पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
‘कौडागिल’ (मद्रास) के तत्कालीन सत्र न्यायाधीश श्री के. एम. संजीवैया की अदालत में एक चोरी का मुकदमा प्रस्तुत हुआ। सरकारी वकील ने न्यायालय में आवेदन पत्र प्रस्तुत करते हुए आपत्ति की कि मुकदमा दूसरे न्यायालय में ट्रांसफर किया जाना चाहिए। आपत्ति का आधार था कि अभियुक्त माननीय न्यायाधीश महोदय का पुत्र है इसलिए न्याय में पक्षपात की संभावना है । न्यायाधीश के. एम. संजीवैया ने तर्क प्रस्तुत किया कि यदि निर्णय संतोषजनक व निष्पक्ष न हो तभी ऐसा किया जाना उचित है। जज महोदय के लिए यह परीक्षा की अवधि। एक ओर पुत्र का मोह, दूसरी ओर न्याय की रक्षा का गुरुत्तर दायित्व। पत्नी एवं सगे संबंधियों का दबाव अतिरिक्त रूप से न्याय से विचलित होने के लिए पड़ रहा था। पर दबाव और पुत्र के मोह पर उन्होंने विजय पायी। सभी साक्ष्यों, प्रमाणों एवं गवाहियों से यह स्पष्ट हो गया कि पुत्र ने चोरी की है। श्री के. एम. संजीवैया ने अपराधी पुत्र को दो वर्ष का सश्रम कारावास का फैसला सुनाया। कुटुंबियों ने जब उलाहना दिया तो उन्होंने यह कहा कि “”पिता के रूप में मेरी अभियुक्त से गहरी सहानुभूति है। पर न्याय की रक्षा पुत्र प्रेम की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण है। कानून की नजर में अपने पराए के बीच कोई भेदभाव नहीं होता ।””