पत्रकारिता – एक दौर ऐसा भी..

बात उस दौर की है  जब समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियां चरम पर थी। ब्रतानियां हुकूमत की लाठियां हिन्दुस्तानियों पर कहर बनकर टूट रही थी। बहु-बेटियों की अस्मत खुलेआम चैराहों पर नीलाम हो रहे थे। भारतीयों के सामाजिक सरोकारों व धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात किया जा रहा था। मजदूर को मजदूरी के बदले यातनाएं दी जा रही थी। जुर्म का बगावत करने वाले समाज के हर तबके का हंटर के बल पर हक छिना जा रहा था। उस दौर में पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने ‘उदन्त मार्तण्ड’ नामक मैग्जिन निकालकर न सिर्फ लोगों के दुखों को साझा किया, बल्कि उनकी आवाज को मैगजिन के जरिए तानाशाहों की नींद हराम कर दी। समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार किया। अपने पत्रों के जरिए जनता में हक व इंसाफ के प्रति जागरूकता पैदा की। लेकिन किसे पता था 190 साल पूर्व जुगल व राजा राममोहन राय की जोड़ी ने पत्रकारिता की नींव रखी वह आज इस मुकाम पर होंगी कि उसे चौथे स्तंभ का दर्जा मिल जायेगा।  आज हर कोई इस पत्रकारिता जगत में अपनी पहचान बनाना  चाहता है लेकिन उसके पीछे उस व्यक्ति के अपने निजी स्वार्थ छिपे होते हैं। यानी आज पत्रकारिता बुरे दौर से गुजरने पर मजबूर हैं। माना कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं, यह एक प्रोफेशन और बिजनेस हो चला है। मगर क्या हर प्रोफेशन और बिजनेस का कोई एथिक्स नही होता? चंद टुकड़ों पर अपनी जमीर बेचना ही अब कुछ के लिए पत्रकारिता बन गयी है। ताज्जुब तो इस बात का है कि इस घिनौने करतूतों में सरकारे सिर्फ इसलिए साथ देती है कि वह उनके स्वार्थो का बखूबी ख्याल रखता है। मतलब साफ है समाज में पत्रकार का सम्मान खत्म होता जा रहा है। कुछ लोग धंधा करने के लिए पत्रकार का चोला ओढ़ लेते हैं तो कई पत्रकार धीरे-धीरे यह धंधा अपना लेते हैं। इसे बढ़ावा देने में संस्थानों का भी कम हाथ नहीं। लोकतंत्र का चौथा खंभा बुरी तरह हिल रहा है। जनता को वही खबरें मिल रही हैं जिससे चैनल या अखबारों को फायदा हो। अपने फायदे और पैसे के लिए वे किसी भी विज्ञापन को खबर बनाकर पेश कर रहे हैं। सबसे शर्म की बात यह है कि वे पैसे की लालच में वे राय भी दे रहे हैं।मै अभी पत्रकारिता का छात्र हूं, और इस पेशे में ये सोच कर आया था कि इमानदारी का इकलौता पेशा यही बचा है जिसके माध्यम से देश और समाज की सेवा कर सकता हूं लेकिन करीब आने पर पता चला कि यहां भी सफाई की जरूरत है। स्वतंत्रता जैसे शब्द के मायने भी इस पेशे से खत्म हो गए हैं। बड़ी मछली छोटी मछली को निगलने के लिए तैयार बठी है, शायद इसी कारण पत्रकारिता सिर्फ शब्द बनकर रह गया है।फिलहाल देखा जाय तो 190 वर्षों में हिंदी  समाचार पत्रकारिता के क्षेत्र में काफी तेजी आई है। साक्षरता बढ़ी है, सामाजिक स्तर पर राजनीतिक चेतना बढ़ी है।  

देश-देशांतर के समाचारों के साथ भाषा और साहित्य का संदेश भी दैनिक पत्रों द्वारा आसानी से जनता तक पहुंचा सकते हैं।आज प्रत्येक श्रेणी की जनता बड़ी लगन और उत्सुकता से दैनिक पत्रों को पढ़ती है। लेकिन बदलते परिवेश में सबकुछ उलट-पलट हो चला है। पत्रकारिता मिशन नहीं व्यवसाय हो गया है। समय के साथ-साथ पत्रकारों के उद्देश्य, मतलब भी बदलते रहे और कलम कुछ ऐसे व्यक्तियों के पास भी पहुंची जिन्होंने केवल स्वार्थसिद्धि, भ्रष्टाचारियों की तरह कलम का उपयोग कर पत्रकारिता जगत में अपने ऐबो हुनर को दर्शाया। वे स्वार्थसिद्धि की खातिर कलम के साथ न्याय व तालमेल नहीं बैठा सके। यही खास वजह है समाज के लोक निर्माण का यह महत्वपूर्ण स्तम्भ भरभराने की कगार पर है। आज कलम कुछ ऐसे हाथों में भी पहुंच गयी है जिन्हें पत्रकारिता से कुछ लेना-देना नहीं। अवैध कारोबार कर वे कलम को अपना सुरक्षा कवच बनाये हैं। बहुत से तथाकथित पत्रकारों ने पत्रकारिता जैसे इज्जतदार पेशे की बदनामी करके रख दी है।  कुछ चैनल और अखबार ऐसे हाथों में पहुंच चुके हैं जिनका कलम से कोई लेना-देना नहीं। यही समस्यायें आज पत्रकारों के बीच दरारें पैदा कर रही हैं।आज पत्रकारिता एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसमें यह राजनीतिक दलों का हाथों की कठपुतली बनी हुई है प्रत्येक राजनीतिक दल  का अपना एक ख़ास पत्रकारिता का गुट है। आज कल के डिज़ाइनर पत्रकार अपने प्यारे राजनेता के हितों के लिए अपने साथी पत्रकार के हितों का जरा भी ख्याल नहीं रखते है, इससे बड़ी बिडंबना और क्यां हो सकती है।

ताज्जुब तो इस बात से होती है कि जब जाने-माने पत्रकार अपने प्राइम टाइम में देशहित के मुद्दों को छोड़ कर एक दूसरे पर आरोप – प्रत्यारोप लगाते है ऐसा लगता है कि ये पत्रकार नहीं किसी राजनीतिक पार्टी के प्रवक्ता हो । आज पत्रकारिता की गंगा गंगोत्री से ही मैली हो रही है, सफाई की शुरुआत भी वहीं से करनी होगी लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? लोग पत्रकार क्यों बनते हैं-जन सेवा के लिए या फिर जैसे-तैसे पैसा कमाने के लिए। माना पत्रकारिता अब मिशन नहीं रहा, लेकिन इसको मिशन बनाया जा सकता है। पत्रकारिता का एक दौर वो भी था जिसमें पत्रकारों को पत्रकारिता जगत के लिए शहीद भी होना पड़ा परन्तु इन कलम के रखवालों ने अपनी कलम की रोशनी को कम नहीं होने दिया लेकिन समय बदलते ही कलम की रोशनी पर भी तेज आंच आयी जो आज भी बदस्तूर जारी है…….           

  -Shashi Shekhar