मिर्ज़ा ग़ालिब (1797 से 1869) अपने ज़माने के बड़े २ मशहूर उर्दू और फ़ारसी के शायरों में से एक महान शायर थे ! कुछ साहित्कार तो उनको उस ज़माने के सबसे बड़े और बेहतरीन शायर मानते हैं, तभी तो उनके बारे में एक और शायर ने उनकी कलम के इस निराले जादू के बारे में बताते हुए लिख दिया था – “हैं और भी दुनियाँ में सुख़नवर हैं बहुत अच्छे / कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़ ए बयाँ और !” बड़े २ मुशायरों में उनको सुनने के लिए लोग उनको बुलाया करते थे ! सुनने में तो यह भी आता हैं कि दिल्ली के अंतिम मुग़ल बादशाह – बादशाह बहादुर शाह ज़फर भी उनके बड़े तलबग़ार थे !
एक बार ग़ालिब साहेब अपने किसी दोस्त के साथ कहीं से आ रहे थे , शाम लगभग ढल चुकी थी और रात होने वाली थी ! गली से गुजरते वक़्त ग़ालिब साहेब अचानक एक हवेली के सामने आकर रुक गए, उनके दोस्त ने उनसे पूछा, “ग़ालिब साहेब ! आप यहाँ रुक क्यों गए हो, आयो चलें, रात भी होने वाली है !” लेकिन ग़ालिब साहेब वहीं खड़े २ कुछ सुनने की कोशिश कर रहे थे , पूरा माजरा समझ कर उनके दोस्त ने एक मशवरा दिया, “मिर्ज़ा साहेब ! यहां रुकना ठीक नहीं है, चलो, यहां से निकल चलें !” लेकिन ग़ालिब साहेब फिर भी वही खड़े रहे , मगर उनके दोस्त ने फिर से अपनी नसीयत दुहरा दी,”ग़ालिब साहेब ! यह तफाइफों का मोहल्ला है, यहां खड़े रहे तो हम भी बदनाम हो जाएंगे, आयो चलते हैं !” लेकिन ग़ालिब साहेब ने अपने दोस्त की चेतावनी सुनी अनसुनी कर दी और जब उनको यक़ीन हो गया कि आवाज़ पहली मंज़िल से ही आ रही है, तो वह उधर जाने की फ़िराक में धीरे धीरे सीढ़ियां चढ़ने लग गए !
संगीत से सजी हुई एक मधुर आवाज़ का पीछा करते २ वह उस बड़े से दालान में जा पहुंचे , जहां से गीत संगीत की मधुर आवाजें आ रही थी ! पूरा दालान सजा हुआ था, दरियां विशी हुई और एक गायिका अपनी बड़ी दिलकश आवाज़ में , साजों की ताल पर ग़ज़ल गा रही थी और एक नर्तकी / तफाइफ उतने ही दिलकश अंदाज़ में नृत्य कर रही थी ! दूसरी तरफ़ 14-15 लोग बैठकर उस गीत संगीत का लुत्फ़ उठा ले रहे थे ! ग़ालिब साहेब भी एक तरफ़ बैठकर संगीत सुनते रहे और झूम २ कर संगीत व नृत्य का आनंद लेने लग गए !
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है ,
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है ?
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन ,
हमारे जैब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है ?
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा ,
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है ?
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल ,
जब आँख ही से न टपका तो फ़िर लहू क्या है ?
थोड़ी ही देर बाद वह ग़ज़ल समाप्त हो गई और मुजरे का मज़ा लेने आये सभी मर्दों ने अपनी २ हैसियत / इच्छानुसार जेब से कुछ पैसे निकाले और उस नर्तकी को दे दिए और हवेली से बाहर निकल गए ! ग़ालिब साहेब ने भी उस संगीत का पूरा २ आनंद लिया था, मगर उन्होंने अपनी तरफ़ से उस नर्तकी और गायिका को कोई इनाम / बख्शीश वगैरह नहीं दी और चुपके से वहां से निकलने ही वाले थे, कि उस कोठे की बाई ने उनको आवाज़ दी, “मियां सुनो ! आपने भी अभी देखा होगा कि जितने भी लोग मुजरा देखने आये थे, सभी ने अपनी २ हैसियत के हिसाब से इन दो लड़कियों को कुछ न कुछ इनाम दिया है, आप भी अपनी जेब थोड़ी ढीली करो और लड़कियों को थोड़ा बहुत इनाम दो ! यहाँ कोई मुफ़्त का मुशायरा थोड़ी हो रहा था ? एक लड़की ग़ज़ल गा रही थी, दूसरी उसपे नृत्य कर रही थी और यह तीन साजिंदे ढोलकी, सारंगी और तबले के साथ ग़ज़ल के बोलों को संगीत में पिरो रहे थे, इन सबका मुजरा देखने आये लोगों द्वारा दी गई बख्शीश से ही तो हमारे घर चलते हैं !”
ग़ालिब साहेब रूककर उस कोठेवाली बाई की तरफ़ मुड़े और उत्तर दिया, “यह जो लड़की बड़ी प्यारी सी ग़ज़ल गा रही थी और यह जो दूसरी लड़की उस ग़ज़ल पे झूमझूम कर नाचते हुए अपनी अदाएं दिखा रही थी, क्या आपको मालूम है कि इस ग़ज़ल के शायर कौन हैं ?” कोठे वाली बाई बोली, “जी हाँ ! यह मशहूर ग़ज़ल शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की लिखी हुई है !” ग़ालिब साहेब ने दूसरा सवाल किया, “क्या आप कभी मिर्ज़ा ग़ालिब से मिले हो, उनको जानते हो ?” कोठे की बाई ने उत्तर दिया, “जी नहीं ! वह तो बहुत बड़े शायर हैं , बड़ी २ महफ़िलों में वह जाते हैं और अपनी कवितायें / ग़ज़लें सुनाते हैं ! उनको आमने सामने मिलने का हमें कभी अवसर हासिल नहीं हुआ !” फिर ग़ालिब साहेब ने अपनी सीने पे हाथ रखकर उनको बताया – “इसी ख़ाकसार को मिर्ज़ा ग़ालिब कहते हैं !”
ग़ालिब साहेब से उनका परिचय सुनकर वह सभी महिलाएं और सभी साजिंदे, जो थोड़ी देर पहले उनको थोड़ा हिकारत की नज़र से देख रहे थे, उनका उत्तर सुनकर हक्के बक्के रह गए और ताजुब से उनको देखने लगे ! और फिर जैसे उनकी कोई बड़ी पुरानी मुराद पूरी हुई हो, कोठे वाली की बाई ने एक लड़की से कहा, “अरे निगोड़ी ! चल भागकर जा और ग़ालिब साहेब के लिए एक कुर्सी लेकर आ, इनके तो दर्शन भी हमारे लिए बड़ा वरदान हैं !” फिर उसने ग़ालिब साहेब से उस कुर्सी पे बैठने को इशारा किया ! कोठे वाली बाई फिर थोड़ा अदब से उनसे मुखातिब हुई, “मुआफ़ करना मिर्ज़ा साहेब, हमें मालूम ही नहीं था, नहीं तो हम आपसे ऐसी गुस्ताखी हर्गिज न करते !” इतने में एक और लड़की उनके लिए पानी लेकर आई, ग़ालिब साहेब ने पानी पिया और उठकर जाने ही वाले थे कि कोठे की बाई ने उनसे थोड़ा रुकने की गुजारिश की ! ग़ालिब साहेब ने बोलै कि वे फिर किसी दिन आ जाएंगे, अब बहुत देर हो चुकी है, मुझे घर जाना चाहिए, लेकिन कोठे वाली बाई ने उनकी एक नहीं सुनी और निवेदन किया – “आज आप अचानक ही हमारी हवेली आए हो, हम तो न जाने कितने वर्षों से आपकी लिखी हुई ग़ज़लें गाकर / सुनाकर हवेली में आये महमानों का मनोरंजन कर रहे हैं, आज आप हमें भी थोड़ी ख़िदमत करने का अवसर दें, आज तो आपको हमारे साथ खाना खाना ही पड़ेगा !” उनकी इतनी गुजारिश सुनकर ग़ालिब साहेब रुक गए ! खाना तो पहले ही बावर्ची खाने में बन रहा था, थोड़ी देर में सबके लिए खाना परोसा गया ! खाना खाने के लिए ग़ालिब साहेब ने रोटी का एक टुकड़ा तोड़कर मुँह में डालने के लिए उठाया ही था, लेकिन फ़िर वापिस थाली में रख दिया ! घर के मर्द लोग जो उनके साथ खाना खाने बैठे थे, उन्होंने पूछा कि आपने तो खाना चखा ही नहीं, वापिस क्यों रख दिया ?
ग़ालिब साहेब ने थोड़ा संज़ीदगी से उत्तर दिया, ‘मैं यह खाना कैसे खा सकता हूँ, जबकि मुझे मालूम है कि घर में मेरी बेगम खाने पे मेरा इंतज़ार कर रही होगी ! ग़ालिब साहेब की मन की उलझन भी जायज़ ही थी। सो उनकी भावना का ख्याल रखते हुए उनके लिए खाना पैक करके अपने एक मुलाजिम के हाथ ग़ालिब साहेब के घर खाना भिजवा दिया !
आर डी भारद्वाज “नूरपुरी”