राजनीति या सामाजिक राजनीति

प्रो. उर्मिला पोरवाल 

त्यौहारों की पारंपरिक श्रृंखला के बाद चुनाव अौर प्रचार-प्रसार का दौर शुरू हो गया है ….जब भी मैं चुनाव या मतदान के बारे में सोचती हूं तो सबसे पहले जो प्रश्न मन में आता हेै वह यह है कि चुनाव क्या है ? हम मतदान क्यूं करते है? जब देश को एक घर का प्रतिरूप मानकर समझने का प्रयास करती हूँ तो जवाब तब अपने आप मिल जाता है…कि जिस प्रकार एक घर को सुव्यवस्थित एवं सुनियोजित रुप से संचालित करने के लिए घर की समस्त जिम्मेदारियों को सदस्यगण आपस में ज्ञान, क्षमता अौर योग्यता के आधार पर बाँट लेते है ठीक उसी प्रकार देशको सुव्यवस्थित एवं सुनियोजित रुप से संचालित करने के लिए योग्य व्यक्तियों का चयन करना ही चुनाव कहलाता है। चूँकि परिवार में सबकी सहमती और असहमती का महत्व होता है इसीलिए देश में मतदान किया जाता है। ये तो हुई राजनीति की बात परन्तु आजकल जो चल रही है वह सिर्फ राजनीति नहीं है…वह है-सामाजिक राजनीति…प्रत्येक समाज के व्यक्ति को इस बात की शिकायत है कि “हमारे समाज के व्यक्ति को टिकट (उम्मीदवारी) नहीं मिली.”..साथ ही तर्क देते है-कि हम तो बहुसंख्यक है, मेरा मानना है कि चिन्ता इस बात की नहीं करनी चाहिए कि टिकट सामाजिक बन्धु को मिली या नहीं बल्कि चिन्ता तो इस बात की करनी चाहिए कि जिनको मिली है वें उस योग्य है कि नहीं कि उन्हें चुनकर उन्हें देश की जिम्मेदारी दी जा सकें। इस बात पर आपस में चर्चा करनी चाहिए कि कौन योग्य है किसको मतदान करें ताकि देश उन्नति अौर विकास के पथ पर अग्रसर हो सके। मैंने तो अपने वरिष्ठजनों को कहते सुना है कि कर्म कभी भी पद का मोहमाज नहीं होता बल्कि कर्म के कारण ही बड़े-बड़े पद प्राप्त किए जाते है यदि हम कर्मठ है तो हमारा कर्म ही हमें विजयी बनाएगा… इसलिए उम्मीदवार के चयन का आधार समाज नहीं कर्म होना चाहिए…जय हिन्द