आज़ादी की तड़प !

पिन्जरे की चिड़िया को लाख समझायो ,
दयालु है और वहाँ उसे अपने ही जिस्म की दुरगंध भी नहीं मिलेगी ,
खुली हवा का सुख और सुकून का लुत्फ़ भी बड़ा खुशनुमा होता है !
मग़र उसने तो जैसे कुच्छ  सोचने और समझने की 
गुंजाइश ही खो दी होती है , वह तो बाहरी दुनियाँ  से 
बिलकुल ही बेख़बर और बेअसर रहती है –
क्योंकि – पिन्जरे  में उसे रोज़ाना शरीर को कष्ट 
दिए बिना ही दाना पानी निरन्तर मिलता ही रहता है ! 

यूँ तो बाहर समुन्दर है , नदी है , झील है और झरने भी,
गाँव  से बाहर खुले नीले आसमां  के नीचे दूर – २ तक  
फ़ैले हुए  खेत – खलियाण भी कम नहीं है ,
जहाँ  उसे उड़ान के साथ २ भोजन और ठण्डे मीठे जल 
की भी कभी कोई कमी नहीं रहेगी !

मग़र  उसके पिन्जरे  की दुनियाँ  ने जैसे उसे 
बाकी दुनियाँ की पगडंडियाँ ही भुला दी हैं – 
क्योंकि बाहर प्यास लगे तो ख़ुद पानी ढूँढ़ना – 
अब उसे सूखे गले से भटकना अनुभव होता है ! 
पिन्जरे में  मिलती बड़ी आसानी से पानी की कटोरी –
उसे कितनी सुलभ और प्रयाप्त नज़र आती है !

उसने अपने घर वाले  इन्सानों से सुन रखा है –
कि बाहर दाने दुनके का कितना टोटा  है ,
देखो ! पिंजरे में  मिलता तुम्हें अनाज कितना मोटा है !
इतना ही नहीं , बाहर  तो शिकारियों का भी ख़तरा है ,
यहाँ  नित-प्रतिदिन  मिलता खाना तुम्हें तगड़ा है ! 
जब तक यहाँ  रहोगी , तुम्हारी पूरी सुरक्षा है , 
खाने पीने , और सोने  की भी पूरी २ व्यवस्था है !
खायो पीयो और बस हमें सुरीले गीत सुनाती  रहो –
ख़ुद अपना और हमारा भी जी बहलाती रहो !!

चिड़िया भी उनके बहलावे – फ़ुसलावै में ,
ना  जाने कितने महीनों से वहाँ  पिन्जरे  में बैठी रही ,
और ग़ुलाम ज़िन्दगी  को वह कितनी मुक़्क़मल समझती हुई ,
बड़े आराम से अपने मालिक के घर गुनगुनाती रही ,
मुक्ति क्या है ? आज़ादी का सुख और सुकून क्या है ? 
भूलती गई और जीवन की बेशकीमती घड़ियाँ बस यूँ ही घसीटती गई !
बाहर कभी भी मारे जाने की आशंका ने उसकी सोच 
समझ और संवेदना पर बड़ा अंकुश लगा रखा था !
वह गाती  भी – तो उनकी फरमाईश का ,
खाती  वही , बस अपने मालिक की पसंद का ! 
क्योंकि ग़ुलामी  की जंजीरों में  ऐसी जकड़ी रही –
कि आज़ादी का सुख सुकून तो उसने कभी चखा ही नहीं था !

फिर एक दिन उसके मालिक कहीं  दूर सैर स्पाटे पर 
निकल गए , और उसके लिए दो कटोरियों में  कुच्छ  
चावल – बाजरा और पानी डालकर चले गए —— 
बच्चों  के कहने पर उसका पिन्जरा बरामदे से उतारकर 
खुले आँगन में रख दिया ताकि बाहर सूरज की रौशनी उसे मिलती रहे ! 

बस एक ही दिन में पिन्जरे में  कैद अकेली चिड़िया का मन 
घबराने लगा , उसे कोई अनाज या पानी , कुछ भी ना  भाने  लगा ,
मन उदास , गले में  प्यास , मग़र जिया परेशान  रहने लगा ,
मालिकों के लिए गाने वाली चिड़िया , यकायक तड़प से रोने कुरलाने  लगी !

उन सबने मिलकर उसकी दुखभरी दास्ताँ सुनी ,
कुच्छ  अपनी कही और कुच्छ  उसकी गुनी ,
उसे समझाया – पिन्जरे  में मिली ख़ीर भी बदहज़मी करती है, लेकिन 
खुले खेत – ख़ालियानों से चुगा हुआ दाना दुनका भी पेट की आग को तृप्त करता है !
उसकी नव जागृत चेतना ने उसकी बारादरी के सभी पक्षियों का 
जोश और समर्थन हासिल किया , और फ़िर सभी ने मिलकर 
पूरी ऊर्जा से उस पिन्जरे को घर की छत तक ऊँचा उठाया –
और फ़िर यकायक  पटक दिया ज़मीन पर —-
ज़मीन पर गिरते ही वह जंग लगा पिंजरा तार २ होके  बिख़र गया —
और महीनों से उस में कैद चिड़िया – अपने नए दोस्तों के संग —
खुले नील गगन में  हो गई उड़न छू —- 

उसने पा लिया खुला आकाश , अब वह हो चुकी थी आज़ाद ,
और भरती रही लम्बी लम्बी साँसे स्वच्छ खुली हवा में ,
और ना जाने वह अपने नए दोस्तों के संग कितनी ही देर मस्ती में उड़ती रही ,
खाती  रही  कितनी ही कला बाज़ियाँ , और लेती रही आनंद —-
अपनी नई नई आज़ादी का ! अपनी नव अर्जित स्वतंत्रता का !!

आर.डी. भारद्वाज ” नूरपुरी “