खेलों का एक और महाकुम्भ 27 जुलाई से लंदन में शुरू होने जा रहा है इसका आयोजन 12 अगस्त 2012 तक चलेगा। लंदन में आयोजित होने वाले 30वें ओलिम्पिक का उदघाटन आधिकारिक रूप से महारानी एलजाबेथ II व राजकुमार फिलिप करेंगें। इस बार ओलिम्पिक में लगभग 200 देशों के खिलाड़ियों द्वारा कुल 36 खेलों में हिस्सा लेने की संभावना जताई जा रही है। ये खिलाड़ी अपने-अपने देश का गौरव बढ़ाने के लिए पदक पाने के लिए एडी से चोटी तक ज़ोर लगाने में जुटे हैं। और मात्र दस हजार वाले देश भी पदक तालिका में सम्मानजनक स्थान बनाने में कामयाब हो जाते हैं। लेकिन इंडिया को एक-दो पदक जुटाने के लिए भी जूझना पड़ता है।
जहां तक भारत द्वारा ओलिम्पिक खेलों में प्रदर्शन की बात करें तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले उक्त आयोजन में कोई उल्लेखनीय सफलता हासिल नहीं की है। यदि हम भारत द्वारा ओलिम्पिक खेलों में भागीदारी के इतिहास पर प्रकाश डालें तो पेरिस में आयोजित हुए सन 1900 में प्रथम बार हिस्सा लिया। इसमें धावक नॉर्मन प्रिचार्ड को दो रजत पदक जीतने में कामयाबी मिली। इसके बाद भारतीय होकी टीम ने सन 1928 से सन 1956 तक लगातार छ: बार स्वर्ण पदक जीतकर एक इतिहास रच डाला। भारत द्वारा 112 वर्षों के ओलिम्पिक खेलों में मात्र 20 पदक जुटाने में कामयाब हुआ हैं, जिनमें ग्यारह पदक हॉकी में तथा 9 व्यक्तिगत रूप से अर्जित पदक है जबकि सन 2008 में मात्र पहली बार शूटर अभिनव बिंद्रा ने स्वर्ण पदक जीता, यह भारत द्वारा ओलिम्पिक खेलों में एक एतिहासिक क्षण था क्योंकि किसी भारतीय खिलाड़ी ने व्यतिगत ओलिम्पिक खेल प्रतियोगिता में पहली बार स्वर्ण पदक जीता। हालांकि बीजिंग ओलिम्पिक 2008 में, अपने उल्लेखनीय योगदान की बदौलत सुशील कुमार ने भी कुश्ती तथा विजेंदर सिंह ने मुक्केबाज़ी में कांस्य पदक जीते।
हमारे दिग्गज खिलाड़ी मात्र एक-दो पदक जुटाने में भी सफल नहीं हो पाते हैं। इस देश की विडम्बना ही कही जाएगी जहां देश की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित खेल प्रतियोगिताओं में लाज बचाने के लिए अथवा देश को पदक सूची में सम्मानजनक स्थान पाने के लिए कुछ गंभीर प्रयास क्यों नहीं किए जाते हैं। क्या सन 1927 में गठित भारतीय ओलिम्पिक संघ अथवा खेल मंत्रालय ने खेलों के उत्थान व सर्वांगीण विकास के कोई महत्वपूर्ण कदम उठाएँ हैं ताकि हिंदुस्तान के खिलाड़ियों द्वारा पदक तालिका में पदक जुटाने की संख्या में बढ़ोत्तरी की जा सके।
हिंदुस्तान में क्रिकेट के अलावा किसी और खेल की ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता है। वैसे क्रिकेट की लोकप्रियता 1983 में महान आलराउंडर कपिल देव की अगुवाई में वर्ल्ड क्रिकेट कप जीतने के बाद हुई और 2011 में एम. एस. धोनी की सेना ने पुनः जीत के बाद तो लोगो को दीवाना ही बना दिया। परिणामस्वरूप बीसीसीआई भी दुनिया का सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड बन गया। आईपीएल की आँधी ने युवाओंमें क्रिकेट के सिवा कुछ सूझता ही नहीं है।
हिंदुस्तान में खेलों की दिशा और दशा का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि देश की अन्य भागों की बात ही छोड़िए, राजधानी दिल्ली में भी खेल के मैदान उपलब्ध है ही नहीं। अधिकतर स्कूलों में भी खेल के मैदानों को बनवाने तथा रखरखाव के लिए उचित व्यवस्था पर अधिक ध्यान ही नहीं दिया जाता है। डीडीए द्वारा निर्मित स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में प्रवेश केवल सदस्यों अथवा ऊंची फीस देकर ही संभव हो पाता है। बिना किसी खेल की सही उम्दा ट्रेनिंग, खेल के मैदान एवं कोच के अभाव में कोई गली-कूचे में खेलकर क्या एक अच्छा खिलाड़ी बनने में कामयाब हो पाएगा।
खेलों को बढ़ावा देने के लिए कुछ विशेष योजनाएँ स्कूली (प्राथमिक) स्तर पर ही लागू की जानी चाहिए। इसमें खेल के मैदान, स्थानीय खेल कोच, पौष्टिक खाद्य सामग्री, आर्थिक सहायता, स्कोलरशिप तथा खेल विशेष में प्रसिद्ध खिलाड़ी से नियमित रूप से मुलाक़ात करना उभरती खिलाड़ी के लिए प्रोत्साहन करने में एक अहम भूमिका अदा करती है।
लेकिन हर बार की तरह, इस बार भी पदक तालिका में जगह बनाने के लिए हिंदुस्तान के खिलाड़ियों की क्षमता किसी से छुपी नहीं है। खिलाड़ियों में देश से ज्यादा अपनी व्यक्तिगत ईगो ज्यादा अहमियत रखती है। खिलाड़ियों, खेल संस्थाओं व खेल मन्त्राल्य में आपसी तालमेल ही नहीं है। देश की लाज बचाने तथा देश का नाम ऊंचा करने का जज्बा है ही नहीं। परन्तु क्या विश्व में आबादी के आधार पर नंबर दो पर आसीन भारत देश ने खेलों को शायद तवज्जो ही नहीं दी है। क्या हमें एशियाई देशों चीन, दक्षिण कोरिया, जापान से सबक नहीं लेना चाहिए जिन्होने थोड़े से ही समय के भीतर किस तरह से एशिया व ओलिम्पिक खेलों में उल्लेखनीय प्रदर्शन की बदौलत अपार सफलता हासिल की है। इस बार ओलिम्पिक खेलों में हिस्सा लेने वाले खिलाड़ी भारत की लाज बचाने में कामयाब होंगे यह तो आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन भारत द्वारा ओलिम्पिक खेलों के इतिहास के मुताबिक हमारे खिलाड़ियों ने कोई उल्लेखनीय प्रदर्शन नहीं दिखाया है। अब देखना यह है कि इस बार हमारे खिलाड़ी कितने पदक जुटाने तथा तिरंगे की शान बढ़ाने में कामयाब हो पाते हैं। वास्तव में सवाल यह है कि ओलिम्पिक खेलों में खराब प्रदर्शन लिए कौन जिम्मेदार है? सरकार, खेल मन्त्राल्य, हमारा अनियोजित ढांचा अथवा खेलों के प्रति उदासीन रवैया।