विशेष संवाददाता : हरिभूमि
दिल्ली में विधानसभा चुनाव अब दूर नहीं है। तमाम मुद्दे हैं, लोगों की अपेक्षाएं भी बहुत हैं, राजनैतिक दलों को भी दांव पेंच चलने ही हैं। ऐसे हालात में एक बात तो शीशे की तरह साफ है, सत्ता की चाबी दिल्ली देहात या कहे बाहरी दिल्ली के विधानसभा क्षेत्रों में छुपी हुई है। पिछले साल हुए चुनाव के दौरान अरविंद केजरीवाल के लिए यह इलाका वाॅटर-लू साबित हुआ था। भाजपा ने गांव देहात के असर वाली सीटों पर लगभग एकतरफा कब्जा कर लिया था। मुडंका से निर्दलीय प्रत्याशी ने जीत हासिल की थी। सुलतानपुर माजरा और बादली सीट कांग्रेस के खाते में गई थी। केजरीवाल के हाथ यहां कुछ नहीं लगा था और वे बहुमत से दूर रह गये थे। भाजपा को यहां उम्मीद से ज्यादा मिला था पर दिल्ली के दूसरे इलाकों में आम आदमी पार्टी से मिली करारी हार ने सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने का उसका रास्ता रोक दिया था। केजरीवाल ने दिल्ली देहात में अपनी पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए कुछ खास किया धरा नहीं। कांग्रेस तो वैसे ही पस्त है। गांव-देहात के मतदाताओं पर मोदी का असर अभी बरकरार है। ऐसे में लोग मान रहे हैं कि भाजपा एक बार फिर पुराने नतीजे दोहरा सकती है। लेकिन मुकाबले में आशंका तो रहती ही है। भाजपा की तरफ से मुख्यमंत्री पद के लिए किसी को सामने नहीं लाया जायेगा, यह तय है। केजरीवाल खुलकर मुख्यमंत्री पद के लिए मैदान में होंगे। ऐसी सूरत में मतदाता सोचेंगे जरूर। कांग्रेस के पास इस बार खोने के लिए कुछ नहीं होगा। कांग्रेस अपनी छह सीटों को बचा ले जाए या इसमें एक दो सीटों की बढ़ोतरी हो जाए तो उसके लिए यह कारनामा किसी उपलब्धि से कम नहीं होगा। देहात में भाजपा अगर मुगालते में रही तो नुकसान उठाना पड़ सकता है। भाजपा को अगर सरकार बनाने की जंग में विजयी होना है तो उसे देहात में अपनी पुरानी ताकत को बनाये रखने के साथ ही दिल्ली के पूर्वी और मध्य हिस्से में केजरीवाल पर पार पाना होगा। अरविंद को ठीक इस लाइन का उलटा कराना होगा यानि दिल्ली के पूर्वी और मध्य हिस्से में अपनी पुरानी ताकत को बरकरार रखते हुए देहात में भाजपा पर पार पाना होगा। जो भी इस मुहिम में बाजी मारेगा उसी के सिर दिल्ली का ताज सजेगा।