में ही बनी हैं, उनमें गांवों की जिंदगी भी भरपूर दिखाई गई है, क्योंकि वे खुद गांव के व्यक्ति रहे हैं। लेकिन उनका कहना है- ‘‘हमारे निर्माता, निर्देशक, और लेखक अगर गांवों में जाएंगे, वहां घूमेंगे और गांवों को समझेंगे, तो ही हमारा सिनेमा फिर से पहले की तरह से गांवों को दिखाने लगेगा। वरना, तो जिस तरह से समाज में गरीब और अमीर की खाई बढ़ती जा रही है, उसी तरह से गांव और शहर के बीच फासला बहुत ज्यादा बढ़ जाएगा।’ लब्बोलुआब यही है कि हमारी फिल्मों पर शहरी जिंदगी का कब्जा मजबूत हो गया है और गांव, गरीब व उनसे संबंधित सबकुछ फिल्मों से बाहर हो चुका हैं।

ग्लैमर हर किसी को लुभाता है। सो, गांव दिखाकर हर पल सुख की लालसा में भाग रहे दर्शक का स्वाद क्यों खराब किया जाए ।