Dr.M.C.Jain
जो कर्म से परतंत्र है वह पूजक है और जो कर्म से स्वतंत्र है वह पूज्य है । अपने आराध्य देव ने जिस पुरूस्वार्थ को करके आदर्शमय स्थान प्राप्त किया है उसी का अनुसरण भक्त यथाशक्ति करना चाहता है और उस आदर्श देव को आत्मसात करने के लिए भक्त जिन जिन पद्धतियों का आलंबन लेता है उनमे सबसे सरल एवम प्राथमिक साधन होने के कारण गुण , अनुराग, भक्ति और पूजा आदि के समर्पित भाव हैं । इसके लिए पूजक द्रव्य पूजा का अवलम्बन लेता है ।
पूजन करने का उद्देश्य जेनेन्द्र देव को प्रसन्न करना नहीं होता है क्योकि वे वीतरागी होने के कारण न तो प्रसन्न होते हैं और न ही अप्रसन्न होते हैं । पूजन के माध्यम से हम जिनेन्द्र देव के गुणों को प्राप्त करने की भावना भाते हैं । भगवन का गुण गान करने से पूजक को यह सहज ही समझ में आ जाता है कि वह स्वयं भी अनंत गुणों की खान है और उसमे भी परमात्मा बनने की शक्ति है । मगर राग , द्वेष व् मोह के कारण अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं कर पाता हैं । पूजा करते समय पूजक के भाव कभी कभी वीतरागी स्वभाव की ओर झुक जाते हैं और यही पूजन का मुख्य उद्देश्य है ।
देव पूजा में शुभ राग की मुख्यता रहने से पूजक अशुभ राग रूपी तीव्र कषाय आदि पाप से बचा रहता है तथा सामाजिक विषय वासना के संस्कार भी समाप्त हो जाते हैं ।