भगवान् की प्राप्ति

मधुरीता 

शरीर के साथ संबंध होने से यह जीव है और शरीर के साथ संबंध न होने से वह ब्रह्म् है अतः वास्तव में जीव और ब्रह्म् दोनों ही समग्र भगवान के अंश है |

भगवान् को जानने वाला मनुष्य की यह पहचान है की वह सब प्रकार से स्वत : भगवान् का ही भजन करता रहता है |

भगवान् ने अपनी प्राप्ति के छः उपाय बताये है –

१ संसार को तत्व से जानना |
२ संसार के माने हुए संबंधो का विच्छेद करके एक भगवान् के शरण होना |
३ अपने में स्थित परमात्मा को जानना |
४ वेदाध्ययन द्वारा तत्व को जानना |
५ भगवान् को पुरुषोतम जान कर सब प्रकार से उनका भजन करना |
६ संपूर्ण अध्याय के तत्व को जानना |

भगवान् को देखने की जानने की इच्छा होना ही वास्तव में मनुष्य की श्रेष्ठता है | जितने भी कर्म किये जाते है उन सबका आरम्भ और समाप्ति होती है अतः उन कर्मो से मिलने वाला फल भी आदि और अंत वाला ही होता है | अतः ऐसे कर्मो से भगवान् के अनंत असीम अन्यय दिव्य स्वरूप के दर्शन कैसे हो सकते है ? उनके दर्शन तो केवल भगवान् की कृपा से ही होते है – कारण की भगवान् नित्य है और उनकी कृपा भी नित्य है |

यह एक सिद्धांत की बात है की जो चीज किसी मूल्य से खरीदी जाति है वह चीज उस मूल्य से कम मूल्य की ही होती है |जैसे कोई दुकानदार एक घड़ी सौ रूपये में बेचता है तो उसने वह घड़ी कम मूल्य में ली है | तभी तो वह सौ रूपये में देता है | इसी तरह अनेक वेदों का अध्ययन करने पर बहुत बड़ी तपस्या करने पर बहुत , बड़ा दान देने पर तथा बहुत बड़ा यज्ञ अनुष्ठान करने पर भगवान् मिल जायगे ऐसी बात नहीं है |

कितनी ही महान् क्रिया क्यों न हो कितनी ही योग्यता सम्पन्न क्यों न की जाए उसके द्वारा भगवान् खरीदे नहीं जा सकते | वे सब के सब मिलकर भी भगवत्प्राप्ति का मूल्य नहीं हो सकते | उनके द्वारा भगवान् पर अधिकार नहीं जमाया जा सकता | त्रिलोकी में आपके सामान भी कोई नहीं है फिर आपसे अधिक हो ही केसे सकता है ? तात्पर्य है की आपसे अधिक हुए बिना आप पर अधिकार नहीं किया जा सकता |

संसारिक चीजों में तो अधिक योग्यता वाला कम योग्यता वाले पर अधिपत्य कर सकता है, अधिक बुद्दिमान कम बुद्धिमान वालों पर अपना रोब जमा सकता है और अधिक धनवान निर्धर्नो पर अपनी अधिकता प्रकट कर सकता है |

राग-द्वेष रहित अहम् भाव त्याग कर अपने आपको भगवान् के सवर्था समर्पित करके अनन्यभाव से भगवान् पुकारता है तब भगवान् तात्काल प्रकट हो जाते है | कारण की जब तक मनुष्य के अन्त: करण में प्राकृत वस्तु, योग्यता, बल, बुद्धि आदि का महत्व और सहारा रहता है तब तक भगवान् अत्यंत नज़दीक होने पर भी दूर दीखते है |

भगवान् के साथ सहज स्नेह में कोई मिलावट न हो अर्थात कुछ भी चाहना न हो | जहा कुछ भी चाहना हो जाए वहाँ प्रेम केसा ? वहां तो आसक्ति-वासना और मोह-ममता ही होते है |

भगवान से पुराना कोई नहीं क्योंकि वे कालातीत है |

साधक को भगवत्प्राप्ति में देरी होने का कारण यही है कि वह भगवान् के वियोग को सहन कर रहा है | यदि उसको भगवान् का वियोग असहनीय हो जाए तो भगवान् को मिलने में देरी नहीं लगेगी |