अनन्य भक्ति

मधुरीता  

भगवान कहते है कि हे – अर्जुन तुमने मेरा जैसा शंख चक्र गदा पद्मधारी चतुर्भुज रूप देखा वैसा रूप वाला मै यज्ञ दान तप आदि के द्वारा नहीं देखा जा सकता प्रयुक्त अनन्य भक्ति के द्वारा ही देखा जा सकता है |

अनन्य भक्ति का अर्थ है – केवल भगवान का ही आश्रय हो आशा हो , विश्वास हो भगवान के सिवाय किसी योग्यता बल बुद्धि आदि का किंचित मात्र भी सहारा न हो इनका अंतकरण में किंचित मात्र भी महत्व न हो |

यह अनन्य भक्ति स्वयं से ही होती है , मन , बुद्धि इन्द्रियों आदि के द्वारा नहीं | तात्पर्य है कि केवल स्वयं की व्याकुलतापूर्वक उत्कंठा हो भगवान के दर्शन बिना एक क्षण भी चैन न पड़े | ऐसी जो भीतर में स्वयं की बेचैनी है वही भगवत् प्राप्ति में खास कारण है | इस बेचैनी में व्याकुलता में अनंत जन्मों के अनंत पाप भस्म हो जाते हैं |

ऐसी अनन्य भक्ति वालों के लिए ही भगवान् ने कहा है- जो अनन्यचित्त वाला भक्त नित्य-निरंतर मेरा चिंतन करता है, उसके लिए मैं सुलभ हूँ और जो अनन्य भक्त मेरा चिंतन केते हुए उपासना करते हैं, उसका योग-क्षेम मैं वहां करता हूँ |

अनन्य भक्ति का दूसरा तात्पर्य यह है की अपने में भजन-स्मरण करने का, साधन करने का उत्कंठापूर्वक पुकारने का जो कुछ सहारा है वह सहारा किंचिन्मात्र भी न हो | फिर साधन किसके लिए करना है ? केवल अपना अभिमान मिटाने के लिए | अर्थात अपने में जो साधन करने का बल का मान होता है, कि साधन के बल पर मैं अपना उद्धार कर लूंगा, उसको मिटाने के लिए साधन करना है |

तात्पर्य है की भगवान् की प्राप्ति साधन करने से नहीं होती प्रत्युत साधन का अभिमान गलाने से होती है | साधन का अभिमान जल जाने से साधक पर भगवान् की शुद्ध कृपा असर करती है अर्थात उस कृपा के आने में कोई आड़ नहीं रहती और (उस कृपा से) भगवान् की प्राप्ति हो जाती है |

ऐसी अनन्य भक्ति से ही मैं तत्व से जाना जा सकता हूँ | अनन्य भक्ति से मैं देखा जा सकता हूँ और अनन्य भक्ति से ही मैं प्राप्त किया जा सकता हूँ |

ज्ञान के द्वारा भी भगवान् तत्त्व से जाने जा सकते हैं और प्राप्त किये जा सकते हैं | ज्ञातुम कहने का तात्पर्य है कि मैं जैसा हूँ वैसा जानने में आ जाता हूँ | जानने में आने का यह अर्थ नहीं की मैं उसकी बुद्धि के अंतर्गत आ जाता हूँ प्रत्युत उसके जानने की शक्ति मेरे से परिपूर्ण हो जाती है | तात्पर्य है की वह मेरे को वासुदेवः सर्वं और सद्सच्चाहम् इस तरह वास्तविक तत्व से जान लेता है |

मैं भगवान् का अंश हूँ इस वास्तविकता का अनुभव हो जाता है तब उसका भगवान् में प्रेम जागृत होता है | प्रेम जागृत होने पर राग का अत्यंत अभाव हो जाता है |

तत्व से जानना, दर्शन करना और प्राप्त होना, यह तीनों बातें आ जाती हैं | तात्पर्य है की जिस उद्देश्य से मनुष्य जन्म हुआ है, वह उद्देश्य सर्वथा पूर्ण हो जाता है | जिस किसी वस्तु, व्यक्ति, आदि में जो विशेषता, महत्ता, विलक्षणता, अलौकिकता दिखे और उसमें मन चला जाए, उस विशेषता आदि को भगवान् का ही मान कर वहां पर भगवान् का ही चिन्तन करना चाहिए |

साधक चिन्तन करे तो परमात्मा का ही चिन्तन करे और जिस किसी को देखे तो उसको परमार्थ स्वरुप ही देखे |