सबके हित में जिसकी प्रीति हो गई है उन्हें भगवान् प्राप्त हो जाते है |
जानने योग्य एकमात्र परमात्मा ही है – जसको जान लेने पर फिर कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता | परमात्मा को जाने बिना संसार को कितना ही क्यों न जान ले जानकारी कभी पूरी नहीं होती सदा अधूरी ही रहती है |
जैसे बिजली में सब शक्तियां है पर वे मशीनों के द्वारा ही प्रकट होती है ऐसे ही भगवान में अनंत शक्तियां है पर वे प्रकृति के द्वारा ही प्रकट होती है |
सब जगह बर्फ ही बर्फ पड़ी हो तो बर्फ कैसे छिपे और बर्फ के पीछे बर्फ रखने पर भी बर्फ ही दिखेगी ऐसे ही जब सब रूपों में एक भगवान ही है तो वे कैसे छिपे और किसके पीछे छिपे क्योंकि एक परमात्मा के शिवाय दूसरी सत्ता है ही नहीं | परमात्मा में सगुण , निगुण , सत , असत , साकार , निराकार उस एक में अनेक विभाग है अनेक विभागों में वे एक है |
साधक पहले परमात्मा को दूर से देखता है फिर नजदीक से देखता है फिर अपने में देखता है और फिर केवल परमात्माको ही देखता है |
कर्मयोगी परमात्मा को नजदीक से देखता है , ज्ञानयोगी परमात्मा को अपने में देखता है और भक्तियोगी सब जगह परमात्मा को ही देखता है |
जैसे पतिव्रता स्त्री को पति का होने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता क्योंकि वह पति की तो है ही ऐसे ही साधक को परमात्मा का होने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता वह तो परमात्मा का है ही |
धूल का छोटा कन भी विशाल ब्रह्मांड का ही एक अंश है ऐसे ही यह शारीर भी विशाल ब्रह्मांड का ही अंश है ऐसा मानने से कर्म तो संसार के लिए होगे पर योग (नित्योग ) अपने लिए होगा अर्थात नित्योग (परमात्मा) का अनुभव हो जाएगा |
संसार में जो कुछ भी प्रभाव देखने , सुनने में आता है वह भी एक भगवान का ही है | ऐसा मान लेने पर संसार का खिचाव सर्वथा मिट जाता है |यदि संसार का थोड़ा सा भी खिचाव रहता है तो यह समझना चाहिए की अभी भगवान को दृढ़ता से मन ही नहीं |
यह नियम है की जहाँ से बंधन होता है वहीँ से छुटकारा होता है जैसे – रस्सी की गांठ जहाँ से होता है वहीँ से खुलती है | मनुष्य योनी में ही जीव शुभाशुभ कर्मो से बंधता है अतः मनुष्य योनी में ही वह मुक्त हो सकता है |
भगवान के शरण हो कर ऐसी परीक्षा न करे की जब मैं भगवान के शरण हो गया हूँ तो वे मेरे में ऐसे – ऐसे लक्षण घटने चाहिए | शरणागत होने पर भक्ति के जितने भी लक्षण है वे सब बिना प्रगट हुवे आते है |
कोई भी मनुष्य क्यों न हो वह सुगमतापूर्वक मान सकता है की जो कुछ मेरे पास है वह मेरा नहीं है प्रत्युत किसी से मिला हुआ है | उद्देश्य नित्य प्राप्त परमात्मा के अनुभव का होता है जिसके लिए मनुष्य का जन्म हुआ है |
सभी सम्बन्ध निभाते हुए हमें निरंतर अंतःकरण से ऐसा भाव जागृत रखना चाहिए की मैं तो भगवान का हूँ |
स्वामी रामसुखदासजी के श्रीमद्भगवद्गीता की व्याख्या साधक संजीवनी से उद्धृत |