डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हरयाणा की एक युवती ने दहेज के विरुद्ध ऐसा जबर्दस्त कदम उठाया है कि उसका अनुकरण पूरे भारत में होना चाहिए। भारत सरकार ने दहेज निषेध कानून बना रखा है लेकिन भारत में इसका पालन इसके उल्लंघन से ही होता है। बहुत कम विवाह देश में ऐसे होते हैं, जिनमें दहेज का लेन-देन न होता हो। जहां स्वेच्छा से दहेज दिया जाता है, वहां भी लड़कीवालों पर तरह-तरह के मानसिक, सामाजिक और जातीय दबाव होते हैं। कई बार फेरों के पहले ही विवाह टूट जाता है, आई हुई बारात खाली लौट जाती है और विवाह-स्थल पर ही घरातियों व बरातियों में दंगल हो जाता है। शादी के बाद तो बहुओं को जिंदगी भर तंग किया जाता है। उनके मां-बाप को कोसा जाता है और बहुएं तंग आकर आत्महत्या कर लेती हैं। दहेज मांगनेवालों को 3 से 5 साल की सजा का प्रावधान कानून में है लेकिन भारत में कानून की हालत खुद बड़ी खस्ता है। पहली बात तो यही कि लड़कीवालों की हिम्मत ही नहीं होती कि वे कानून का सहारा लें। यदि वे अदालत में जाएं तो पहले उनके पास वकीलों की फीस भरने के लिए पैसे होने चाहिए और दूसरा खतरा उनकी बेटी को ससुराल से धकियाए जाने का होता है। अदालत में कोई चला भी जाए तो उसे इंसाफ मिलने में बरसों लग जाते हैं। लेकिन हरयाणा के आकोदा गांव की एक युवती ने अत्यंत साहसिक कदम उठाकर दहेज के इस अधमरे कानून में जान फूंक दी है। इस लड़की की शादी 22 नवंबर को होनी थी। दूल्हे ने दहेज में 14 लाख रु. की कार मांगी। कार नहीं मिलने पर वह 22 नवंबर को बारात लेकर आकोदा नहीं पहुंचा। उस लड़की ने उस भावी पति के खिलाफ पुलिस में रपट लिखवाई और दंड संहिता की धारा 498ए के तहत उसे गिरफ्तार करवा दिया। मुझे खुशी तब होती, जबकि उसके परिवार के कुछ बुजुर्ग सदस्यों को भी जेल की हवा खिलवाई जाती, क्योंकि उनकी सहमति के बिना दहेज में कार की मांग क्यों होती? अब उस बहादुर लड़की के लिए रिश्तों की भरमार हो गई है। इससे भी पता चलता है कि भारत में आदर्श आचरण करनेवालों की कमी नहीं है। असली दिक्कत तो लालच ही है। लालच में फंसे होने के कारण ही हमारे नेता और अफसर रिश्वत खाते हैं, डाॅक्टर और वकील ठगी करते हैं, व्यापारी मिलावट करते हैं और किसी का कुछ बस नहीं चलता है तो लोग दहेज के बहाने अपने बेटे-बेटियों का भी सौदा कर डालते हैं। कई लोग अपनी सुंदर, सुशिक्षित और सुशील बेटियों को अयोग्य पैसेवालों के यहां अटका देते हैं। वे जीवन भर अपने भाग्य को कोसती रहती हैं। इस बीमारी का इलाज सिर्फ कानून से नहीं हो सकता है। इसके लिए भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन की सख्त जरुरत है। मैंने लगभग 60 साल पहले इंदौर में ऐसा आंदोलन शुरु किया था। जिन सैकड़ों लड़कों ने मेरे साथ दहेज नहीं लेने की प्रतिज्ञा की थी, उनकी दूसरी-तीसरी पीढ़ी भी आज तक उस संकल्प को निभा रही हैं। यदि भारत के साधु-संत, मौलाना, पंडित-पादरी लोग यह बीड़ा उठा लें और आर्यसमाज, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सर्वोदय मंडल, साधु समाज, इमाम संघ, शिरोमणि सभा आदि संगठन इस मुद्दे को अपने हाथ में ले लें तो दहेज की समस्या पर काबू पा लेना कठिन नहीं होगा।