आस्था का स्वरूप

डॉ सरोज व्यास 
प्रधानाचार्य, इंदरप्रस्थ विश्व विद्यालय, दिल्ली

बचपन से ही संपत का मन पूजा-पाठ, आरती-स्तुति में नहीं लगता था I माता-पिता की दृष्टि में भी वह आस्तिक नहीं थी, क्योकिं उसके बाल मन में सदैव नई शरारती योजनायें बनती रहती थीं | वैसे भगवान से कभी-कभी वह दोस्ती भी कर लेती थी और उसे उनसे प्रेम हो जाता था , कारण स्पष्ट था उनके नाम पर मिलने वाले लड्डू-पेडे और बूंदी का प्रसाद संपत को बेहद पसंद था, व्रत-उपवास करने के पीछे भी यही लालच उसे धार्मिक कन्या बना देता था I आज के दो दशक पूर्व तक सीमित आय के संसाधन होने के कारण भौतिक सुविधाएं भी सीमित थी | संयुक्त परिवारों में व्रत करने वालों और न करने वालों के भोजन में भी फर्क किया जाता था | धर्मानुचारियों और भगवान के लिये दो समय के स्थान पर एक समय भरपेट भोजन करने वालों के लिए विशेष-स्वादिष्ट भोजन की व्यवस्था करते समय शुद्धता एवं पौष्टिकता का विशेष ध्यान रखा जाता था | मिष्ठान का होना भी अतिआवश्यक समझा जाता था, ऐसे में कभी-कभी संपत भी माता- पिता को प्रसन्न करने हेतु लालच वश घर में बने मंदिर और यदा- कदा घर से बाहर मंदिरों में दर्शन-पूजा के लिए चली जाती थी, उपवास भी इसी उद्देश्य से किया जाता था |

धीरे-धीरे युवा होती संपत ने स्तुति आराधना के नाम पर हनुमान चालीसा, गणेश-स्तुति, गायत्री मंत्र, शिव मंत्र याद कर लिये , माता-पिता दोनों ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे | घर में सदैव पूजा-पाठ का आयोजन होता रहता था | संपत भगवान का स्मरण केवल भय के समय ही करती थी , और वह भी माता-पिता के संस्कार तथा दी गई शिक्षा के कारण | माँ ने ही उसे बताया था कि जब भी तुम्हारे सामने कोई संकट उपस्थित हो, और तुम भयभीत हो तो हनुमान चालीसा पढ़ लेना | बस इसी क्रम में उसे बचपन में ही हनुमान चालीसा कंठस्थ हो गया I वैसे उसे भय दो ही चीजों से लगता था – एक अंधेरे से और दूसरा भूखे रहने से, क्योकि माँ जब उसकी शरारतों से तंग आ जाती थी तो गुस्से में कुछ समय के लिए उसे खाना नहीं देती थी I ऐसे समय में ही उसे भगवान याद आते थे I संपत की एक बात बड़ी अच्छी थी , वह माता-पिता द्वारा दिए गये ज्ञान को आत्मसात अवश्य कर लेती थी।

माँ ने ही सिखाया था की भोजन जूठा नहीं छोड़ते , किसी की आलोचना नहीं करनी चाहिए , स्वयं से कमजोर प्राणी पर शासन करना अपराध है , समय और स्थान के अनुसार सामंजस्य ही समझदारी है , कभी किसी से तुलना नहीं करनी चाहिये और त्याग से बड़ा कोई तप नहीं है I उस समय इन बातों के गूढ-रहस्य की समझ और विवेक दोनों ही संपत के पास नहीं थी , बस एक बात, जो उसके जहन में घर कर गई वह थी कि, ऐसे लोग ही महान होते है I महानता का अर्थ तो उस नादान को आज भी समझ में नहीं आया है ,लेकिन महान होना था , अत माँ की कही बातों को जीवन में उतार लिया।

शादी के उपरान्त भी संपत में कोई विशेष परिवर्तन धर्म के संदर्भ में नहीं आया , शिक्षित मध्यम-वर्गीय परिवारों में धर्म का एक अन्य स्वरूप कर्म भी होता है I पति शिव अवश्य प्रतिदिन भगवान का स्मरण करते थे , संपत ने भी प्रयास किया , किन्तु इच्छा-शक्ति के अभाव के कारण अधिक दिनों तक आडम्बर नहीं कर पाई I यदा-कदा शिव ने अप्रत्यक्ष रूप से समझाने का प्रयत्न भी किया ,लेकिन कभी भी स्वेच्छा थोपी नहीं I संपत का हाल अब भी वही है, जरूरत के समय भगवान से भी भीड़ जाने का अदभुत साहस वह जुटा लेती है I अचानक कुछ दिनों से संपत ने नियमित पूजा आरम्भ कर दी I पति के लिये आश्चर्य किन्तु विलक्षण सत्य था , “वें न कल की नास्तिक और न आज की आस्तिक” संपत के व्यवहार से अचंभित है , क्योकि उनसे अधिक उसे समझने का सामर्थ्य किसी अन्य में नहीं है।

उसका मन विचलित और चित्त अशांत है , स्वयं की बुद्धि और विवेक पर संदेह है I भाव और विचार शून्य होकर निराकार सोच में दिग्भ्रमित है I बाल-मन पर अंकित बाल-स्मृतियों की प्रकृति भी उस कच्ची मिट्टी की भांति होती है , जिन्हें आकर देकर पकाने के उपरांत पुन उसी रूप में परिवर्तित किया जाना असंभव है I आज जब समाज में, धर्म के अनुनायियों , शास्त्रों के अध्येताओं , संस्कृति के संरक्षकों , मठाधीशों , आचार्यों और परम्पराओं के हस्तानांतरण-कर्ताओ को जब संपत ने “परिस्तिथियों का दास” बनते देखा तो असमंजस में है I क्या सही है और क्या गलत ? शास्त्रों में वर्णित उपदेशों की उपयोगिता अध्ययन के लिये है अथवा माँ की शिक्षा की भांति आचरण योग्य I शिव से अपने मन की व्यथा बाँटते समय भी संपत के मन-मस्तिष्क में बार-बार यही प्रश्न गूंज रहा है की वह आस्तिक है या नास्तिक ?