डॉ. कीर्ति काले
 बौराया हिरनीला मन 
फिरता है जंगल-जंगल।
सूखे में खोज रहा हरियाली घास 
कजरारे बादल से माँगता उजास
पगले को बालू में दिखता है जल। 
बौराया हिरनीला मन 
फिरता है जंगल-जंगल।
आँखों में उभर आई मतवाली भंग 
पोर-पोर मुरकी ले पुरवा के संग
रोके से कब रुकता बैरी चंचल 
बौराया हिरनीला मन 
फिरता है जंगल-जंगल।
छलती है बार-बार कस्तूरी गंध 
अपनी ही मस्ती में झूमे निर्बंध 
सूरज को छूता है पंजों के बल 
बौराया हिरनीला मन 
फिरता है जंगल-जंगल।













