आजादी से पहले हमारा देश सैकड़ों रियासतों में बँटा हुआ था और प्रत्येक प्रान्त में समय २ पर अनेक राजाओं ने राज किया और अपने २ राज्य को अपनी २ बल-बुद्धि, राजनैतिक और सैनिक बल कौशल के अनुसार राज किया और अपनी बुद्धि एवं विवेकानुसार राज चलाने के लिए कायदे कानून भी बनाये । लेकिन एक बात लगभग सभी राज्यों / रियासतों में सामान्य देखी जा सकती है – और वह है यहां की जाति प्रथा । जितना पुराना इस देश का इतिहास है, लगभग उतनी ही पुरानी इसमें जाति प्रथा भी देेखने में आती है । कम से कम पाँच हज़ार वर्षों से तो जातिप्रथा का घुन इस देश के गौरव को एक दीमक की तरह चाट ही रहा है, महाभारत के समय (एकलव्य को जब तीरंदाज़ी में खेल में प्रतियोगिता में ईमानदारी से हराना मुश्किल प्रतीत हुआ तो बाक़ायद एक सोची समझी साजिश के अंतर्गत उसका अंगूठा ही कटवा दिया) में इसके अनेक रूप देखने को मिलते हैं। देश की 85 प्रतिशत पिछड़ी जातिओं में अधिकाँश ने सोचा था कि जब देश आज़ाद हो जायेगा तब यह जातिप्रथा भी समाप्त हो जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं, क्योंकि देश के शीर्ष नेता भी इसे समाप्त करना नहीं चाहते थे ! देश की आज़ादी से बहुत पहले जब बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर जी भी राजनैतिक क्षितिज पे उभर चुके थे, और उन्होंने भी इस गन्दी और घटिया मानसिकता वाली जातिप्रथा का दंश अनेकों बार झेला / भुगता था । उन्होंने उस वक़्त के बड़े २ कांग्रेस के नेताओं को, ख़ास तौर पे महात्मा गाँधी को भी समझाने की कोशिश की थी कि आपको देश के लोग एक बड़ा नेता मानते हैं, अगर आप खुद आम जनता जनार्दन को समझाएं कि यह प्रथा ग़लत / निराधार है, अमानवीय है और इसे राष्ट्रहित में समाप्त कर देना चाहिए और इसके आधार पर किसी से भी भेदभाव या तिरस्कार करना निहायत ही गलत बात है, लेकिन महात्मा गाँधी ने भी डॉ अम्बेडकर की बात नहीं मानते हुए उत्तर दिया, “मैं एक कट्टड़ हिन्दू हूँ और मनुस्मृति में बताई गई वर्ण व्यवस्था को सही मानता हूँ और उसके अनुसार जीवन भी जीता हूँ, जबकि एक बार वह खुद भी साउथ अफ्रीका में रंग और नस्ल के आधार पे भेदभाव के शिकार हो चुके थे जब उनको गाड़ी के फर्स्ट क्लास के डिब्बे से इसलिए उतार दिया था क्योंकि वह काले रंग के थे !
लेकिन यह बात भी सौ फ़ीसदी सही है कि इस झूठी, काल्पनिक और अवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित जातिप्रथा ने, सदियों से इसने समाज का उतना भला नहीं किया जितना नुकसान किया है, क्योंकि यह किसी भी व्यक्ति को उसकी बुद्धि , विवेक और विचार-कौशल / तर्कशीलता के आधार से पढ़ने लिखने और प्रगति करने का अवसर नहीं देती, बल्कि शोषितों के उन्नति के मार्ग में अवरोध ही पैदा करती है ! अगर जाति प्रथा ने किसी को लाभ पहुँचाया है तो वह हैं केवल देश की अगड़ी जातियों के लोग (जिनकी गिनती केवल 15 प्रतिशत से भी कम है), जिनको इसके अंतर्गत फ़लने फूलने और प्रगति करने के खूब अवसर सदियों से मिलते रहे हैं, आज भी मिल रहे हैं, इसके ठीक विपरीत पिछड़ी जातियों के रास्ते में तो इसने हमेशा रोड़े ही अटकाए हैं, उनके साथ यह लाखों अगड़ी जातियों के लोग अनेक प्रकार के भेदभाव, अस्पृश्यता एवं तिरस्कार के मामले, शोषितों को शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न देने जैसे अमानवीय व्यवहार करते आये हैं । केवल इतना ही नहीं, अगड़ी जातियों के तथाकथित पढ़ेलिखे नेताओं ने भी ऐसे भेदभाव का कभी खुलकर विरोध नहीं किया और ना ही आम जनता को इसके लिए समझाने की कोशिश की है!
ऐसा नहीं है की जातिपाति आधारित भेदभाव केवल पिछड़ी जातियों के छोटे लोगों के साथ ही होता आया है, बल्कि यह तो हर उस इंसान के साथ होता आया है जिसने भी थोड़ा पढ़-लिखकर उन्नति करने और आगे बढ़ने की कोशिश की है ! गुरु रविदास , गुरु नानक देव, संत कबीर दास जी से लेकर महात्मा ज्योतिबा फूले, माता सावित्री बाई फूले, रामजी सकपाल, डॉ. बीआर अम्बेडकर और पेरियार रामस्वामी इत्यादि बहुजन समाज के अनेक बड़े २ विद्वानों, नेताओं और समाज सुधारकों ने भी समय २ पर समाज में परिवर्तन लाने के हज़ारों प्रयास किये, लेकिन अगड़ी जातियों के नेता अपनी सदियों पुराणी रूढ़िवादी मानसिकता के चलते हमेशा उनके प्रयासों को विफ़ल करने में ही लगे रहे ! वे यह बर्दाश्त ही नहीं कर पाए कि दलित शोषित वर्ग के लोग भी अपनी जिंदगी में आगे बढ़ें और प्रगति करें और उनके समकक्ष आकर खड़े हो जाएं !
अभी थोड़े ही दिन पहले मुझे एक और ऐसा ही किस्सा पढ़ने को मिला जिसको मैंने और खंगाला तो एक नया मामला सामने आया जोकि आजकल की पीढ़ी ने शायद सुना भी न हो ! 1947 में भारत ने आज़ादी हासिल की और आज़ाद भारत का साशन / प्रसाशन सुचारु रूप से चलाने के लिए संविधान भी लिखा गया जिसको बनाने में लगभग तीन वर्ष लग गए थे ! 26 जनवरी 1950 को इस संविधान को देश की संसद ने पास कर दिया और यह देश का सर्वोत्तम कानून बन गया ! इसी संविधान के अंतर्गत 1952 में देश के पहले आम चुनाव कराए गए और बाकायदा लोगों द्वारा चुनी गई सरकार सत्ता में आई ! इसके पश्चात राष्ट्रपति का भी चुनाव हुआ और डॉ. राजेंद्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति चुने गए ! चारों तरफ़ खुशियों का माहौल था कि अब देश में अपने चुने हुए प्रतिनिधि आम जनता जनार्दन की दुःख तकलीफों को देखते और समझते हुए सुलझाएँगे और पूरे समाज में परिवर्तन / विकास की हवा चलेगी और खुशहाली आ जाएगी ! लेकिन यहाँ तो फिर एक नया हंगामा शुरू कर दिया गया – देश में जगह २ राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के विरोध में प्रदर्शन होने लग गए ! यह विरोध प्रदर्शन उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा हो रहे थे, खास तौर पे बनारस में, यहां पंडितों ने कहना शुरू कर दिया कि डॉ राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति नहीं बनाया जाना चाहिए था, क्योंकि वह कायस्थ हैं और धर्म ग्रंथों के हिसाब से कायस्थ शूद्र जाति में आते हैं और किसी भी शूद्र का इतने ऊँचे पद पे बिराजमान होना देश और समाज के लिए अनिष्ट का प्रतीक होता है !
डॉ. राजेंद्र प्रसाद (3 दिसंबर 1884 से 28 फ़रवरी 1963) बिहार के सिवान जिले के रहने वाले थे और बड़ी तीक्षण बुद्धि के विद्यार्थी थे! उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से 1907 में अर्थशास्त्र में एमए करने के बाद अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर बने, फिर इसी यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई एलएलएम भी पूरी करके वकालत करने लग गए ! क्योंकि उन दिनों देश में आज़ादी की लड़ाई भी चल रही थी और महात्मा गाँधी के सम्पर्क में आने के बाद उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ कर आज़ादी की लड़ाई में संघर्ष करने लग गए ! 1934 में वह इंडियन नेशनल कांग्रेस के पांच वर्ष के लिए अध्यक्ष भी बन गए ! बड़े लम्बे संघर्ष के बाद आख़िरकार 15 अगस्त 1947 को देश आज़ाद हो गया और 1952 में पहले आम चुनाव के बाद राजेंद्र प्रसाद देश के पहले राष्ट्रपति चुने गए ! स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने की वजह से कई बार उनको जेल यात्रा भी करनी पड़ी! जाहिर सी ही बात है कि कोई आदमी ऐसे ही नहीं इतने बड़े देश का राष्ट्रपति बन सकता, उसको देश की पूरी संसद ने और सभी प्रांतों की विधान सभाओं ने ही मिलकर चुना होगा ! और इन सबके चलते हुए उनके राष्ट्रपति बनने पर ब्राह्मणों ने सवाल खड़े करने शुरू कर दिए और विरोध प्रदर्शन भी, बस उनकी जाति को लेकर । कोई उनकी शैक्षणिक योग्यता की बात नहीं कर था, अपनी अच्छी भली नौकरी छोड़कर आज़ादी की लड़ाई में कूद जाने और उनके द्वारा किये गए अनेकों योगदानों / बलिदानों की बात कोई नहीं कर रहा था, बस ब्राह्मणों को जातिगत जलन / नफ़रत की वजह से उनकी पिछड़ी जाति के सामने उनकी अन्य अनेकों उपलब्धियां / कुर्बानियाँ फ़ीकी नज़र आ रही थी !
जब यह विरोध प्रदर्शन और समाचार पत्रों में उनकी पिछड़ी जाति को लेकर चर्चे बंद नहीं हुए (आखिर यह समाचार पत्र निकालने वाले भी तो अगड़ी जातियों के ही लोग थे) तो एक दिन तत्कालीन प्रधान मंत्री, पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस समस्या का समाधान निकालने के इरादे से अपने कुछ सहयोगी मंत्रियों के साथ मीटिंग की ! उस मीटिंग के बाद यह फ़ैसला लिया गया कि कोई ऐसी तरकीब निकालते हैं कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति भी बने रहें और उनके विरोध में होने वाले प्रदर्शन भी बंद हो जाएं ! जन्म के आधार पर / जातिपाति आधारित किसी से भेदभाव करना गलत बात है, यह बात पण्डितों को समझाने की कोशिश नहीं की गई ! फिर उस फ़ैसले पर अमल करते हुए एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें बनारस के 101 पंडितों को बुलाया गया और डॉ. राजेंद्र प्रसाद को बोला गया कि वह बारी २ से उन सब पंडितों के चरण धोएँ, प्रत्येक पंडित को 11-11 रूपये दक्षिणा के रूप में दान करें, उनके गले में फूलों की माला डालें और साथ में मिठाई का एक एक डिब्बा भी तोहफ़े स्वरूप भेंट करें ! यह घटना नवम्बर 1952 की है, देश के एक अच्छे पढ़ेलिखे और चुने हुए राष्ट्रपति से यह सभी काम करवाने के बाद पण्डितों का गुस्सा और विरोध शान्त हुआ और इसके बाद उन्होंने इस बात की घोषणा कर दी कि अब डॉ. राजेंद्र प्रसाद का शूद्र होने का अशुभ प्रभाव समाप्त हो गया है और फ़िर ऐसे पण्डित पैसे और मिठाई लेकर ख़ुशी २ अपने घर चले गए !
जिस देश में जब किसी व्यक्ति को उसकी शिक्षा और समाज के लिए किये गए सैकंडों योगदानों को भुलाकर, बस उसकी जाति को लेकर जगह २ उसका अनादर / तिरस्कार किया जाता हो, और नेता लोग यह कहते सुने जाएं कि हम कनाडा, अमरीका , इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी या ऑस्ट्रेलिया से प्रतिस्पर्धा वाली आर्थिक उन्नति और प्रगति हासिल कर लेंगे, यह दावा आज भी कितना हास्यास्पद और खोखला नज़र आता है ! राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद से अपने पाँव धुलवा के दक्षिणा लेने वाले वह 101 पंडितों में से कितने ही ऐसे थे जिन्होंने दसवीं भी नहीं पास की होगी, इसकी चर्चा किसी अख़बार ने नहीं की, राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने एमए अर्थशास्त्र करने के बाद एलएलएम तक की भी पढ़ाई कर रखी थी, कॉलेज में प्रोफेसर भी रह चुके थे, देश की आज़ादी के लिए उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी तक छोड़कर अपनी सारी जिंदगी दाँव पर लगा दी थी, इसकी भी चर्चा किसी अख़बार ने नहीं की, बस एक झूठी और काल्पनिक जातिवादी कुटिलता / मानसिकता के चलते हुए उनके जन्म / जाति निर्धारण करने वाली मनुस्मृति को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हुए उनका विरोध, अनादर और तिरस्कार करते रहे ? ऐसी घटिया मानसिकता को कैसे उचित ठहराया जा सकता है? और ऐसा एक बार नहीं हुआ, बाबा साहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर का भी हज़ारों बार ऐसे ही अनादर / तिरस्कार करते रहे हैं ये अगड़ी जातियों वाले ! आए दिन जगह लगे हुए उनके पुतलों को नुकसान पहुँचाया जा रहा है, क्योंकि अगड़ी जातियों वाले शैक्षणिक योग्यता, बुद्धिमत्ता और पूरे देश के लिए किये गए उनके सैंकड़ों महान कार्यों में उनका मुकाबला तो नहीं कर सकते, अलबत्ता उनके प्रति अपनी नफ़रत का इज़हार अपने ऐसे शर्मनाक व्यवहार से आये दिन करते ही रहते हैं ? उनके द्वारा लिखे गए संविधान के पन्ने भी यदाकदा फ़ाड़ते रहते हैं, ऐसे कृत्य करने वालों पर कोई क़ानूनी कारवाही नहीं होती, ऐसा क्यों ?
देश की आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी ऐसे घिनौने भेदभाव और तिरस्कार और दलित शोषित वर्ग के लोगों को नीचा दिखाने के कारनामे अभी भी कहां समाप्त हुए हैं ? अक्सर इनके कितने ही उदाहरण समाचार पत्रों और सोशल मीडिया पर अक्सर देखने और पढ़ने को मिलते ही रहते हैं ! जब तक देश के बड़े २ नेता लोग अपनी बुलंद आवाज़ में ऐसी झूठी और विवेकहीन / अवैज्ञानिक जातिपाति व्यवस्था को गलत नहीं ठहराते, जाति आधारित और अत्याचार करने वालों को कड़ी सज़ा नहीं देते, सभी इन्सानों को उनकी शैक्षणिक योग्यता और बुद्धि कौशलता के आधार पर उनकी कदर नहीं करते, समाज में उनका बनता जायज़ मान सम्मान नहीं देते, इस देश में जबतक जातिपाति आधारित झगड़े / दंगे होते ही रहेंगे और देश प्रगतिशील / विकासशील देशों की श्रेणी में पिछड़ता ही रहेगा ! यह बात उतनी ही सही है जितना यह तर्क पक्का है कि जितना रात के बाद अगला दिन भी जरूर निकलेगा !
और आम जनता जनार्दन को यह बात / तर्क समझाना जितना देश की सभी पार्टियों के नेताओं / बुद्धिजीवियों के लिए आवश्यक है , उतना ही अगड़ी जातियों के लिए इसे समझना भी अत्यंत आवश्यक है, केवल अपने लिए नहीं, बल्कि समग्र समाज और राष्ट्रहित के लिए यही अत्यंत आवश्यक भी है ! देश और समाज बड़ा होता है, यह एक सच्ची बात है, जातिपाति और वर्णव्यवस्था केवल झूठी ही नहीं, बल्कि अवैज्ञानिक भी है; अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का मुकबला करने के लिए जितनी जल्दी हो सके इसे समाप्त कर देना ही राष्ट्रहित में है !!
आर डी भारद्वाज “नूरपुरी ”