मरती इंसानियत गिरते लोग

सागर शर्मा 

प्रतिभा बिक रही देखो आज वातानुकूलित दुकानों में।
जहाँ इंसानियत सरेआम मर रही यूँ आज इंसानों में।।

लाखो में मिल रहे सम्मान,जज्बे टूट रहे पहलवानों में।
क़यामत आएगी,धरती घिर जाएगी भयानक तूफानों में।।

बेटियां मर रही तेज़ाब की जलन से कहीं घुसलखानो में।
रूह चीख पुकार मचा रही अबलाओं की शमशानों में ।।

फैशन की बाढ़ आ गई देश में यूँ उत्थान के पैमानों में ।
दहेज़ की खातिर मारी जा रही बेटी उनके मकानों में ।।

खींच कर गोस्त लाशों से पका डाला कब्रिस्तानों में ।
दरिंदगी की इन्तेहाँ हुई,नरभक्षी मिला आज इंसानो में ।।

चौकस फौजी करते रक्षा सीमा पर तपते रेगिस्तानों में ।
नेता मौज उड़ाते वोटों से लेकर नोटों तक मकानों में ।।

अर्जुन नहीं बन पाया सामोता लाखों के महज इंतज़ामों में ।
वहीँ जंग छिड़ी है सुशील और नरसिंह के दीवानों में ।।

दंगों में सिक रही रोटियां,मानवता कटती बूचड़खानों में।
राम रहा ना रहीम यहाँ ,बेगुनाह मौत अब नहीं संज्ञानों में ।।

साया आतंक का पसर रहा कांपते शिक्षण संस्थानों में ।
गुरुजी आए वोट मांगने,चेले पीकर पड़े मयखानों में ।।

धधक रही गली गली आतंक से,पुलिस सोई थानों में।
बाप जुटा हाथ करने पीले बेटी के,भाई इज्जत बचाने में ।।

तेरी बातों में दम नहीं क्यों करता हल्ला यूँ वीरानों में।
“सागर” छोड़ दे लिखना, क्या रखा है समझाने में।।