रविवार की छुट्टी का रहस्य ?

कोई भी सरकार  या कम्पनी अपने कर्मचारियों को कोई भी सुविधा और वेतन – भत्ते इत्यादि ऐसे ही नहीं दे देती , इसके पीछे छुपी होती है वहाँ के कर्मचारियों और कर्मचारी संगठनों की कड़ी मेहनत / संघर्श और कभी – २ तो न जाने कितने वर्षों तक दी गई कुरबानियों का सिलसिला भी ! कभी – २ तो ऐसा भी होता है कि वर्षों के संघर्श  के बाद सरकार या फ़िर किसी कम्पनी द्वारा दी गई सुविधाओं का सुख / आनन्द मानने  का जब वक़्त आता है , तब तक संघर्श करने वाले उस सुख / सुविधा का लाभ उठाने के लिए जिन्दा भी नहीं रहते या फ़िर नौकरी से सेवा निवृत हो जाते हैं !

छुट्टी का नाम लेते ही कर्मचारियों के  चेहरे पर रौनक और आँखों  में चमक आ जाती है , शुक्र है की कल रविवार है! बहुत से लोग सोचते हैं कि रविवार की छुट्टी वाले दिन ख़ूब आराम करेंगे या फ़िर अपने हफ़्ते भर के घर के पेंडिंग पड़े काम निपटा लेंगे !  कुच्छ लोग तो हफ्ते भर काम करने के बाद लोग इस दिन केवल आराम करना ही पसंद करते हैं और कुच्छ और परिवार वालों के साथ घूमने निकल जाते हैं , ताकि ज़िन्दगी में कुच्छ ना कुच्छ नयापन बना रहे । दोस्तों के साथ गपशप और पार्टी करते हैं। साथ ही आने वाले नए सप्ताह के लिए तैयार भी होते हैं। ऑफिस में काम करने वाले लोगों को हमेशा रविवार का इंतजार रहता है ! चलो आज आपको बताएंगे कि हमारे देश में यह रविवार को छुट्टी की शुरुआत कब और कैसे से हुई ? और कौन है वह महान हस्ती इसके पीछे जिसकी अनथक प्रयासों की वजह से आज पूरे देश में  सभी कर्मचारियों और मज़दूरों को यह रविवार की छुट्टी का सुख नसीब हुआ है !  

इसके पीछे का इतिहास जानना बहुत जरूरी है। दरअसल, यह हज़ारों लोगों की कठिन लड़ाई और संघर्ष के बाद ही ऐसा संभव हो पाया है। रविवार के दिन हम सब लोग अपने घरों में बैठकर जो थोड़ा फुर्सत के पल बिताते हैं , इस रविवार की छुट्टी और आनंद का पूरा श्रेय जाता है – नारायण मेघाजी लोखण्डे को । आइए आपको बताते हैं इसके पीछे की पूरी कहानी। यह बात देश की आज़ादी से भी लगभग 65 – 70 वर्ष पहले की है , उस समय भारत पर ब्रिटिश शासकों का शासन था। उनके राज्य में लोगों को बहुत परेशान किया जाता था, उनका ख़ूब  शोषण होता था ! उस समय किसी भी कर्मचारी / मजदूर को कोई छुट्टी नहीं मिलती थी। सप्ताह के सातों दिन और महीने में पूरे तीस दिन सबको काम करना पड़ता था।  केवल इतना ही नहीं , उन दिनों प्रतिदिन काम का अवधि  भी होती थी 12 घंटे , जोकि बाद में  धीरे – २ एक और बहुत बड़े विद्वान व समाज सुधारक महापुरुष , संविधान निर्माता – डॉ. भीम रॉव आंबेडकर के संघर्ष और अथक प्रयासों की वजह से घटाकर आठ घण्टे  किया गया था !  

हमारे देश में ढाई तीन सौ वर्ष पहले अवकाश का चलन नहीं था, अंग्रेजों के आने से पहले भारत पूरी तरह व्यापार और कृषि पर ही निर्भर था ! जिनकी खेतीबाड़ी वाली जमीन थी और जो गॉँव के अन्य लोग खेतों में मजदूरी करते थे , वह भी सप्ताह के हर दिन काम करते थे ! पर अच्छाई वाली बात यह थी कि जब जिसे जरूरत होती थी, वह अपनी सुविधा के अनुसार अवकाश कर लेता था, लेकिन उस अवकाश के बदले कोई मजदूरी नहीं मिलती थी ! 

जब अंग्रेजों ने भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना की, तब उन्हें अपनी कम्पनी में काम करने वाले मिल मजदूरों की जरूरत थी ! चूंकि पूरे देश में ब्रिटिश हुकूमत थी, इसलिए उनके लिए मजदूरों का इंतजाम करना कोई मुश्किल काम नहीं था ! सो इस तरह उन्होंने ने अपनी मिलों में भारतीय गरीबों को बतौर मजदूर और छोटी – २ क्लेरिकल / बाबूगिरी वाली नौकरियाँ दी !  दुर्भाग्य यह था कि अब तक अपनी मर्जी से जीने वाला भारतीय अंग्रेजों के इशारों पर जी रहा था !

उन सभी मजदूरों से पूरे सप्ताह काम लिया जाता था और  ज्यादातर मिलों में दो शिफ्टों में काम चलता था ! दिन की शिफ्ट खत्म करके मजदूर रात को घर जाते थे और रात को काम करने वाले सुबह ! अपने काम के दौरान उन्हें न तो भोजन करने के लिए समय मिलता था न ही शौच जाने के लिए !  ब्रिटिश सरकार ने यह नियम निचले दर्जे के कर्मचारियों पर ही लागू किया हुआ था, जबकि, बड़े अधिकारियों  के लिए आधा दिन अवकाश की सुविधा थी ! उनको अवकाश देने के मामले में तर्क यह दिया जाता था सभी ईसाई अधिकारियों  को रविवार को चर्च में प्रेयर के लिए जाना होता है !  प्रार्थना के लिए जाने आने और  लोगों से आपस में  मुलाकात करने में इतना समय तो लग ही जाता था और इसमें  उनका आधे से ज्यादा दिन गुजर जाता था ! इस तरह रविवार उनके लिए अवकाश जैसा ही होता था |  मगर, इसके विपरीत भारतीय मजदूर बदस्तूर अपना काम जारी रखते थे ! लगातार काम करने के कारण मजदूरों की सेहत पर बुरा असर पड़ता था !

चूंकि उन दिनों स्वास्थ्य अवकाश भी नहीं मिलता था, इसलिए बिमारी  की हालात में भी काम करना पड़ता था. इस अत्याचार ने देश के विभिन्न क्षेत्रों में स्थिति मिलों के मजदूरों को मौत की चौखट पर ला खड़ा किया,  गर्भवती महिलाओं के लिए यह स्थिति तो और भी ज्यादा विकराल बन जाती थी !

उस समय नारायण मेघाजी लोखण्डे  (जीवनकाल – 1848 से 1897) श्रमिकों के नेता हुआ करते थे और वह हमारे देश में मज़दूर यूनियन अनदोलन के अग्रणी नेता भी माने जाते हैं ! श्रमिकों की खस्ता हाल प्रस्थितियों को देखते हुए उन्होंने ब्रिटिश सरकार को इस बारे में 1881 में  एक प्रस्ताव भेजा , जिसमें उन्होंने  मिल मालिकों की मजदूर विरोधी कारगुजारियाँ उजागर की और श्रमिकों की परेशानियाँ  भी बयान की ! पत्र  के अंत में उन्होंने यह सबका ख़ुलासा  करते हुए अंग्रेज हुकूमत के सामने अपनी चार माँगे भी पेश की : –

1 सभी मजदूरों व कर्मचारियों को अपने सप्ताह भरके व्यक्तिगत और घरेलु पेंडिंग कार्य निपटाने  के लिए हफ्ते में एक दिन साप्ताहिक अवकाश अवश्य दिया जाना चाहिए !

2.  दोपहर को खाना खाने के लिए आधा घण्टा आराम करने के लिए काम से रेस्ट दी जाए ,

3. किसी भी कारखाने में सुबह सात बजे से पहले काम शुरू ना किया जाये और शाम को सूर्यअस्त के बाद किसी भी मजदूर से काम ना लिया जाये , और

4.  प्रत्येक मजदूर व कर्मचारी को अगले महीने की ज़्यादा  से ज़्यादा 15 तारीख़ तक तनखाह / मजदूरी अवश्य मिल जानी  चाहिए , ताकि उसे आर्थिक तंगी का सामना ना  करना पड़े !

केवल इतना ही नहीं, उन्होंने अपने माँग  पत्र  में  आगे लिखा की पूरा महीना लगातार काम करने की वजह से उनकी तबियत ख़राब  रहने लग जाती है और अगर सरकार हमारी यह माँगे मान लेती है तो इससे कर्मचारियों के स्वस्थ में  भी सुधार आएगा और अवकाश से वापिस काम पर आने के बाद उनकी कार्य-कुशलता में भी सुधार हो जायेगा ! लेकिन अफ़सोस ! ब्रिटिश सरकार ने उनके इस प्रस्ताव को सिरे से ही ख़ारिज कर दिया था। 

यहाँ आपको यह भी जानकारी देना अत्यंत आवश्यक है कि  यह मजदूर यूनियन नेता, महापुरुष – नारायण मेघाजी लोखण्डे , महान विद्वान और  समाज सुधारक महात्मा ज्योतिबा फुले जी के एक अनुयाई और महाराष्ट्र में बड़े महत्वपूर्ण नेता थे और उनके सत्यशोधक आन्दोलन के कार्यकर्ता भी थे और इन्होने अपने प्रेरणा स्रोत से संघर्ष में  हार मानना  तो सीखा ही नहीं था और वह खुद भी एक कामगार नेता थे और एक कारखाने में बतौर स्टोर कीपर कार्यरत थे । उनका यह मानना था कि हम  हफ्ते में सातों दिन अपनी कम्पनी / सरकार  के लिए काम करते हैं और हमें अपने परिवार के एक भी छुट्टी नहीं मिलती, जिसकी वजह से हमारे घर वाले हमसे हमेशा परेशान / नाराज़ रहते हैं ! अगर सप्ताह में  एक बार हमें भी अवकाश दे दिया जाए तो अपने परिवार और समाज के प्रति अपनी कुच्छ जिम्मेवारियाँ  हम भी निभा पाएंगे और इसके लिए सभी कर्मचारियों को सप्ताह में  एक दिन की छुट्टी तो मिलनी ही चाहिए , बिलकुल वैसे ही जैसे कि कम्पनी के बड़े अधिकारियों को सन्डे की छुट्टी दी जाती है ! फ़िर ऐसा थोड़ी है कि अधिकारियों के परिवार कर्मचारियों के परिवारों से बहुत अलग होते हैं , सभी की अपने परिवार के प्रति वैसी ही जिम्मेदारी होती है, इसलिए केवल उनको ही छुट्टी की आवश्यकता नहीं होती है , सभी लोग सामाजिक प्राणी हैं और हमें भी इस साप्ताहिक अवकाश  की उतनी ही आवश्यकता होती है जितनी कि अधिकारियों  को ! लेकिन सभी भारतीय कर्मचारी तो केवल  बंधुआ मज़दूरों  की तरह दिन रात बस काम ही करते रहते थे !

अंग्रेज हुकूमत द्वारा लोखण्डे  जी के अनेको प्रयासों के बावजूद भी सरकार झुकने को तैयार नहीं हुई, लेकिन लोखंडे जी ने  भी अपने संघर्ष को अपना धैर्य खोये बिना निरंतर जारी रखा और वह समय पर सरकार को अपने विज्ञापन देते ही रहते । उन्होंने सभी श्रमिकों को अपने साथ लिया और सरकार की इस मज़दूर विरोधी निति की समय – २ आलोचना करते रहते और उसमें सुधार लाने के लिए यथासंभव कोशिशें भी करते ही रहते थे । उन्होंने सरकार की इस सख्ती के ख़िलाफ़ अपनी आवाज बुलंद की हुई थी। उन्होंने अपने मज़दूर साथियों के साथ मिलकर जमकर विरोध प्रदर्शन भी किये और मजदूरों को उनका हक दिलवाने के लिए लगातार यत्न किये ! सरकार  के इस मज़दूर विरोधी रवैये की वजह से अपनी नौकरी खोने का डर तो बना ही हुआ था , साथ में अन्य किसी मज़दूर का किसी किस्म का नुकसान न हो जाये , यह भय भी निरंतर बना रहता था ! कभी – २ तो लगातार विरोध प्रदर्शन की वजह से उनकी महीने की तनखाह में  से (कोई काम नहीं , कोई तनखाह नहीं के सिद्धान्त पर)  2 / 3 दिन का उनका वेतन भी कट जाता था !

लेकिन दूरदृष्टि रखने वाले समझदार और तजुर्बेकार इन्सान कहते हैं कि सुरंग में  कितना भी अँधेरा क्यों ना हो और वह सुरंग कितनी भी लम्बी क्यों न हो, एक न एक पल वह सुरंग जब समाप्त होने के कगार पर होती है , तो वहाँ रौशनी की किरणें अपने आप ही आनी  आरंम्भ हो जाती हैं !  बिलकुल वैसा ही हुआ लोखण्डे जी के संघर्श  में  भी , सो आख़िरकार – एक दिन ऐसा भी दिन आया  जब  सरकार  को उनकी  जायज़ माँगों के सामने झुकना ही पड़ा और आठ वर्ष के कड़े संघर्ष के बाद उनकी कठोर तपस्या और मेहनत रंग लाई और सरकार ने सभी मज़दूरों व कर्मचारियों को सप्ताह में  एक दिन छुट्टी देने का प्रस्ताव सविकार करते हुए  ब्रिटिश सरकार ने 10 जून ,1890 को आदेश जारी कर दिया कि सप्ताह में एक दिन सबको छुट्टी मिलेगी और यह छुट्टी भी अधकारियों को पहले से मिली हुई छुट्टी के साथ ही रविवार को ही दी जाएगी । केवल इतना ही नहीं , ब्रिटिश सरकार ने उनकी एक और मांग भी मानते हुए  हर रोज दोपहर के वक्त सभी कर्मचारियों / मजदूरों को आधे घण्टे का आराम दिए जाने का प्रस्ताव भी सविकार कर लिया, जिसे आज हम आज लंच ब्रेक कहते हैं।

सन 2005 में  केंद्र में जब सरदार मनमोहन सिंह जी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार सत्ता में थी , उन्होंने कर्मचारियों और मज़दूरों के कामकाज की स्थितियों में  सुधर लाने  हेतु और उनको दिए जाने वाले भत्ते व अन्य सुविधाएँ दिलवाले में कड़े परिश्रम और योगदान की प्रशंसा करते हुए श्री लोखण्डे जी के सम्मान में  पाँच रुपए की एक डाक टिकट जारी कर दी !

आर.डी. भारद्वाज “नूरपुरी ”