प्रेम-विवाह

गीता झा 

चैत मास की पूर्णिमा की रात्रि के दूसरे पहर, जब उसने इस नश्वर संसार में पहली बार अपनी आखें खोली, तो लोगों को अपने इर्द-गिर्द नाचते- गाते ,उत्सव मानते देखा.लोग उसके माता- पिता को हार्दिक बधाई दे रहे थे.स्त्रियाँ मंगल- गीत गा रही थीं, नाना प्रकार के ढोल मंजीरे बज रहे थे. इसी कोलाहल के बीच उस नवजात शिशु ने न जाने कब आकाश में स्थित, उस दुधिया चाँद का मौन अभिनंद स्वीकार कर लिया….. कोई भी नहीं जान पाया?

बाल्यकाल में ही वह एक शांत प्रवृति का बालक था.बाल सुलभ चपलता उसमें नहीं थी.खाने पीने के मामले में भी उसे दूध,मिठाई,मेवे आदि रुचिकर नहीं थे,लेकिन आँगन में पड़ी धूल को वह अत्यंत आनंदित होकर फाँकता था. परिणाम स्वरुप उसे अपनी माँ की प्यार भरी धौल का सामना भी करना पड़ जाता था.अपने ऊपर हुए इन मृदुल अत्याचारों की फ़रियाद वो रात में आसमान में निकल आये उन असंख्य तारों से अवश्य करता था.

बाल्यावस्था में उसके माता पिता ने अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए उसका दाखिला एक विद्यालय में करवा दिया. विद्यालय जाते समय वह राह में वृक्षों की कतारों को मंत्रमुग्ध होकर देखता था…..झरने के कल-कल स्वर को सुन कर उसका हृदय वीणा की भांति झंकृत हो जाता था….रंग -बिरंगे पुष्पों से लदी हुई डालियों को देख कर वह रोमांचित हो जाता था…..रास्ते भर वह प्रकृति की विभिन्न विधाओं को अपने मस्तिष्क की मञ्जूषा में सहेज कर रखता जाता था.

विद्यालय उसे कैद -खाने से कम प्रतीत नहीं होता था. किसी तरह पढ़ने के बाद वह ना जाने किस सम्मोहन से खिंच कर समुन्द्र के पास जाकर खड़ा हो जाता था ……और बेसुध सा समुन्द्र की अनगिनत लहरों को गिनने का प्रयास करता …….वर्षा ऋतु में मिट्टी की सौंधी सुगंध से वह सिहर उढ़ता था…..आकाश में उमड़ आए बादलों से वह विभिन्न रूप बनता था…….इन्द्रधनुष के सतरंगी रंगों को निहारते हुए उसने यौवन में कदम रखा.

अब वह प्रकृति का सजीव चित्रण अपनी चित्रकारी में कर लेता था.उसे भौतिक वस्तुयों से किंचित भी लगाव नहीं था…..ना ही किसी व्यक्ति से…..उसे लगाव था तो केवल प्रकृति से…..वह एक प्रकृति-प्रेमी था.


माता- पिता ने अपने युवा बेटे को विवाह करने का परामर्श दिया. वह अक्सर एकांत में बैठ कर सोचता की…. क्या प्रेम केवल मानव या अन्य किसी प्राणी से ही किया जा सकता हैं?…..क्या यह पेड़-पौधे ,पृथ्वी,आकाश समुन्द्र उससे विवाह नहीं कर सकते हैं?.

पूर्णिमा की रात ,वह अपने माता -पिता और अन्य लोगों के तानें सुन कर घर से बाहर निकल पड़ा …..समुन्द्र से विवाह करने ……विवाह की सारी साजों- सामाग्रिः ले कर.

समुन्द्र तट पर खड़े होकर उसने समुन्द्र की मौन स्वीकृति ली.

पूर्णिमा की रात्रि , चंद्रमा धीरे-धीरे आगे बड़ने लगा…. और समुन्द्र में ज्वार- भाटा उठाने लगा…….पानी उसकी टांगो तक आ गया.विधिवत मन्त्रों का उच्चारण करते हुए ……असंख्य तारों को साक्षी मान कर उसने समुन्द्र को वरमाला पहनाई…….चन्द्रमा मौन होकर आगे बढ़ाते गया ……..और पानी उसकी कमर तक आ गया.

परन्तु वह तो प्रकृति के प्रेम में पागल था…..उसे सुध कहाँ थी? ….वह पूरे ज़ोर- शोर से मन्त्रों का उच्चारण करता रहा……पानी उसके गले तक आ गया.

विवाह की अंतिम रस्म ……..सिंदूरदान……और चन्द्रमा उसके शीर्ष पर पहुँच गया……..एक बड़ी सी लहर आई …….और वह समुन्द्र के आगोश में समां गया……समुन्द्र ने उसे स्वीकार कर लिया.

कुछ समय पश्चात ज्वार भाटा शांत हुआ………उसका नामोनिशान मिट चूका था………..परन्तु वह अपने प्रेम -विवाह का प्रमाणपत्र छोड़ गया था.