डॉ. अम्बेडकर रमा को प्यार से ‘रामू ‘ कहकर पुकारा करते थे, जबकि रमा ताई बाबा साहब को “साहब” कहती थी। बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर जब अमेरिका में थे, उस समय रमाबाई ने बहुत कठिन समय व्यतीत किया. बाबासाहेब जब विदेश में थे, तब भारत में रमाबाई को कई प्रकार की आर्थिक दिक्कतों को झेलना पड़ा, लेकिन उनकी कोशिश होती थी की उनकी परेशानियों की भनक डॉक्टर आंबेडकर को न लगे , नहीं तो वह जिस संघर्ष में दिन रात लगे रहते थे, उसमें किसी प्रकार की वाधा आने से वह अक्सर डरती रहती थी । एक समय जब बाबासाहेब पढ़ाई के लिए इंग्लैंड में थे तो धन आभाव के कारण रमाबाई को उपले (पाथियाँ) बेचकर गुजारा करना पड़ा था। लेकिन उन्होंने कभी भी इसकी फिक्र नहीं की और सीमित खर्च में ही जैसे तैसे घर चलाती रहीं।
उनकी गृहस्थी में सन 1924 तक पॉँच बच्चों ने जन्म लिया, लेकिन घर में विभिन्न प्रकार के अभावों वजह से वह अक्सर बिमार पड़ जाती थी , ख़ुद भी वह शारीरक रूप से कमज़ोर थी और उनके बच्चे भी कमज़ोर ही पैदा हुए, बीमार होने पर वह ठंग से इलाज़ भी नहीं करवा पाती थी , जिसकी वजह से उनके चार बच्चे छोटी उम्र में ही मृत्यु को प्राप्त हो गए | किसी भी मां के लिए अपने पुत्रों की मृत्यु देखना सबसे ज्यादा दुख की घड़ी होती है। रमाबाई को यह दुख सहना पड़ा। बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर और रमा ताई ने अपने पांच बच्चों में से चार को अपनी आंखों के सामने अभाव में मरते हुए देखा। गंगाधर नाम का पुत्र ढाई साल की अल्पायु में ही चल बसा। इसके बाद रमेश नाम का पुत्र भी नहीं रहा। इंदु नामक एक पुत्री हुई मगर, वह भी बचपन में ही चल बसी थी। सबसे छोटा पुत्र राजरतन भी ज्यादा उम्र नहीं देख पाया। केवल उनके बेटे यशवंत राव जो सबसे बड़े पुत्र थे, वही जिंदा बचे। इन सभी बच्चों ने गरीबी और अभाव में दम तोड़ दिया। जब गंगाधर की मृत्यु हुई तो उसकी मृत देह को ढ़कने के लिए गाँव के लोगों ने नया कपड़ा (कफ़न) लाने को कहा, मगर उनके कफ़न खरीदने के लिए इतने पैसे नहीं थे। तब रमा ताई ने अपनी साड़ी में से ही एक टुकड़ा फाड़ कर दे दिया वही मृत देह को ओढ़ा कर लोग श्मशान घाट ले गए और पार्थिव शरीर को दफ़ना आए थे।
रमा इस बात का ध्यान रखती थी कि पति के काम में कोई बाधा न हो। रमाताई संतोष, सहयोग और सहनशीलता की जीती जागती मूर्ति थी। डॉ. अम्बेडकर प्राय: घर से बाहर रहते थे। वे जो कुछ कमाते थे, उसे वे रमा को सौंप देते और जब आवश्यकता होती, उतना मांग लेते थे। रमाताई घर का खर्च चला कर कुछ पैसा जमा भी करती थी। बाबासाहेब की पक्की नौकरी न होने से उसे काफी दिक्कत होती थी। आमतौर पर कोई भी आम स्त्री अपने पति से जितना वक्त और प्यार चाहती है, रमाबाई को वह डॉ. अम्बेडकर नहीं दे सके, रमा ताई भी भली भाँति जानती थी कि डॉक्टर साहेब अपने समस्त समाज के कल्याण और उनकी समस्याएँ निपटाने में हमेशा जुटे रहते हैं , इसलिए उन्होंने भी अपने पति से कभी शिक़वे शिकायतें नहीं की ! लेकिन उन्होंने बाबासाहेब का पुस्तकों से प्रेम और अपने समाज के उद्धार की दृढ़ता का हमेशा सम्मान किया। वह हमेशा यह ध्यान रखा करती थीं कि उनकी वजह से डॉ. अम्बेडकर को कोई दिक्कत न हो।
डॉ. अम्बेडकर के सामाजिक आंदोलनों में भी रमाताई की सहभागिता बनी रहती थी। दलित समाज के लोग रमाताई को ‘आईसाहेब’ और डॉ. अम्बेडकर को ‘बाबासाहेब’ कह कर पुकारा थे। बाबासाहेब अपने कामों में व्यस्त होते गए और दूसरी ओर रमाताई की तबीयत बिगड़ने लगी। तमाम इलाज के बाद भी वह स्वस्थ नहीं हो सकी और अंतत: 27 मई, 1935 में छोटी उम्र में ही डॉ. अम्बेडकर साहेब का साथ छोड़ इस दुनियाँ से विदा हो गई।
रमाताई के मृत्यु से डॉ. अम्बेडकर को गहरा आघात लगा। उनके साथी बताते हैं कि अपनी पत्नी की मृत्यु पर वे बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोये थे। बाबासाहेब का अपनी पत्नी के साथ अगाध प्रेम था। बाबसाहेब को विश्वविख्यात महापुरुष बनाने में रमाबाई का ही साथ और बहुत बड़ा सहयोग था । बाबासाहेब के जीवन में रमाताई का क्या महत्व था, यह एक पुस्तक में लिखी कुछ लाइनों से पता की जा सकती है। दिसंबर 1940 में बाबासाहेब अम्बेडकर ने “थॉट्स ऑफ पाकिस्तान” नाम की पुस्तक को अपनी पत्नी रमाबाई को ही भेंट किया। भेंट के शब्द इस प्रकार थे.. “रमो को उसके मन की सात्विकता, मानसिक सदवृत्ति, सदाचार की पवित्रता और मेरे साथ दुःख झेलने में, अभाव व परेशानी के दिनों में जब कि हमारा कोई सहायक न था, मैं उनकी असीम सहनशीलता और सहमति दिखाने की प्रशंसा स्वरुप भेंट करता हूं…..…”