दिव्य-प्रेम

प्रभो! हमारा देश उस दिव्य प्रेम के आलोक से आलोकित हो उठे
जहाँ न तो जड़ता हो, न अभाव ही,
न अज्ञानता हो, न तो दैहिक, दैविक तथा भौतिक ताप ही,
बल्कि हो उस श्रेष्ठता का ज्ञान
जो मानवीय गरिमा को पूर्णतः स्थापित कर
उस दिव्य-कर्म को करने की प्रेरणा दे जो केवल कर्म के लिए ही हो और
पूर्णतया समर्पित हो उस प्रभु के चरणों में जो प्रेम रस का अथाह सागर है ।


जहाँ पर भय की व्याकुलता, निर्भयता के खड्ग से ;
अन्याय की वीभत्सता, न्याय की सुन्दरता से;
विचारों की संकीर्णता, हृदय की उदारता से ;
अभाव की आतुरता, बुद्धि की विशालता से;
विवेक की उपयोगिता से लुप्त हो जाये ।

जहाँ हमारी वाणी सत्यवादिनी,
कर्म शिव-आह्लादिनी ,
तो आचरण सौन्दर्यशालिनी हो ।
जहाँ पर मानव अपनी गरिमा की परिपूर्णतम अवस्था में पूर्णतया प्रतिष्ठित हो ।

–  मधुरिता