हमारा देश एक ऐसा देश है जहां ना जाने कितने ही प्रकार की विभिन्ताएँ हैं – धर्मों की, जातियों की, भाषाओं की, क्षेत्रों की, पहरावे की, रहन सहन की और खाने पीने की वगैराह – २ ! इन सभी विभिन्नताओं के चलते यहाँ अलग – २ प्रांतों में अनेक प्रकार की समाजिक बुराईआं , रीति रिवाज़ और कुरीतियाँ भी पाई जाती हैं जोकि सदियों से चली आ रही हैं ! जितना पुराना इस देश का इतिहास है, लगभग उतनी ही पुरानी इसमें चली आ रही हज़ारों वर्षों से कुच्छ ऐसी ही समाजिक बुराइयाँ और कुरीतियाँ भी हैं जिन्होंने देश और समाज को हमेशा पीछे ही धकेला है और ऐसी कुरीतियाँ अक्सर विज्ञान और तर्क वितर्क की कसौटी पर कभी भी खरी नहीं उतरती , जैसी कि शारब पीना, जुआ खेलना , दहेज़ प्रथा , बाल विवाह प्रथा, देवदासी प्रथा , विधवा हो जाने पर महिला का सिर मुंडवा देना, जातिपाति प्रथा, और सति प्रथा इत्यादि ! इन ग़लत रिवाज़ों और कुरीतियों को समाप्त करने के लिए समय – २ पर न जाने कितने ही गुरुओं / विद्वानों / समाज सुधारकों / समाज शास्त्रियों (जैसे कि महात्मा गौतम बुद्ध, गुरु रविदास जी, गुरु नानक देव जी, संत कबीर जी, महात्मा ज्योतिबा फूले, राजा राममोहन रॉव , सावित्रीबाई फूले , मन्नतु पद्मनाभन, दयानन्द सरस्वती, डॉ. भीम रॉव अम्बेडकर, फ़ातिमा शेख़ , स्वामी विवेकानन्द, इत्यादि) ने समय – २ पर अनेक प्रयत्न किये और वह लोग काफ़ी हद तक सफ़ल भी हुए, लेकिन इसी समाज में कुच्छ ऐसे लोग भी बैठे हैं जो इनको ख़तम करने के रास्ते में हमेशा से ही रुकावट बनते आ रहे हैं और वह अभी भी इस दिशा में कार्यरत हैं, कारण – ऐसे लोग भोली भाली आम जनता को ऐसे फ़िज़ूल के रीति रिवाज़ों / पाखंडों इत्यादि में उलझाकर अपनी स्वार्थसिद्धि करते रहते हैं ! अलग – २ धर्मों के ठेकेदार ऐसे कार्यों में ज़्यादा कुच्छल पाए जाते हैं ! और किसी भी धर्म को मानने वाले अंध भक्त गरीब लोग ऐसे धर्म के ठेकेदारों के चुंगल में अक्सर फँस ही जाते हैं और इन दोनों की जुगलबंदी की वजह से हमारा देश आज भी अन्य विकाशील / प्रगतिशील देशों की श्रेणी में आज़ादी के 72 वर्षों बाद भी पिछड़ा हुआ है !
यह भी एक सर्वविधित सत्य है कि जातिप्रथा आज से लगभग दस हज़ार वर्ष पूर्व मनु महाराज नाम के एक तथाकथित विद्वान ने चलाई थी और इसे समाज में अच्छी तरह स्थापित करने के लिए उसने अपने बड़े ही शातिर दिमाग से राज घरानों के साथ अपने राजनैतिक और समाजिक असर रसूख की वजह से एकदम सरल समाज को वर्गीकरण व्यवस्था में ऐसी तबदीलियाँ लानी प्रारंभ कर दी जिसने कि समाज को एक बहुत बड़े और भयानक बदलाव की दिशा की ओर धकेल दिया ! इस मनु महाराज ने समाज में ऐसा बँटवारा करवा दिया कि उस वक़्त के जो ग़रीब लोग और उनकी आने वाली सैकड़ों पीढ़ियों की दशा ही बदल डाली ! क्योंकि राजे महाराजों के लिए यह व्यवस्था ज़्यादा फ़ायदेमंद साबित हो रही थी, उन्होंने इस व्यवस्था पर अपनी प्रशसानिक स्वीकृति की मोहर लगा दी, जिसके तहत उसने अपने जैसे लाखों अमीरजादों को हासिल होने वाले सुख सुविधाओं के मद्देनज़र हमेशा के लिए अच्छी आर्थिक सुविधाजनक परिस्थितियाँ बना डाली और समाज को चार वर्णो में विभाजित कर दिया – ब्राह्मण, क्षत्रिया वैश्य और शूद्र ! किसी भी मनुष्य को उसकी अपनी बुद्धि, बल और क्षमता के आधार पर समाज में बढ़ने, फ़लने-फ़ूलने के सभी दरवाजे हमेशा के लिए बंद कर दिए ! पहले जो समाज में अनेक प्रकार के व्यवसायों के लिए तरलता थी, वह धीरे – २ समाप्त कर दी गई, क्योंकि इस व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मणों के बच्चे हमेशा ब्राह्मण ही रहेंगे, क्षत्रियों के बच्चे हमेशा क्षत्रिय ही रहेंगे, और इसी तरह वैश्य हमेशा वैश्य ही और शूद्र हमेशा के लिए शूद्र ही रहने के लिए विवश हो गए ! ब्राह्मणों के लिए पढ़ना-पढ़ाना ही अनिवार्य कर दिया, क्षत्रिय बस देश का शासन और राजपाठ ही संभालेंगे, वैश्य समाज के सभी व्यापार / कारोबार इत्यादि ही करते रहेंगे और अंत में शूद्रों को बोल दिया कि आप लोग केवल ऊपर की तीनों जातियों की सेवा ही करोगे! इनके बाकी सभी प्रकार के सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक अधिकार समाप्त !
सदियाँ बीत गई, युग बदल गए, लेकिन इस नामुराद जातिप्रथा ने समाज के सबसे निम्न वर्ग – शूद्रों की आर्थिक व समाजिक दिशा और दशा बदलने नहीं दी ! समाज के इन निम्न वर्ग ने जब भी इस स्थिति को बदलने की कोशिश की , पहली तीनों अगड़ी जाति के लोगों ने उनके प्रयासों को बुरी तरह कुचल दिया ! ऐसी ही शर्मनाक व्यवस्थाओं के चलते हुए उनपर शोषण, अत्याचार और उत्पीड़न की घटनाएँ उनके साथ होती ही रही! इतना ही नहीं, उनके माथे पर अपवित्र और अस्पृश्य होने का कलंक और मढ़ दिया ! यदाकदा इस व्यवस्था को बदलने के लिए कुच्छ क्रांतिकारियों ने यत्न भी खूब किये, मग़र ऊपर की तीनों अगड़ी जातियों के लोगों ने अपनी सामंतवादी मानसिकता व आर्थिक सत्ता के बलबूते पर मिलकर उनकी अवाज़ को बुरी तरह विफ़ल कर दिया !
जब उन्नसवीं सदी के अंत में देश में आज़ादी की लहर चल रही थी। इसी सदी के आख़िर में एक एक बड़े ही जुझारू योद्धा ने 14 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश के रत्नागिरी जिले में एक गरीब परिवार में जन्म लिया ! भीम रॉव अम्बेडकर नाम के इस युवक ने बड़ी मुश्किल हालातों में शिक्षा प्राप्त की, उनके पिता महार रेजिमेंट में सूबेदार थे ! उस वक़्त समाज में छुआछूत पूरे जोरों पर थी, दलितों पर खूब अत्याचार भी हुआ करते थे, इनके पढ़ने-लिखने के रास्ते में अनेक प्रकार की बाधाएं डाली जाती थी, ताकि यह लोग तमाम उम्र अनपढ़ रहकर, ग़ुलाम ही बने रहें और बाकी तीनों जातियों के लोग उन पर अपने मन माफ़िक जुल्म, अत्याचार और शोषण करते रहें ! डॉ. अम्बेडकर ने भी ऐसे ही शोषण और अत्याचारों की बीच रहते हुए अपनी शिक्षा केवल पूरी ही नहीं की, बल्कि उस जमाने में इतनी बड़ी-बड़ी डिग्रियां हासिल की, कि उनके ज़माने के अपने आप को तथाकथित ऊँची जाति वाले लोग भी उनके सामने फ़ीके पड़ने लगे !
देश में अंग्रेज हुकूमत का राज था और चारों तरफ़ गुलामी की जंजीरें काटने और इसको तोड़ने के लिए खूब जी-जान से यतन किये जा रहे थे ! आज़ादी के मतवाले अपने देश के लिए आज़ादी हासिल करने ख़ातिर जान की बाज़ियाँ लगा रहे थे, मग़र इसी देश में रहने वाले करोड़ों दलितों को तथाकथित तीनों ऊँची जातियों के लोगों के चुंगल से छुड़वाने के लिए, किसी को कोई चिन्ता-फ़िक्र नहीं थी ! बल्कि वह लोग तो चाहते थे कि यह दलित लोग हमेशा के लिए ऐसे ही दबे-कुचले ही रहें, ताकि इनपर अपनी मनमर्जी के मुताबिक इनसे काम लिया जाये और इन में से किसी में भी इतनी हिम्मत न आए कि कोई उफ़ तक भी कर सके! वह तो सभी यही मानकर बैठे हुए थे कि यह लोग तो अंग्रेजों से आज़ादी हासिल होने के बाद भी ऐसे ही हमारे ग़ुलाम ही बने रहेंगे !
25 दिसम्बर, 1927 को महाड़, महाराष्ट्र में अपने एक सत्याग्रह के दौरान डॉ. अम्बेडकर ने दलितों के साथ भेदभाव सिखाने वाली, रूढ़िवादी विचारों वाली और अवैज्ञानिक सोच पर आधारित ब्राह्मणवादी पुस्तक “मनुसमृति” एक भव्य जन समूह के सामने जला डाली और कड़े शब्दों में इस पुस्तक में बताई गई वर्ण-व्यवस्था को सिरे से ही ठुकराते हुए अपने अनुयाईओं को भी इसे बिलकुल न मानने का निर्देश दे दिया ! यही नहीं, उन्होंने सार्वजनिक स्थानों पर दलितों को पानी लेने का भी ऐलान कर दिया क्योंकि भगवान के बनाये हुए सभी कुदरती साधन और व्यवस्थाएं पर सभी इन्सानों का बराबर का अधिकार है! कुछ मनुवादियों को डॉ. अम्बेडकर द्वारा दी गई चुनौतियाँ पसन्द नहीं आई और उन्होंने डॉ. अम्बेडकर की इन हरकतों को समाज विरोधी बताया और ऐसा करने वालों में महात्मा गांधी समेत कांग्रेस के बहुत से बड़े-बड़े नेतागण भी शामिल थे ! लेकिन डॉ. अम्बेडकर उनकी परवाह न करते हुए अपने मिशन में आगे बढ़ते ही जा रहे थे ! दूसरी तरफ़, डॉ. अम्बेडकर ने अंग्रेजी हुकूमत को बार-बार पत्र लिखकर दलित शोषित वर्ग की डरावनी स्थिति से अवगत करवाते रहते थे और उन्हें अधिकार दिलवाने के लिए मांगपत्र भी भेजे ! बाबासाहेब के पत्रों में वर्णित छुआछूत व भेदभाव के बारे में पढ़कर अंग्रेज़ दंग रह गए कि क्या एक मानव दूसरे मानव के साथ इतने घटिया / घिनौने तरीके से भी पेश आ सकता है ?
बाबा साहेब के तथ्यों से परिपूर्ण तर्कयुक्त पत्रों से अंग्रेज़ हुकूमत अवाक रह गई और उसने 1927 में दलित शोषित वर्ग की स्थिति के अध्ययन के लिए और डॉ. अम्बेडकर के आरोपों की जांच के लिए एक विख्यात वकील, सर जॉन साईमन की अध्यक्षता में एक कमीशन का गठन किया ! कांग्रेस ने इस आयोग का खूब विरोध किया, मग़र 1930 में आयोग ने भारत आकर अपनी कार्यवाही शुरू कर दी ! मई 1930 को उनके साथ एक मीटिंग में डॉ. अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म में फ़ैली बेशुमार कुरीतियों, अवैज्ञानिक जातिप्रथा और छुआछूत की ग़लत धारणाओं पर आधारित, अगड़ी तीन जातियों द्वारा अपनी कौम के साथ हो रही बेशुमार ज़्यादतियों का काला कच्चा चिट्ठा उसके सामने रखा और उनसे इस वर्ण-व्यवस्था को जड़ से समाप्त करने के लिए निवेदन किया ! साईमन कमीशन को यह जानकर बड़ा दुख और हैरानगी हुई की हिन्दुस्तान में समाज पच्चीस प्रतिशत तबके के साथ सदियों से ऐसा अमानवीय व्यवहार होता आ रहा है और देश के सभी बड़े-बड़े नेता इस पर एक षड्यंत्रकारी ख़ामोशी साधे हुए हैं ?
क्योंकि उस वक़्त महात्मा गाँधी कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे, समाज के ज़्यादातर लोग उनको मानते भी थे, अत: डॉ. अम्बेडकर ने उनको इस अवैज्ञानिक और आमनवीय जाति प्रथा को समाप्त करने के बहुत बार बोला ताकि दलितों के ऊपर हज़ारों वर्षों से चले आ रहे यह शोषण व अत्याचार आदि समाप्त हो सकें, लेकिन महात्मा गाँधी ने इस विषय पर अपनी अन्तिम राय दे दी – “मैं तो एक कट्टर हिन्दु हूँ , और हिन्दु धर्म में सदियों से चली आ रही वर्ण-व्यवस्था को सही मानता हूँ, और मैं इसको बदलने के पक्ष में बिलकुल भी नहीं हूँ !” तब डॉ. अम्बेडकर ने अंग्रेज़ हुकूमत के सामने अपनी एक और बड़ी मांग रख दी कि देश की आज़ादी के बाद हमें इन तथाकथित झूठे / पाखण्डी / अत्याचारी और सामंतवादी सवर्णों के साथ रहने में कोई दिलचस्पी नहीं है और हमें भी अपनी आबादी के अनुपात से एक अलग देश बनाने की अनुमति दी जाये और इसके लिए देश के पूरे क्षेत्रफ़ल में से अपने हिस्से की ज़मीन भी दी जाये ! डॉ. अम्बेडकर की इस मांग को सुनकर कांग्रेस के सभी बड़े-बड़े नेताओं में तो हड़कंप मच गया (ख़ास तौर पे जब साईमन आयोग के साथ हुई 3-4 बैठकों के बाद कांग्रेसी नेताओं को इस बात का एहसास होने लग गया कि यह आयोग तो डॉ. अम्बेडकर के ज़्यादातर दलीलों से सहमत होता नज़र आ रहा है) और महात्मा गांधी ने इससे जलभुन कर पुणे में आमरण अनशन रख दिया ! जब अन्य कांग्रेस के नेताओं के समझाने के बावजूद भी डॉ. अम्बेडकर अपनी अलग देश की मांग को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए, तो इन नेताओं ने डॉ. अम्बेडकर को मनाने के लिए एक नई साज़िश रची ! इस षडयन्त्र के तहत महात्मा गांधी की पत्नी, कस्तूरबा गांधी कुछ अन्य महिलाओं के साथ डॉ. अम्बेडकर से मिलने गई और उनसे अपनी अलग देश की मांग त्यागने की बिनती की और हाथ जोड़कर प्रार्थना की – “मेरे पति की जान अब केवल आप ही बचा सकते हो ! अगर आप अपनी यह मांग त्यागने के लिए सहमत हो जाते हैं तो कांग्रेस आपकी बहुत सी मांगों पर सकारात्मक रूप में विचार कर सकती हैं !” डॉ.अम्बेडकर ने कस्तूरबा गाँधी को समझाते हुए स्पष्ट लफ़्ज़ों में उत्तर दिया कि “यदि गाँधी भारत की स्वतंत्रता के लिए मरण व्रत रखते, तो मैं उसे उचित समझ सकता था, लेकिन मुझे इस बात पर बेहद अफ़सोस है कि उन्होंने तो यह ग़लत धारणाओं पर आधारित जाति प्रथा समाप्त न हो जाये, इस वजह से व्रत रखा हुआ है ? वह तो दलितों को कोई अधिकार देना ही नहीं चाहते ?”
परन्तु यह एक पीड़ादायक आश्चर्य तो यह भी है कि गांधी ने केवल अछूतों के विरोध का ही रास्ता चुना है, जबकि भारतीय ईसाइयों, मुसलमानों और सिखों को मिले इस अधिकार के बारे में गांधी ने कोई आपत्ति नहीं की ! उन्होंने आगे कहा कि महात्मा गांधी कोई अमर व्यक्ति नहीं हैं ! भारत में ऐसे अनेकों महात्मा आए और चले गए, लेकिन हमारे समाज के साथ छुआछूत समाप्त नहीं हुई, हज़ारों वर्षों से अछूत, आज भी अछूत ही हैं ! मग़र अब हम गांधी के प्राण बचाने के लिए अपने करोड़ों दलितों के हितों की बलि नहीं दे सकते !” लेकिन फिर धीरे-धीरे दोनों पक्षों के बीच बैठकों का सिलसिला बढ़ने लगा और डॉ. अम्बेडकर ने कस्तूरबा गांधी के आश्वासन पर और दलितों की सम्पूर्ण स्तिथि पर बड़ा गहन सोच विचार किया, और इस तरह 24 दिसम्बर, 1932 को पूना समझौते के अन्तर्गत दलितों के लिए उनकी आबादी के अनुपात में चुनाव में, शिक्षा के लिए कॉलजों में दाखिले हेतु और सरकारी नौकरियों में और पद्दोन्तियों में सीटें और चुनाव लड़ने के लिए भी सभी प्रांतों व लोक सभा के लिए भी सीटें आरक्षित रखने के मुद्दे पर सहमति बन पाई ! ऐसे ही एक और मीटिंग में डॉ. अम्बेडकर और महात्मा गांधी के बीच अच्छी ख़ासी झड़प हो गई जब महात्मा गाँधी ने अम्बेडकर साहेब को कहा कि आप तो ऐसे ही इतने ख़फ़ा होते रहते हो, मैंने आपके समाज के लोगों के लिए एक नया शब्द “हरिजन” दे तो दिया है ! डॉ. अम्बेडकर ने सभा में उपस्थित सभी को सम्बोधन करते हुए कहा, “मैं इतने वर्षो से इस नामुराद जातिपाति और छुआछूत के भेदभाव को समाप्त करने के लिए जी-जान से दिन रात संघर्ष कर रहा हूँ , पूरे समाज को, पूरी मानवता को, इन्सानियत को एक ही पायदान पर लाकर खड़ा करने के प्रयासों में जुटा रहता हूँ , और यह आदमी दलितों की एक अलग ही पहचान बनाने के लिए एक नई खिड़की खोल रहा है ?” जवाहर लाल नेहरू से यह बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्होंने बाबासाहेब से कहा, “अम्बेडकर जी! आप गांधी जी से इस लहजे में बात नहीं कर सकते!” इस पर डॉ. अम्बेडकर ने उन्हें भी तल्खी से लताड़ते हुए उत्तर दिया, “नेहरू जी ! मेरी एक बात का जवाब दो – हरिजन लफ़्ज़ का शाब्दिक अर्थ तो होता है – भगवान के बन्दे, अग़र केवल मेरे दलित शोषित वर्ग के लोग ही हरिजन हैं, जैसा कि आपके महात्मा गांधी कह रहे हैं, तो क्या आप बाकी सब राक्षसों की औलाद हैं?” डॉ. अम्बेडकर का यह तर्क सुनकर सभा में बैठे सब लोग थोड़ा झेंपकर इधर-उधर देखने लग गए और सभा में थोड़ी देर के लिए सन्नाटा सा छा गया. “अगर यही सत्य है तो आप सभी मुझे इस बात की इजाजित दे दो कि मैं भी आपको हरिजन बोल सकूँ ?”
इस पर बाकी सभी बड़े लोग तो ख़ामोश बैठे इधर उधर देखने लग गए लेकिन एक कांग्रेसी नेता बोला , “नहीं ! नहीं ! यह कैसे हो सकता है? हम तो स्वर्ण हैं , ब्राह्मण हैं ! वैसे हरिजन शब्द में ऐसी कोई खराबी भी नहीं है, जोकि गाँधी जी ने आपके लिए बनाया है !” इस पर डॉ. अम्बेडकर जी ने उस सभा में उपस्थित सभी को सम्बोथित करते हुए पूछा, “क्या आपको मालुम भी है कि यह हरिजन जैसा घटिया शब्द आया कहाँ से है और कब आया था ?” यह सुनकर महात्मा गाँधी , सरदार पटेल, नेहरू और कुच्छ और बड़े नेता तो बगलें झाँकने लग गए, लेकिन एक नेता ने उत्सुकतावश पूछ ही लिया, “नहीं ! अम्बेडकर जी ! मुझे नहीं मालुम, अगर आपको इसका इतिहास मालुम है तो हमें भी बताएँ – कि इस शब्द की उत्पत्ती कब और कैसे हुई और आपको इससे इतना इतराज़ क्यों है ?”
तब डॉ. अम्बेडकर जी ने उनको समझाते हुए बताया, “आप लोग समाज फ़ैली हुई एक और महाबिमारी – दासीप्रथा से तो सभी भली भाँति वाकिफ़ होंगे – यह प्रथा भी समाज के तथाकथित बड़े और ब्राह्मणवादी / मनुवादी मानसिकता से ही उत्पन्न हुई थी ! जगह – २ गाँव – २ में बने हुए मन्दिरों में काम करते पण्डित / पांडे / पुजारी कथा कीर्तन करने और विभिन्न प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान / कर्मकांड करने जाया करते थे और ऐसे ही घूमते फ़िरते जब भी किसी परिवार में इनको कोई 12 / 13 / 14 वर्ष की सुन्दर लड़की नज़र आ जाती थी तो यह लोग उसके घर वालों को समझाने , बहलाने फ़ुसलाने लग जाते थे कि इस लड़की को मन्दिर की सेवा के लिए दान दे दो, तो इसकी ज़िन्दगी सँवर जाएगी! यह पुजारी लोग ऐसी लड़कियों और उनके माता पिता को यह झाँसा देते कि इस कन्या को हम देवदासी बनाएंगे और तमाम उम्र मन्दिर की सेवा करने के बाद इसको स्वर्ग मिलेगा ! जिन लोगों को ऐसी देवदासियों की असली स्थिति मालुम हो जाती थी, वह तो अपनी बेटी को ऐसी काम के लिए देने से स्पष्ट मना कर देते थे, लेकिन फ़िर भी यह शातिर किस्म के पण्डित / पाण्डे / पुजारी लोग किसी न किसी को अपने झाँसे में फँसा ही लेते थे ! मन्दिर में ऐसे दान की गई लड़कियाँ / महिलाएँ से पंडित मन्दिर की सफ़ाई इत्यादि तो करवाते ही, साथ में उस से अपने घरों के काम भी करवाते ! इतना ही नहीं , ऐसी लड़कियों को नाच गाना भी सिखाया जाता और वह जब इस काम में निपुण हो जाती, तो उनको समाज के तथाकथित प्रतिष्ठित लोग – जैसे कि गाँव के पंच , सरपंच , नंबरदार और इन पण्डिंतों के मित्रगण उनका नाच गाना देखने आते और यह लड़कियाँ ख़ास – २ दिन त्योहारों के अवसर पर उनका मनोरंजन करती ! उनके रहने के लिए मन्दिर परिसर में ही या उसके आसपास ही एक कमरा दे दिया जाता था ! प्रत्येक देवदासी को देवालय में नाचना-गाना तो पड़ता ही था, साथ ही, मन्दिरों में आने वाले ख़ास मेहमानों के साथ शयन भी करना पड़ता था। इसके बदले में उन्हें अनाज , थोड़ी बहुत धनराशि या फ़िर कपड़ा लत्ता दे दिया जाता था ! ऐसी लड़कियों को नाम दे दिया जाता – “देवदासी”, देवदासी – अर्थात “सर्वेंट ऑफ गॉड”, यानी देवता की दासी या पत्नी। देवदासियां मन्दिरों की देख-रेख, पूजा-पाठ के लिए सामग्री-संयोजन, मन्दिरों में नृत्य आदि करना तो उनकी जुम्मेवारी में शामिल था ही , इसके अलावा प्रमुख पुजारी, सहायक पुजारियों, प्रभावशाली अधिकारियों, सामंत और वहाँ के साहूकार इत्यादि लोग, वक़्त बेवक़त इन लड़कियों का शारीरक शोषण भी करते थे ! भारत में सबसे पहले देवदासी प्रथा के अंतर्गत धर्म के नाम पर औरतों के यौन शोषण को एक प्रकार से संस्थागत रूप दिया गया था। इतिहास और मानव विज्ञान के अध्येताओं के अनुसार देवदासी प्रथा संभवत: पाँचवीं सदी में शुरू हुई थी।
स्वाभाविक है कि जब इन देवदासियों का शारीरक शोषण होता था तो उनके बच्चे भी पैदा होते थे – अपने किये हुए पापों का प्राश्चित करने और उनको अपने परिवार में शामिल करने की बजाये इन चालाक और अत्याचारी पण्डितों ने ऐसे बच्चों को नाम दे दिया – “हरिजन” – अर्थात भगवान के बच्चे ! यह तथाकथित ऊँचे लोग बेबस और लाचार महिलाओं के साथ रंग रलियाँ तो मनाते ही रहते थे, लेकिन उनको अपने परिवार का एक माननीय सदस्य मानने और बनाने में उनको शर्म अनुभव होती थी , सो ऐसी प्रस्थितियों में पैदा हुए बच्चे अपनी माँ के साथ उन मन्दिरों में ही रहते थे और बड़े होने पर उनको भी मन्दिर में किसी न किसी सेवा में ही लगा दिया जाता था ! यह प्रथा उत्तरी भारत में कभी देखने को नहीं मिली , लेकिन मुख्या रूप से दक्षिण भारत के कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, गोया, महाराष्ट्र , आसाम और ओडिशा में यह खूब फ़ली-फूली और थोड़ा कम मात्रा में वेस्ट बंगाल और बिहार में भी पाई जाती थी ! अलग – २ प्रांतों में स्थानीय भाषा की आधार पर से इनको अलग – २ नामों से पुकारा व जाना जाता था, जैसे कि कर्णाटक में बासिवी , महाराष्ट्र में मातंगी , गोआ में भाविन और आसाम में जोगिनी इत्यादि ! लेकिन ऐसी देवदासियों को शादी करने की इजाजित कहीं भी नहीं थी !
डॉ. अम्बेडकर की बताई गए इन इतिहासिक तथ्यों पर आधारित बातों को सुनकर उस सभा में उपस्थित ज़्यादातर लोग दंग रह गए और कुछ तो अपने आप को ब्राह्मण या बड़े लोग कहलाने वाले थोड़ा लज्जित होकर झेंप भी गए ! जिनको इस देवदासी प्रथा का इतिहास मालुम था वह डॉ. अम्बेडकर के इस खुलासे के बाद उनसे नज़रें नहीं मिला पाए और इधर उधर झाँकने लग गए ! और डॉ. अम्बेडकर ने अपनी बात जारी रखते हुए पुरजोर शब्दों में दलितों के लिए हरिजन शब्द का विरोध किया और उन सबको याद दिलाया कि दलितों के लिए ऐसे घटिया शब्द का प्रयोग हरगिज नहीं किया जाये , क्योंकि दलित समाज का एक शोषित, पीड़ित और अपेक्षित वर्ग तो अवश्य है , लेकिन यह हरिजन बिलकुल नहीं है !
यह पण्डित / पाण्डे और पुजारी लोग ऊँची जातियों के गरीब परिवारों की लड़कियों को ही देवदासी बनाया करते थे , लेकिन यह बात भी सत्य है कि शूद्रों को तो यह पुजारी लोग मन्दिर में घुसने भी नहीं देते थे ! शूद्रों का तो मन्दिर में प्रवेश तो हज़ारों वर्षों से वर्जित था और दक्षिण भारत के प्रांतों में और ओडिशा में तो आज भी ऐसा ही देखने को मिलता है !
आर.डी. भारद्वाज ” नूरपुरी ”