ज़िंदगी भर बस यही सोचा किये
अब किसी से दिल लगाना चाहिए
–रईस सिद्दीक़ी
अब किसी से दिल लगाना चाहिए
–रईस सिद्दीक़ी
शिकायत ज़िंदगी से करते करते
ये इक इक लम्हा मरता जा रहा है
–रईस सिद्दीक़ी
मुश्किलों के बीच सारी ज़िन्दगी !
कब मिली है इख्तियारी ज़िन्दगी ?
इख्तिययरी :मन-मर्ज़ी की
–रईस सिद्दीक़ी
ज़िन्दगी क्या है ? इस सवाल का जवाब राजनीति, धर्म,साहित्य और दर्शन शास्त्री अपने अपने ज्ञान, अनुभव और नज़रिये से देंगे, लेकिन ज़िन्दगी के बारे में शायरों के क्या ख़्यालात हैं ? आईये ३५ शायरों के कहे चुनींदा अशआर से समझें :–
ज़िन्दगी ज़िंदा दिली का नाम है मुर्दा दिल क्या ख़ाक जिया करते हैं — नासिख़ |
ज़िन्दगी शायद इसी का नाम है दूरियाँ , मजबूरियाँ , तन्हाईयाँ —कैफ़ भोपाली |
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए —बशीर बद्र |
यही है ज़िंदगी ,कुछ ख़्वाब , कुछ उम्मीदें इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो —निदा फ़ाज़ली |
उनकी याद, उनकी तमन्ना ,उनका ग़म कट रही है ज़िंदगी आराम से —शकील बदायूँनी |
ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा क़ाफ़िला साथ और सफ़र तन्हा —गुलज़ार |
यूँ ज़िंदगी गुज़ार रहा हूँ तेरे बग़ैर जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूँ मैं —जिगर मुरादाबादी |
ज़िंदगी को भी तेरे दर से भिकारी की तरह इक पल के लिए रुकना है, गुज़र जाना है —अहमद फ़राज़ |
ख़ामोश ज़िंदगी जो बसर कर रहे हैं हम गहरे समन्दरों में सफ़र कर रहे हैं हम —रईस अमरोहवी |
ज़िन्दगी से निपट रहा हूँ अभी मौत किया है मेरी बला जाने —हफीज़ जालंधरी |
ज़िन्दगी जैसी तवक़्क़ो थी ,नहीं कुछ कम है हर घड़ी होता है एहसास , कहीं कुछ कम है तवक़्क़ो:अपेक्षा —शहरयार |
मुश्किलों के बीच सारी ज़िन्दगी ! कब मिली है इख्तियारी ज़िन्दगी ? इख्तिययरी :मन-मर्ज़ी की —रईस सिद्दीक़ी |
कम से कम, हम में ये हौसला तो रहा ज़िंदगी काट दी इम्तिहानों के बीच —जाँनिसार अख़्तर |
ज़िंदगी का सुराग़ मिलता नहीं वक़्त की धूल उड़ा रहा हूँ मैं —जाफ़र शिराज़ी |
ज़िंदगी एक गुज़रती हुई परछाई है आईना देखता रहता है तमाशा अपना —सौदा |
ज़िन्दगी भी तो पशेमाँ है यहाँ ला के मुझे ढूंडती है कोई हीला मेरे मर जाने का पशेमाँ: शर्मिंदा,हीला :बहाना —फ़ानी बदायूँनी |
वो आये हैं पशेमाँ लाश पर अब तुझे ऐ ज़िन्दगी लाऊँ कहाँ से —मोमिन |
जलाता हूँ खुद को मैं शोलों में ग़म के मेरी ज़िन्दगी ही मेरी ख़ुदकुशी है —आरिफ़ लखनवी |
हम ही दुनिया में क्या सब से अलग ,सब से निराले हैं हम ही को ज़िंदगी क्यों हर क़दम पर आज़माती है —एजाज़ अंसारी |
ज़िन्दगी बेशक तेरा इनाम है या रब,मगर सुन सके तो कुछ तेरे इनाम की बातें करें —हरी चंद अख़्तर |
ज़िन्दगी दिल पे अजब सहेर सा करती जाए इक जगह ठहरी लगे, और गुज़रती जाए सहेर:जादू —ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ |
ज़िन्दगी काफ़ी नहीं थी,ज़िंदा रहने को ‘तलब’ यूँ अधूरी रह गयी अपनी मुरादों की किताब —तिलकराज तलब |
ज़िन्दगी दूर है और मौत भी कुछ पास नहीं न तो साहिल है , न मँझदार है ,कैसे सोएं ? साहिल : समुद्र का किनारा —इक़बाल उमर |
ज़िन्दगी जब्र-ए-मुसलसल की तरह काटी है जाने किस उम्र की पाई है सजा , याद नहीं जब्र:ज़बर्दस्ती ,मुसलसल:लगातार —साग़र सिद्दीक़ी |
ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं और क्या जुर्म है पता ही नहीं —कृश्न बिहारी नूर लखनवी |
ज़िंदा लाशें भी दूकानों में सजी हैं शायद बू-ए-खूं आती है खुलते हुए बाज़ारों से —मुज़फ़्फ़र वारसी |
ज़िन्दगी से मौत तक मैं इक सरापा राज़ था कुछ यहाँ रौशन हुआ और कुछ वहाँ रौशन हुआ सरापा :सिर से पाँव तक —कैफ़ अहमद सिद्दीक़ी |
ज़िन्दगी बे- दरो-दीवार मकाँ है कोई कब से इक हसरत-ए-तामीर लिए बैठे हैं बे-दरो-दीवार मकाँ:बिना दीवार व दरवाज़े का घर हसरत:ख्वाहिश ,तामीर : निर्माण —शहाब जाफ़री |
ज़िन्दगी में क़त्ल करके तुझको निकाला था,मगर क्या ख़बर थी फिर तिरा ही सामना हो जाएगा तिरा: तेरा —अली अहमद जलीली |
ज़िन्दगी से भी निबाहें , तुझे अपना भी कहें इस कशा-कश में शब-ओ-रोज़ गुज़र जाते हैं कशा-कश:खींच-तान, शब-ओ-रोज़:रात-दिन —महमूद अयाज़ |
ज़िन्दगी फिर भी थी दुश्वार, बहुत ही दुश्वार हर क़दम साथ अगर एक मसीहा भी होता दुश्वार:कठिन, मसीहा :मसीह की तरह मदद्गार —परतौ रोहिला |
ज़िन्दगी है या कोई तूफ़ान है हम तो इस जीने के हाथों मर चले —ख़्वाजा मीर दर्द |
ज़िन्दगी का यही अल्मिया है जिसको हम चाहें,वो कभी न मिले अल्मिया: दुखदायी —सुरूर बाराबंकवी |
ज़िन्दगी के वास्ते जो ज़हर-ए-ग़म पीता रहा हौसले से फिर भी इस दुनिया में वो जीता रहा —सय्यदा फ़रहत |