यायावर
माँ के हृदय का स्नेह-वरण,
उच्छास आलोकित हर-कण में|
नंगे बदन, बन के हिरण|
मैं चंचल था, रज-कण में|
उस स्नेहमयी के, नयनों में|
मेरी ही दृश्या, उतरती थी|
मेरी रुदन, श्रुति कानन से|
स्तनपान स्मृति, उभरती थी|
मैं शांत-सरोवर निद्रा में,
वस्त्र बदन पर रखती थी|
वो जननी निद्रा त्याग,
पूरी रात निहारा करती थी|
मैं निश्छल, नव-प्रसुन धरा पर|
खग-कलरव, कुल-कुल मादक-नव|
किंचित ज्ञान, बन निष्ठुर प्राण|
त्यजत मल-मूत्र, बन अज्ञान|
बन जहान्वी, विगलित करूणा
मुझे पवित्र, वो करती थी|
वात्सल्य ज्योतिर्मय मूक-भाव से,
मुझे पुकारा करती थी|