ईश्वरी माया

मधुरिता 

संसार का परम सत्य जो सर्वव्यापी है वह ईश्वर है. जो हमें इस सत्य को अनुभव  करने से दूर ले जाये उसी परदे का नाम माया है।

संपूर्ण ब्रम्हांड साक्षी है सूर्य चन्द्र तारे गृह आकाश पृथ्वी हवा व् अथाह समुद्र, प्रकृति का अद्भुत सौन्दर्य सभी मिलकर मानो ईश्वर की माया के अंतर्गत ध्यानस्त हो अपनी स्थिति को सत्य सिद्ध करने के प्रयास में  जुटे हैं।

प्राचीन समय मैं ईश्वर पर पूर्ण श्रद्धा व पूर्ण विश्वास रख कर भावना सहित साधना की जाती थी, जिसका उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव भी होता था।  नैतिक आचरण श्रेष्ठ था क्योकि वे जो साथना करते थे उसे अपने जीवन में क्रियान्वित भी करते रहते थे। हर क्षेत्र में नियम से चलते जिसे कोई भी न तोड़ता था।  बड़े बुजुर्गों का सम्मान होता जिन्हें देख कर बच्चों में भी उच्च संस्कार की नीव डलती  थी तथा  बड़े होकर हर क्षेत्र मैं सफलता उनके कदम चूमती थी।  एक सफल, स्वस्थ एवं संतुलित   जीवन व्यतीत करते थे। वे अंतरात्मा का भी बराबर धयान रखते थे,  जिससे वे ऐसा कोई गलत कार्य न करते थे जो किसी प्राणी मात्र को कष्ट पहुचे। ये तो हुई पुरानी बात।

आज लोग पूजा करते हैं इतनी वयस्तता से भी समय निकालते जरूर हैं। कोई हर महीने गंगा स्नान करते, कोई तीर्थ स्थानों को जाते। कोई अपने घर मैं ही एक दो घंटा ईश्वर के सामने बैठ ध्यान  या पाठ कर बेफिक्र हो रोज़ मशीन ( टेप ) के तरह भाव शून्य हो ईश्वर की साधना मैं लगे रहते हैं।

व्यवहार नहीं बदलता वही माया अपना काम ———-.

हम ऑफिस रोज़ आना जाना करते हैं। वंहा की चीज़ को घर नहीं लाते।  ठीक उसी प्रकार हम भी ध्यान पूजा करके उसे पूजा-घर पर ही छोड़ आते हैं।  माया हमें उल्टा दिमाग घुमा  देती है –हमने तो पूजा कर ली बीच में पर्दा डाल देती है और हम सच झूठ मैं लगे रहते है।

हर इंसान को अपने जीवन से शिकायत रहती है — इतना पूजा ध्यान जप ताप साधन भजन करते तो भी हमें  उस ईश्वरीय  सत्य  का दर्शन नहीं होता,  आत्मज्ञान नही होता —. थोडा विवेक से चिंतन करके देखे तो ————–
 अरे भाई जब फार्मूले ही गलत लगाओगे तो चीज़ बढ़िया कैसे बनेगी ?