मिथ्या भ्रांति

डॉ सरोज व्यास
प्रधानाचार्य,
इंदरप्रस्थ विश्व विद्यालय, दिल्ली


“आत्म-संयम एव धैर्य के द्वारा बड़ी से बड़ी जंग जीती जा सकती है” | पुस्तकों में लिखे इस वाक्य की सार्थकता और अग्रजों के मुखारविंद से निकले इन शब्दों की सत्यता को आज स्वीकार कर रही हूँ | अपने व्यवहार में आये अभूतपूर्व परिवर्तन से अभिभूत हूँ किन्तु विचारों की अभिव्यक्ति पर विराम लगा लेने में असमर्थ | कबीर, रहीम, रसखान और सूरदास के दोहों को बचपन से लेकर जवानी तक पढ़ने और रटने के पीछे, केवल परीक्षाओं में पास होने की गरज मेरी ही नहीं, अपितु प्रत्येक साधारण बुद्धिलब्धि वाले प्राणी की होती है | बचपन में श्लोकों, लोकोक्तियों, मुहावरों और दोहों के भीतर व्याप्त जीवन के यथार्थ को पहचानने की क्षमता काश ! रही होती तो आज हम भी इतिहास के पन्नों के लिए कुछ सुनहरे शब्द लिखने का साहस करते | जीवन का सम्पूर्ण सार हमारे साहित्य में छिपा है, सुनने से अधिक आवश्यक है, समझना और उससे श्रेष्ठ उसे गुणना (सार समझना) | लेखन का उद्देश्य मात्र प्रिय पाठकों को समय रहते शब्दों और वाक्यों में व्याप्त भावार्थ को समझाने का प्रयास है, किसी पर कटाक्ष अथवा आक्षेप की मंशा नहीं |

गत एक सप्ताह में आज तीसरी बार यामिनी को आहत करके, उत्तेजित किये जाने का प्रयास किया गया था | कहना जल्दबाजी होगा की यह सब किसी हताशा, निराशा या असुरक्षा के भय वश: किया जा रहा था, क्योंकि इस तथ्य की पुष्टि हेतु कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है | फिर कारण क्या हो सकता है ? इस प्रश्न को सुलझाना अनिवार्य है, अन्यथा लोगों में भ्रांतियां घर कर लेंगी और स्थाई विचारधाराओं को बदल पाना “लोहे के चने चबाने” जैसा है |

आपका क्या, आप तो कही भी “टांग अड़ा” लेती है, सुमेधा के मुख से अपने लिए यह सुनना यामिनी के लिए अचंभित कर देने वाला सत्य था | एक पल को उसे लगा सुमेधा सीमा का उल्लंघन कर रही है और उसका अपमान करने की इच्छा से ऐसा कहा गया है किन्तु तत्क्षण उसने स्वयं को संभाल लिया | मुस्कुरा कर अपने कक्ष में चली आई एवं विचारों को झटकते हुए अपने कार्य में व्यस्त हो गई | कुछ घंटे ही व्यतीत हुए थे कि बड़े साहब का बुलावा आ गया, उसने खाने का निवाला मुंह में डाला ही था, ज्यों का त्यों छोड़ कर लगभग दौड़ते हुए साहब के समक्ष उपस्थित हो गई | जी ! आपने बुलाया, कह कर आदेश की प्रतीक्षा करने लगी | कुछ अनिवार्य निर्देशों के साथ कार्य बताते हुए, साहब ने पहले से वहाँ पर उपस्थित सुमेधा की ओर मुख़ातिब होते हुए कहा – “इनके पास भी एक सूची उसे भी आप देख लीजिये” | सुमेधा अपने सहयोगी के साथ काफी समय से उस प्रोजेक्ट पर कार्य कर रही थी, उसकी मन-स्थिति का आंकलन संभव नहीं था, लेकिन यामिनी मुस्कुराते हुए धीरे से बोल पड़ी – “टाँग मैंने नहीं अड़ाई, अड़ाने का आदेश है” |

सुमेधा झेंप गई, खिसियानी हंसी हंसते हुए कहने लगी – मजाक था वह, आप बुरा मान गई क्या ? आप अग्रजा है, अधिकार पूर्वक आपसे हास्य कर लिया, अन्यथा नहीं लीजिये प्लीज़ ! “तरकश से निकला तीर और मुख से निकल शब्दों की यदि वापसी हो पाती तो इतिहास में महाभारत् न हुई होती’ |

कार्यालय में आगामी योजनाओं की रुपरेखा पर सरसरी दृष्टि डाल कर कार्य प्रगति की जानकारी प्राप्त कर चुकी यामिनी का मन कुछ लिखने को व्याकुल था | बिना किसी व्यवधान के अपने कक्ष में विचारों से शब्दों की माला पिरोने में वह मग्न थी, तभी अचानक सहयोगी कक्ष से आते उच्च स्वर और बीच-बीच में लगाये जाने वाले ठहाकों से उसकी एकाग्रता भंग हो गई | वह उठकर बाहर गई, कुछ क्षण इस प्रतीक्षा में, शांत भाव से खड़ी रही, कि शायद कुछ आवश्यक मंत्रणा चल रही है, लेकिन अर्थहीन अनावश्यक चर्चा को सुनने का धैर्य 5 मिनिट से अधिक वह नहीं जुटा पाई | वार्ता को भंग करने के उद्देश्य से परोक्ष रूप से उसने एक सहयोगी से पूछ लिया –“क्या मिल गया आपको ? कुछ विशेष है तो मुझे भी आना चाहिए ना” ? इतना कहकर उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना वह अपने कक्ष में पुनः लौट आई और फिर से लिखने का यत्न करने लगी किन्तु कुछ लोगों की प्रकृति ‘चिकने घड़े” जैसी होती है, स्थिति यथावत थी |

कुछ समय उपरांत यामिनी सहयोगी कक्ष में गई, वहाँ कार्यरत स्नेहा से उसने स्वकक्ष में आने का आग्रह किया | यामिनी के प्रत्येक कार्य के पीछे कोई न कोई उद्देश्य निहित होता है, यदपि यह सच स्नेहा से छुपा नहीं था तथापि उसने पूछा – “कोई अनिवार्य कार्य है क्या” ? हाँ एक लेख पर आपकी प्रतिक्रिया लेनी है, यदि किसी अति-आवश्यक कार्य में व्यस्त नहीं है तो कृपया आ जाइये, स्नेहा से अपेक्षित उत्तर –“जी आती हूँ”, सुनकर यामिनी वापस अपने कक्ष में लौट आई और स्नेहा की राह देखने लगी | इस बीच कई सहयोगी आये और चले गए परन्तु स्नेहा नहीं आई | यामिनी के लिए यह अनापेक्षित था, वह व्याकुल हो गई, तभी बाहर गलियारे में उसे स्नेहा की वरिष्ठ सहयोगी का स्वर सुनाई दिया | वह स्नेहा से कुछ कह रही थी, लेकिन चर्चा के केंद्र में यामिनी थी, मानव मन की कमजोरीयों से कौन अछूता रहा है, कान लगाकर वह भी ध्यानपूर्वक सुनने लगी ……………….

वरिष्ठा स्नेहा से कह रही थी –“वह तुमसे अधिक शिक्षित और अनुभवी हैं, उच्च अधिकारी पद पर आसीन हैं, तुम उसके कार्य की विवेचना करने के योग्य हो क्या ? और फिर विवेचना जैसा है क्या ? यदि वास्तव में वह तुमसे सहयोग लेती है तो शर्म की बात है | वरिष्ठ व्यक्ति कनिष्ठ से स्वकार्य का मूल्याङ्कन करवाये, यह व्यवहारिक एवं उचित नहीं | यदि वास्तव में तुम्हारी योग्यता और बुद्धिलब्धि इस स्तर की है तो तुम्हेँ सम्बंधित विभाग में चले जाना चाहिये, यहाँ क्या कर रही हो ? वैसे उनके कार्य का विश्लेषण कैसे संभव है ? विश्लेषण, विवेचना और मूल्याङ्कन मौलिक कार्यों का किया जाता है, मैंने पढ़े है उसके लेख, इधर-उधर से काट-छांट करके लिखने वालों की रचनाओं पर कोई क्या टिप्पणी देगा”? इससे अधिक सुनने का धैर्य शायद यामिनी में नहीं था और शायद कुछ कहने को वरिष्ठा के पास शेष बचा भी नहीं था |

यामिनी आहत हुई, किन्तु विचलित और क्रोधित नहीं | वह स्नेहा के अपमान से दुःखी थी, आज उसके कारण स्नेहा की योग्यता पर प्रश्न चिन्ह लगाने का साहस किसी ने किया था, उसने स्नेहा से माफ़ी मांगी कि अकारण ही आप मेरी वजह से मोहरा बन गई, यदपि यामिनी को यह सुनकर बुरा लगा कि उनके लेखन कौशल पर आज अंगूली उठाने की अनाधिकार चेष्ठा किसी साक्षर द्वारा की गई है, किन्तु क्रोध अथवा द्वेष के भाव उसकी सोच से बाहर थे | वह बस सोच रही थी, पुस्तकों में प्रकाशित साहित्य सामग्री काट-छांट कर प्रकाशित किये गयें उपदेश नहीँ हो सकते, निर्विवाद यह जीवन का यथार्थ और अनुभवों का दुर्लभ संग्रह होते हैं |

समस्त घटना पर संक्षिप्त में बस मैं यही कह सकती हूँ कि – “क्षमा बडन को चाहिए, छोटन को उत्पात”, “तुलसी नर का क्या बड़ा, वक्त बड़ा बलवान, भीलन लूटे गोपियाँ वही अर्जुन वही बाण” | कुछ लोग दया के पात्र होते हैं, वे स्वयं नहीं जानते की उनकी परेशानी क्या है, ऐसे में उनकी कहीं बातोँ को दिल से नहीं लगाना चाहिए | कभी भी, किसी को तुच्छ समझने की भूल नहीं करनी चाहिए, क्योकि पद, आयु और अनुभव में वरिष्ठ से अधिक योग्य कनिष्ठ नहीं हो सकते यह मिथ्या भ्रांति है | महाभारत का दृष्टांत यदि याद किया जाए, उसमें स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान श्री कृष्ण ने दुर्योधन के छप्पन भोग की अपेक्षा विदुर के घर पर साधारण भोजन को स्वीकार किया | तलवार भले ही बड़ी और पैनी हो, काटने तक ही सीमित होती है, इसके विपरीत सूक्ष्म सुई चीरने के साथ सिलना भी जानती है | आलोचना का अधिकार सबको होना चाहिए, किन्तु उसका आधार तार्किक हो, यह आवश्यक है, अन्यथा अनर्गल प्रलाप से अधिक कुछ नहीं |