मित्रता के मायने

डॉ. सरोज व्यास
प्रधानाचार्य,
इंदरप्रस्थ विश्व विद्यालय, दिल्ली

हैलो ! कौन ? सरोज ! मैं बोल रही हूँ बेबी ! भूल गई या कभी याद भी करती हो मुझे ? एक ही साँस में उसने कुशल-क्षेम के साथ उलाहना देते हुये पूछ लिया | परिवार, रिश्तेदार और विद्यार्थियों में से किसी भी बेबी नाम का स्मरण मुझे नही हुआ, ऐसे में प्रतिउत्तर स्वाभाविक था, कौन बेबी ? दूसरी ओर से आवाज आई मेरा नाम भी याद नही है तुझे ? तेरी बचपन की सहेली बेबी बोल रही हूँ, याद आया कि नहीं ? एक क्षण को मैं बचपन की स्मृतियों में लौटी किन्तु किसी भी बेबी की यादें मेरे जहन में नही थी, कुछ संकोच के साथ आवाज को धीमा करके मैंने कहा – माफ़ी चाहती हूँ, नही पहचान पा रही हूँ |

फोन पर भी मैं उसकी हताशा और व्यथा को महसूस कर रही थी, लेकिन क्या करती मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा था | एक लम्बी साँस लेते हुये उसने कहा – “जानती हूँ, तुम्हारे पास समय नहीं है, मैंने सुना है, तुम दिल्ली की किसी कॉलेज में प्रिंसिपल हो गई, जीजाजी भी किसी बड़े पद पर अधिकारी हैं | मेरे जैसी सहेली को तुम कभी का भूला चूकी हो, लेकिन मैं तुम्हें कभी नहीं भूल पाई” | बिना रुके वह बोलती रही, मैं नि:शब्द बस सुन रही थी | अचानक शायद उसे याद आया कि जिसे वह यह सब सुना रही है, वह उसे अभी तक पहचान भी नहीं पाई | कुछ रुक कर वह बोली – “सरोज मैं तेरी बचपन की सहेली ! तुम्हारे पड़ोस में रहती थी, तुम्हारे घर झुला-झुलने आया करती थी, तेरी सगाई और शादी में भी आई थी, मैं बेबी !” उसके सब्र का बाँध टूट चूका था | फिर भी उम्मीद कायम थी, तभी तो उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही प्रतिउत्तर कर डाला – “पहचान गई ना” ?

‘हाँ याद आया, बेबी ! लेकिन तुम्हें मेरा नंबर कहाँ से मिला” ? आज महसूस कर रही हूँ, उसके लिए यह सुनना कितना पीड़ादायक रहा होगा | उसने ख़ुशी से चहकते हुई कहा –“देखा ढूंढ लिया ना ! तुम क्या जानो, मैंने तुम्हारे बारे में किस-किस से नहीं पूछा ? तुम्हारी शादी से बाद तुम्हारे माता-पिता ने घर बदल लिया, मेरी शादी में भी तुम्हारा पता नहीं होने के कारण तुम्हें बुला न सकी | शादी के बाद अपनी गृहस्थी में रम गई, बच्चें हो गये, लेकिन तुम्हें कभी भुला न सकी, तुम ही तो मेरी एकमात्र पक्की सहेली थी” | शायद वह बचपन की यादों में खो गई, लेकिन मेरी जिज्ञासा जहाँ की तहाँ थी, बेबी को इतने वर्षों बाद मेरा नंबर कहाँ से मिला होगा ? मेरी शादी १९८५ में हो गई थी, २०१४, यानि २८ वर्षों बाद अचानक, इस तरह उसका मुझे ढूंढ लेना मेरे लिए आश्चर्यजनक किन्तु अदभुत था |

बेबी २८ वर्षों के बिछोह को क्षणों में पाट लेने को आतुर थी, उसने बोलना जारी रखा – “यह हमारा प्रेम ही है सरोज, कि मैंने तुम्हें ढूढ़ लिया, मेरे जीवन का कोई भी दिन ऐसा नहीं बीता कि मैंने तुम्हें याद ना किया हो | मेरे पति, बच्चें और दामाद ! सब तुम्हें जानते है, अनेक अवसरों पर तुम्हारी चर्चा होती है, मेरे घर का प्रत्येक प्राणी तुम से मिलने, तुम को देखने को उत्सुक है, इतने वर्षों के प्रयास के बाद तुम्हारी जानकारी ले पाई हूँ, खुद को रोक नहीं पाई फोन करने से, मैंने तो अपनी कह दी, अब बताओं तुम कैसी हो” ?

मैंने कहा – “अच्छी हूँ”, पर एक बात बताओ, तुम्हें मेरे बारे में जानकारी कहाँ से मिली” ? उसने हँसते हुए कहा– “चौंका दिया ना ! चलो बता ही देती हूँ –‘शादी के कुछ वर्षों बाद पिताजी का देहांत हो गया, सौतेले भाई नहीं चाहते थे कि मैं उनके यहाँ जाऊँ, इस तरह पीहर छुट गया | जब सीकर ( हम दोनों का पीहर ) आना-जाना ही बंद हो गया तो तुम्हें ढूढती कहाँ ? लेकिन तुम हमेशा मेरे दिल-दिमाग में छाई रही, अकसर सोचती काश ! एक बार कहीं से तुम्हारा पता मिल जाये, और देखो इतने वर्षों बाद भगवान ने मेरी सुन ली” | मैं उत्सुकता से बस सुन रही थी, उसने कहना जारी रखा – “कुछ दिनों पहले मेरा नाती बीमार हो गया, ( बेटी का पुत्र ) उसे जयपुर के अस्पताल में भर्ती करवाया, वही बगल के बेड पर एक अन्य बच्चा भर्ती था, बातचीत में जानकारी हुई कि वह श्रीमाधोपुर से है | मुझे याद था तुम्हारी ससुराल भी श्रीमाधोपुर है, बस ! फिर क्या था मैंने पूछताछ शुरु कर दी, विपदा की उस घड़ी में भी मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था, क्योंकि एक उम्मीद थी तुम्हारी जानकारी मिलने की” | वह आगे अपनी बात को जारी रखती उससे पूर्व ही मैं बोल पड़ी – “लेकिन बेबी, मैं वहाँ नहीं रहती हूँ, श्रीमाधोपुर इतना बड़ा है, मुझे मेरे नाम से कोई नहीं पहचानता” | हंसते हुए वह कहने लगी – “बहन ‘जहाँ चाह वहां राह’, बगल के बेड पर भर्ती बच्चे के साथ उसके नाना थे, जब मैंने उनसे कहा कि आपके गाँव में मेरी बचपन की सहेली का ससुराल है, तो पूछने लगे – किसके यहाँ, उसका घर कहाँ है, तुम्हारी सहेली के पति का नाम क्या है और वह करता क्या है ? एक बार तो उनके प्रश्न सुन कर निराश हो गई, क्योंकि तुम्हारे और जीजाजी के नाम के अतिरिक्त मुझे अन्य कोई जानकारी नहीं थी, फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी | मैंने उन्हें कहा – हम सीकर से है, तेरा और जीजाजी का नाम बताया तथा आग्रह किया कि वे तुम्हारे बारे में गाँव में किसी से जानकारी हासिल करके मुझे बताने की कृपा करे” | 

उनका उत्तर सुनकर ईश्वर की अनुकम्पा का जैसे साक्षात्कार हुआ हो, तू विश्वास नहीं करेगी की वह व्यक्ति तेरे ससुर थें | जब उन्होंने तुम्हारा और जीजाजी का नाम सुना तो मुस्कुराते हुये बोले – “ तुम्हारी सहेली मेरे बड़े बेटे की पत्नी, मेरी बड़ी बहु है | मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मेरी वर्षों की तलाश का प्रतिफल इस प्रकार मिलेगा | 

लम्बे वार्तालाप और संशय के निवारण उपरांत मुझे महसूस हुआ कि मैंने इसके परिवार के बारे में तो पूछा ही नहीं | मैंने कहाँ – “अच्छा बता तेरे पति कैसे है ? क्या करते है ? कितने बच्चे हैं ? तुमने अभी बताया नाती बीमार था, तुम्हारे बच्चों की शादी भी हो गई” ! इतना सब एक ही साँस में बोल कर मैं उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी | उसने जो कहा – वह सहज स्वीकार्य एवं कर्णप्रिय नहीं था, तथापि उसने कहा और मैंने सुना | शादी के कुछ वर्षों उपरांत ही उसके पति का स्वर्गवास हो गया, चार बच्चों में से बड़ी बेटी की जैसे-तैसे शादी कर दी, शेष दो बेटियां और एक बेटा पढ़ रहे हैं | घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं हैं, बच्चों के साथ मिलकर अख़बार के लिफ़ाफे बनाकर अपने परिवार का गुजर-बसर कर रही है, पति ने जीवित रहते एक छोटा सा घर बना लिया था, यह भी बड़ा संतोष है कि सर छुपाने के लिए उसके पास अपनी छत है |

मुझे मौन पाकर उसने कहा – “मेरे बच्चों से बात करेगी ? सब मुझे घेर कर खड़े है, अपनी सरोज मौसी से बात करने को” और इतना कहकर उसने एक-एक करके तीनों बच्चों से बात करवाई | शिक्षा सम्बन्धी जानकारी लेने के अतिरिक्त अन्य कोई बात मैं उनसे नहीं कर पाई, पुनः वार्तालाप हेतु बेबी ने मोबाईल ले लिया था | मैंने संवेदना प्रगट करते हुये कहा – “बहुत बुरा हुआ तुम्हारे साथ, सुनकर दुःखी हूँ” |

“जन्म से ही भाग्य में दुःख लिखा कर लाई हूँ बचपन में माँ मर गई, किशोर होते-होते पिता का साया सर से उठ गया, भरी जवानी में विधवा हो गई हूँ और न जाने क्या-क्या देखना बाकी है इस जीवन में, छोड़ो ! तुम फिर से मिल गई यह क्या कम सौभाग्य की बात है | आज मैं बहुत खुश हूँ, अपना मन ख़राब मत कर, तुम तो खुश हो ना ? जीजाजी को मेरा प्रणाम कहना और बच्चों को प्यार ! अब तुम फोन करना, मेरा नंबर नोट कर लो, रखती हूँ बहन” ! एक ही वाक्य में जीवन का सारा दर्द समेट कर बेबी ने फोन काट दिया |

इस घटना ने मुझे सोचने पर विवश कर दिया, ऐसा प्रतीत हुआ की कलयुग में संभवतया मित्रता को निभाने का दायित्व सुदामा का है, क्योंकि कृष्ण अपने साम्राज्य के विस्तार और समाज में विशिष्ठ स्थान की अभिलाषा में मित्रता के मायने भूल गये है | भौतिकता वाद के इस युग में जीवन को सुखद बनाने वाली सुविधायें निरंतर बढ़ती ही जा रही है किन्तु आत्मा को समृद्ध बनाने वाली खुशियाँ उपेक्षित एवं तिरस्कृत हो रही हैं | मेरे पास प्रतिदिन अनगिनत फोन एवं मैसेज आते होंगे, किन्तु मुझे उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी मेरे एक फोन से बेबी को होगी | सोचने का विषय है कि – कलयुग में आत्मिक सुखों के संदर्भ में कौन दरिद्र है – कृष्ण या सुदामा ???