सवित्री फूले एक महान दलित विद्वान, समाज सुधारक और देश की पहली महिला शिक्षिका, समाज सेविका, कवि और वंचितों की आवाज उठाने वाली सवित्रीबाई फूले का जन्म 3 जनवरी, 1831 को एक दलित परिवार में हुआ था ! उनके पिताजी का नाम खण्डोजी नेवसे पाटिल और माता जी का नाम लक्ष्मीबाई था और वह महाराष्ट्र के सातारा जिले के नायगांव नाम के एक छोटे से गाँव के रहने वाले थे ! लक्ष्मीबाई के तीन भाई थे और उनके पिताजी अपने गाँव के मुखिया थे ! सावित्रीबाई बचपन से ही बड़ी मेहनती और साहसी लड़की थी और जरुरत पड़ने पर अपनी सखियों सहेलियों की सहायता करना उसे अच्छा लगता था! उनके निर्भीक होने का तो लोगों को बचपन में तब एक बहुत बढ़िया मिसाल देखने को मिली जब वह अपने गांव के बाहर पेड़ों को छाया में अन्य लड़कियों के संग खेल रही थी कि अचानक एक साँप रेंगते हुए आया और साथ वाले पेड़ पर चढ़ने लग गया ! सांप देखकर बाकी बच्चे तो डरकर छोर मचाने और इधर उधर भागने लग गए, लेकिन सवित्रीबाई ने बड़ी हिम्मत का परिचय देते हुए पेड़ से एक मोटी सी टहनी तोड़ी और उससे साँप को मारने लग गई , क्योंकि उसने देख लिया था कि पेड़ पर किसी पक्षी का घोंसला है और साँप पेड़ पर चढ़कर उसके अण्डे खाना चाहता था ! फिर बाकी बच्चे भी उसे बड़ी उत्सुकता से देखने लग गए कि आखिर वह साँप को पक्षी के घोंसले तक पहुँचने से रोक पाती है या नहीं ! सवित्रीबाई सांप को मारती रही और थोड़ी देर में सांप वहाँ से भागकर साथ वाले खेतों में जाकर ओझल हो गया तो सभी बच्चों ने तालियां बजाकर सवित्रीबाई का अभिनन्दन किया !
सवित्रीबाई अभी नौ वर्ष की ही थी कि थोड़ी दूर एक दूसरे गांव की लड़की सगुणाबाई उसके लिए एक रिश्ता लाई और उसने इसके लिए उनके पिताजी खंडोजी नेवसे से बातचीत की ! तो ऐसे बातों – २ में पता चला कि सगुणाबाई जो रिश्ता लाई है वह उसके मौसा गोविन्द रॉव का लड़का ज्योतिबा रॉव फूले है और वह एक मिशनरी स्कूल में पाँचवी कक्षा में पढ़ता है ! उनके पिताजी ने अपनी तरफ़ से थोड़ा खोजबीन करके 13 वर्ष के ज्योतिबा रॉव से यह रिश्ता पक्का कर दिया ! उन दिनों बच्चों की शादियाँ छोटी उम्र में ही कर दी जाती थी, लेकिन दो तीन वर्ष बाद जब लड़की थोड़ी स्याणी हो जाती थी , तब एक और रसम (गौणा) करके दुल्हन को अपने घर ले आते थे ! गोविन्द रॉव खेतीबाड़ी का काम करते थे और ज्योतिबा अपने पिता के इस काम में सहायता किया करते थे ! खेती के काम से जब भी थोड़ा फुर्सत मिलती ज्योतिबा अपनी पुस्तकें लेकर किसी पेड़ की छाँव में बैठकर पढ़ने लग जाते ! उनको अक्सर ऐसे पढ़ते देखकर सवित्रीबाई के दिल में भी पढ़ने की इच्छा जागृत होती ! एक दिन ऐसे उसको पास खड़े देखकर ज्योतिबा ने उनके साथ विस्तार से बात की और इस बात का विश्वास दिलाया की अगर उसकी पढ़ने की इच्छा है तो वह उसे अवश्य पढ़ायेगा ! उन दिनों लड़कियों का पढ़ना लिखना अच्छा नहीं माना जाता था, और लोगों, खासतौर पे अगड़ी जातियों के विरोध के बावजूद भी ज्योतिबा ने सवित्रीबाई को पढ़ाना जारी रखा !
ज्योतिबा अपनी उम्र से कहीं आगे की सोचने की काबिलयत रखते थे और वह अब तक अच्छी तरह समझ चुके थे और उनके समाज की आर्थिक स्थिति बड़ी कमजोर है और दलितों और वंचितों का अगड़ी जाति के लोगों द्वारा शोषण भी अक्सर होते रहते हैं और इस शोषण को समझ पाना और उससे बचने के लिए उनका पढ़ना लिखना अत्यंत आवश्यक है ! इसके लिए वह केवल सवित्रीबाई को ही शिक्षित नहीं करते थे, बल्कि अपने समाज के अन्य लोगों को भी पढ़ने की प्रेरणा देते रहते थे ! उन दिनों मनुवादी समाज ने महिलाओं / लड़कियों पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगा रखे थे, जिसकी वजह से वह पढ़ाई के बारे में सोच भी नहीं सकती थी ! लेकिन ज्योतिबा फूले अपनी क्रांतिकारी सोच से हमेशा ऐसी अनेक कुरीतियाँ को तोड़कर नए २ रास्ते अपनाने के लिए प्रेरित करते रहते थे ! उनके साहस और प्रेरणा से ही सवित्रीबाई ने ना केवल पढ़ना आरम्भ किया बल्कि वह पति के हर कदम से कदम मिलाकर उनके नए २ क्रन्तिकारी आंदोलनों में भागीदारी भी करती रही ! ऐसे करते २ उन्होंने अपनी स्कूल की पढ़ाई मुकम्मल की और अध्यापक बनने के लिए अनिवार्य शिक्षा (टीचर्स ट्रेनिंग) के लिए उन्होंने स्कॉटिश मिशनरी कॉलेज से ट्रेनिंग प्राप्त की ! उन्होंने 1848 में लड़कियों के लिए पहला महिला स्कूल पूणे में खोला ! क्योंकि उस वक़्त के धर्म के ठेकेदार महिला शिक्षा के घोर विरोधी तो थे ही, वह भला उनके स्कूल में पढ़ाने कहाँ आने वाले थे, अलबत्ता जयोतिबा फूले और उनकी पत्नी ने स्वंम यहाँ पढ़ाना शुरू कर दिया ! दूसरा स्कूल 3 जुलाई, 1851 को और तीसरा स्कूल 17 नवम्बर 1851 और चौथा स्कूल 15 मार्च, 1852 को खोला ! क्योंकि ब्राह्मण समाज के लोग तो उनका हमेशा विरोध ही करते रहे और लड़कियों को पढ़ाने के लिए कोई अगड़ी जाति की महिला तैयार नहीं हुई, इसलिए इस शुभ कार्य में ज्योतिबा फूले की मौसेरी बहन सगुणाबाई भी उनके साथ अध्यापन कार्य करने लग गई ! उनके प्रथम स्कूल में पहले वर्ष केवल 6 लड़कियाँ ही पढ़ने आई, जबकि फूले दम्पति लोगों को घर २ जाकर अपने बच्चों को पाठशाला में पढ़ने भेजने के लिए आमंत्रित करते थे ! उनके चौथे स्कूल खुलते २ पढ़ने वाले बच्चों की संख्या बढ़कर 150 तक पहुँच गई !
जबसे फूले दम्पति ने अपना स्कूल खोला और लड़कियों को पढ़ाने का बीड़ा उठाया, रूढ़िवादी और पिछड़ी मानसिकता वाले मनुवादी लोग इनके और भी विरोधी बन गए ! सवित्रीबाई और उनकी महिला अध्यापक साथी जब भी पाठशाला जाने के लिए घर से निकलते, लोग इनपे गन्दी २ टिप्णियाँ करते और इनके कपड़ों पर कीचड, गोबर और कभी २ तो पत्थर भी मारते ! इसकी वजह सावित्रीबाई अपने साथ घर से एक अतिरिक्त साड़ी थैले में डालकर ले जाती और स्कूल पहुंचकर कपड़े बदल लेती, लेकिन अपने लक्ष्य से कभी पीछे नहीं हटी ! एक और बात – भले ही इनके लड़कियों को शिक्षा देने के क्रन्तिकारी काम को सबसे ज्यादा मनुवादी विचारधारा वाले लोगों ने ही विरोध किया, लेकिन इन्होने अपने स्कूलों में सभी जातियों के बच्चों का स्वागत किया ! क्योंकि वह समाज में शिक्षा के माध्यम से परिवर्तन लाना चाहते थे, तो सवित्रीबाई ने उस वक़्त का एक और सख़्त रिवाज़ घूंघट निकालना भी छोड़ दिया, इसकी वजह से जब भी गाँव की चार छह औरतें इनको देखती तो झट से बोलने लग जाती – देखों ! देखो ! सावित्री तो अब आज़ाद हो गई है , इसको तो अब गांव के बड़े बुजुर्गों की भी शर्म नहीं रही !” लेकिन सवित्रीबाई किसी की भी परवाह किये बगैर अपनी धुन्न में चलती रहती ! एक बार पूणा विश्वविद्यालय के एक अंग्रेज अधिकारी पोलर कैंडी इनका स्कूल देखने आये और वह साफ़ सुथरे और अनुशासित बच्चों को देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने इसके लिए फूले दंपत्ति को बधाई देते हुए फ़रमाया, “जो काम बड़ी २ संस्थाएँ सरकार से धनराशि / ग्रांट लेकर भी नहीं कर पाईं, आपने यह काम बड़ी मेहनत और लगन से कर दिखाया !” ऐसे करते २ महात्मा ज्योतिबा फूले और सवित्रीबाई फूले ने अपने जीवन काल में महाराष्ट्र के अलग २ जिलों में कुल मिलाकर 18 स्कूल खोले !
जैसे २ सवित्रीबाई फूले और उनके पति की अच्छे कामों के लिए कहीं प्रशंसा होती, ब्राह्मण और पेशवा समाज के लोग जलन से सड़ भुन जाते और कानाफूसी करते – देखो! कैसा जमाना आ गया है , अब क्या हम ऊँची जातियों के बच्चे इन शूद्रों की बच्चों के साथ मिलकर पढ़ेंगे, इस से तो समाज की सदियों पुराणी व्यवस्था ही बिगड़ जाएगी ! दरअसल, आर्थिक दृष्टि से साधन सम्पन्न ब्राह्मण और पेशवा लोग तो शूद्रों को हमेशा अनपढ़, नीच और ग़ुलाम बनाकर ही रखना चाहते थे, जबकि फूले दंपत्ति इस सदियों पुरानी गुलामी की जंजीरें काटने में लगे रहते थे ! जब फूले दम्पति को रोकने वाले सभी हथकंडे विफ़ल सिद्ध होते गए तो उन्होंने ज्योतिबा फूले के पिताजी गोविन्द रॉव को ही धमकी दे डाली , “आपका बेटा और बहु मिलकर हज़ारों वर्ष पुराणी व्यवस्था तो बिगाड़ने में पूरे तन मन से लगे हुए हैं, इससे हमारे गाँव पर ईश्वर का प्रकोप बरसेगा! या तो इनको ऐसा करने से रोको, अगर वह नहीं मानते तो इनको घर से निकल दो, वरना आपका सामाजिक बहिष्कार हो जायेगा !” गोविन्द रॉव भी ब्राह्मणों के बहकावे में आ गए और उन्होंने अपने बेटे बहु को अपने सभी परिवर्तन और समाज सुधर के कार्य छोड़ने के लिए बोल दिया ! ज्योतिबा के लाख समझाने पर भी पिताजी नहीं माने और उनको अपना प्यारा घर / गाँव छोड़ना पड़ा ! दोनों का मन बड़ा दुखी था, लेकिन वह करते भी क्या, उनके पास और कोई विकल्प भी तो नहीं था ! केवल उनके पिताजी ही नहीं, उनके बहुत से रिश्तेदार भी सवित्री बाई के कार्यों से परेशान थे और उन्होंने भी उनसे मुँह मोड़ लिया ! उनका संघर्ष भरा जीवन और भी मुश्किल हो गया ! सो, अगले ही दिन उन्होंने अपने कपड़े लत्ते और अपनी किताबें बाँधी और घर से निकल पड़े !
अपने घर से निकलकर अब यह बहुत बड़ी समस्या थी कि वह जाएं तो कहाँ जायें ? लेकिन यह बात भी सोलाह आने सच्ची है कि अच्छे काम करने वालों का अगर पूरा जमाना भी दुश्मन बन जाये, तो भी उनके अच्छे कार्य को सराहने और उनका हाथ पकड़ने वाला कोई न कोई पैदा हो ही जाता है ! उनकी इस मुश्किल घड़ी में सवित्रीबाई की एक सहेली – बीबी फातिमा शेख़ के एक जिमींदार भाई उस्मान शेख ने उनकी सहायता की ! उन्होंने ज्योतिबा फूले से इसके लिए बस एक ही शर्त रखी कि वह उसकी बहन फातिमा शेख (जिसको पढ़ने और पढ़ाने का बहुत शौक है) को अपने स्कूल में अध्यापक रख लें, ज्योतिबा ने उसकी यह शर्त बड़े आराम से मान ली और वह उस्मान शेख के घर शिफ़्ट हो गए ! इस तरह बीबी फातिमा शेख भी पूरे मुस्लिम समाज की प्रथम अध्यापिका बन गई ! जब थोड़े दिन बाद सवित्रीबाई के मामा परमानंद को उनके घर से निकाले जाने का पता चला तो वह भी इनके समर्थन में आ गया और और यथासंभव उनकी सहायता करने लग गया !
सवित्रीबाई ने केवल लड़कियों को शिक्षा देने का ही काम नहीं किया , बल्कि समाज सुधार के लिए और भी अनेक क्रन्तिकारी बदलाव किये ! जब कोई स्त्री विधवा हो जाती थी , तो उसके सुसराल वाले उसे घर से निकाल देते थे , ताकि उसे ससुराल वालों की संपत्ति से उसका बनता हिस्सा न देना पड़े , केवल इतना ही नहीं , विधवा हो जाने पर स्त्रियों के सिर मुण्डन कर देते थे, उसको केवल सफ़ेद रंग के ही कपड़े पहनने को मजबूर करते थे, सवित्रीबाई ने अपने पति के साथ मिलकर विधवा औरत के मुंडन का विरोध किया, क्योंकि यह एक तरह से विधवा महिला के साथ एक और अत्याचार होता था ! उन्होंने नाईयों की दुकानों के सामने प्रदर्शन भी किये और उनसे वचन लिया की वह किसी भी विधवा औरत का मुंडन नहीं करेंगे ! उन्होंने 28 जनवरी, 1853 को गर्भवती बलात्कार पीड़ितों के लिए बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की ! उन्होंने विधवा पुनर्विवाह की भी जोरदार शब्दों में वकालत की ! किसी महिला के विधवा हो जाने पर समाज में गन्दी मानसिकता वाले अमीर लोग उसके साथ कई बार नाजायज़ सम्बन्ध बनाते थे, जिसकी वजह से विधवा औरत गर्भवती हो जाती थी और बाद में बड़ी चालाकी से उसपे चरित्रहीन होने का इलज़ाम भी लगा देते थे! तब बहुत बार गर्भवती विधवा औरत खुद ही आत्महत्या कर लेती, या फिर जन्म देने के बाद बच्चे को किसी कुएं / नदी या तालाब में फैंक देती थी ! ऐसी अभागी औरतों के लिए सवित्रीबाई ने एक विधवा आश्रम (1854 में ) बनवाया और उनके यतीम बच्चों को पालने के लिए एक अनाथ आश्रम भी (1854 में) की भी स्थापना की ! उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर 24 सितम्बर, 1973 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की, जिसके अंतर्गत वह गरीब लोगों के बच्चों की शादियाँ पंडित पुजारियों के महंगे खर्चे के बिना सस्ते में ही करवा देते थे ! यहाँ शादी करवाने के लिए एक और शर्त भी होती थी – कि लड़के वाले लड़की वालों से कोई दहेज़ नहीं लेंगे ! क्योंकि उन दिनों गाँव के बने कुएं से शूद्रों और अतिशूद्रों को पानी भरने नहीं देते थे, सवित्रीबाई और ज्योतिबा फूले ने अपने घर में ही एक कुआं खुदवा लिया और सभी दलितों और वंचितों को बोल दिया दिया कि जब भी आपको पानी की आवश्यकता हो, आप यहाँ से पानी भर सकते हो और उस दौर में यह बहुत बड़ी बात थी !
एक बार उनके पास ही के एक गाँव की काशीबाई नाम की एक ब्राह्मण विधवा औरत कहीं भागी जा रही थी, कुछ महिलाओं ने उसे देखा और उसका पीछा किया और पता चला कि वह नदी में छलांग लगाकर खुदकशी करने जा रही है ! जब बचाने वाली महिलाओं ने उसे ऐसा करने का कारण पूछा तो पता चला कि यह विधवा हो गई है और गर्भवती भी है और उसके ससुराल वालों ने उसे घर से निकाल दिया है, ऐसे में वह अपना जीवन कैसे जियेगी और जन्म के बाद बच्चा कैसे पालेगी ? उसक दुखड़ा सुनकर उन स्त्रियों ने उसे कहा कि आप हमारे साथ चलो, हम आपको सवित्रीबाई के पास ले जाएंगे, आपकी समस्या का उसके पास जरूर कोई न कोई हल होगा ! सवित्रीबाई ने उसकी पूरी दुख भरी दास्ताँ सुनी और उसे समझाया कि आप हमारे विधवा आश्रम में रह सकती हो और समय आने पर जो आपका बच्चा होगा, उसे हम पालेंगे ! तो ऐसे काशीबाई सवित्रीबाई के विधवा आश्रम में रहने लग गई और कुछ समय बाद उसने एक पुत्र को जन्म दिया ! क्योंकि सवित्रीबाई और ज्योतिबा फूले का अपना कोई बच्चा नहीं था, उन्होंने इस बच्चे को गोद ले लिया और उसका नाम यशवंत रॉव रखा ! उसका पूरा २ पालन पोषण किया, पढ़ा लिखाकर उसे डॉक्टर बनाया ! बड़ा होने पर उस बच्चे यशवंत की शादी भी उन्होंने अपने बनाये हुए सत्यशोधक समाज के नियमों के अधीन ही 4 फ़रवरी, 1879 को करवाई !
सामाजिक क्रांति की योद्धा माता सवित्रीबाई ने उन्नीसवीं सदी में छुआ-छूत, सतिप्रथा, बाल-विवाह और विधवा विवाह निषेध जैसी कुरीतियां के विरुद्ध बुलन्द आवाज़ उठाई ! उन्होंने विधवाओं के भी अनेक पुनर्विवाह भी करवाए ! महात्मा ज्योतिबा फूले की 1890 में मृत्यु हो गई थी और जब मृत देह के अंतिम संस्कार का समय आया तो परिवार के निर्धारित फ़ैसले अनुसार उनके दत्तक पुत्र यशवंत रॉव ने उनकी मृत देह को मुखाग्नि देनी थी ! ब्राह्मणों ने इस बात पे भी पन्गा खड़ा कर दिया और बोले कि यह लड़का मुखाग्नि कैसे दे सकता है, यह तो इनका अपना पुत्र नहीं है ! बहुत समझाने के बावजूद भी जब ब्राह्मण पंडित पुरोहित नहीं माने तो सवित्रीबाई आगे आई और उसने पंडितों के कड़े विरोध के बावजूद खुद अपने पति की बॉडी को मुखाग्नि देकर उसका अंतिम संसकर संपन्न किया, हालाँकि उन दिनों महिलाओं का शमशान भूमि में जाना उचित नहीं माना जाता था ! 1896 में पूणे और उसके आसपास के इलाकों में एक भयानक बिमारी – प्लेग फ़ैल गई और बहुत से लोग इस बिमारी की चपेट में आकर मृत्यु को प्राप्त हो गए ! सवित्रीबाई ने इस बिमारी में बहुत से लोगों की खुद आगे आकर सेवा की और उनकी दवा दारू भी करती रही ! लगातार इस कार्य में लगे रहने के कारण वह खुद भी इस बीमारी की शिकार हो गई और 10 मार्च 1897 को उनकी मृत्यु हो गई ! उनका पूरा जीवन समाज में वंचित समाज, ख़ासकर महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष में ही बीता ! वह समाज में जाति व्यवस्था तोड़ने के लिए और विद्या हासिल करने को पहल देने वाली और ब्राह्मणों द्वारा लिखे गए और झूठे / रूढ़िवादी / पाखंडवाद फ़ैलाने वाले ग्रंथों को फैंकने की अक्सर बातें करती थी, क्योंकि यह पुस्तकें हमेशा से ही दलितों को नीचा दिखाती आई हैं और इनकी प्रगति और विकास के मार्ग में बहुत बड़ी वाधा बनती रही हैं ! देश की आज़ादी के बाद जब सरकार ने अध्यापक दिवस मनाने को घोषणा करनी थी, बड़े दुःख और हैरानी की बात है कि उनके तमाम उम्र के इतने बड़े संघर्ष और अनेक बलिदानों को भुलाकर, माता सावित्रीबाई का तिरस्कार करते हुए सरकार ने यह दिवस सावित्रीबाई के जन्म दिवस – अर्थात 3 जनवरी की बजाये, 5 सितंबर को मनाने की घोषण कर दी; कारण – माता सावित्रीबाई एक दलित परिवार से थी और दिवंगत पूर्व राष्ट्रपति एस राधाकृष्ण ब्राह्मण थे ?
बहुत कम लोग जानते हैं की सावित्रीबाई केवल एक समाज सुधारक, चिंतक विश्लेषक और क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाली महिला ही नहीं थी, बल्कि एक अच्छी कवयित्री भी थी ! उनकी मराठी भाषा में लिखी हुई एक कविता का हिंदी अनुवाद कुछ इस प्रकार है :-
बदलाव कैसे होगा संभव ?
जायो ! जाकर पढ़ो लिखो , बनो आत्मनिर्भर ,
बनो मेहनती, काम करो , काम और ज्ञान से धन इकट्ठा करो ,
ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं !
इसलिए खाली ना बैठो , जाओ जाकर शिक्षा लो ,
तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा अवसर है ,
इसलिए सीखो और जातिपाति के बंधन तोड़ दो !
जायो ! जाकर पढ़ो लिखो , बनो आत्मनिर्भर ,
ज्ञान के बिना सब खो जाता है , ज्ञान के बिना हम जानवर ही हैं !
द्वारा : आर. डी. भारद्वाज “नूरपुरी“