मन लीला

मधुरीता 


मन को यदि मयूरी लैला बहुरूपा नाम से व्यक्त करें तो ये अतिश्योक्ति न होगी। मन स्वतंत्र विचारों का वो समूह है जिसका अपना आकार प्रकार तो होता नहीं, अपने ही संस्कार से जिस विचारों को व्यक्त करना हो वह उसी परिस्तिथि की खोज कर लेता  है और माया रच कर हमारी बुद्धि विवेक को पंगु बना देता है। हम लाचार हो मन के आधीन सही गलत कार्य  मैं लगे रहते हैं।

मन को माया के आगे पीछे किसी बातों का ख्याल नहीं रहता । मन अपने ढंग से समझा कर अपना काम निकाल ही लेता है। बच्चों को ही देखिये कंप्यूटर देखना हो या कोई खिलौना चाहिए , कितनी ही चतुराई से अपना काम निकालने के लिए ऐसे शब्दों का जाल बुनते हैं जिसमे मोह वश माता-पिता उनकी बातें मानने को विवश हो जाते  हैं। बच्चों का प्रमुख कर्त्तव्य है पढाई करना है । लेकिन मन माया के आधीन हो उतना ध्यान नहीं दे पाते हैं जितना उन्हें देना चाहिए।

अब बारी आती है जीवन की मल्लिका का समय – इसमें हम पावर हासिल कर लेते हैं। कोई हमें कुछ समझाता है तो उसे अनसुना कर देते हैं। मन की बातो पर चलने की इतनी आदत सी बन जाती है,  हम इतना डूब जातें हैं कि मन को ही सर्वोपरि मान लेते हैं। इस प्रकार मन हमें मशीन की तरह वही काम करवाता है जो हमें मन आदेश देता है। नैतिक मूल्यों का हनन इसी समय आधिक होते देखा गया है।

जब हम इस मन को थोडा धोखा दे कर जीवन को आनंद की ओर ले जाने का प्रयत्न करते हैं  तो मन बगावत कर बैठता है। और भजन ध्यान शुभ कर्म से हमें विमुख कर अपनी ही जी हुजूरी मैं लगे रहने को कहता है। इसी द्वन्द मैं जीवन निकल रहा है और अफ़सोस ही हाथ लगता है। जब तक न जानो तो ये माया है और जान लो तो ये आनंद है।