रमाबाई अम्बेडकर – बाबा साहेब को महापुरुष बनाने वाली महानायिका !

पिछले महीने करोड़ों दलित समाज के भाईओं बहनों ने डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर जी का 133वां जन्म दिवस मनाया है, बाबा साहेब के नाम से लोकप्रिय, वह भारतीय विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और महान समाज सुधारक बड़े क्रन्तिकारी नेता थे। उन्होंने दलित बौद्ध आंदोलन को प्रेरित किया और दलितों के ख़िलाफ़ सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध एक प्रभावशाली अभियान चलाया और कॉफ़ी  हद तक उन्हें इस कार्य में  सफ़लता भी हासिल हुई । उन्होंने पुरज़ोर तरीके से श्रमिकों और महिलाओं के अधिकारों का समर्थन किया । भारत के मसीहा, महिलाओं को समानता का अधिकार दिलाने वाले, मानव जाति का उत्थान करने वाले, दलितों, शोषितों और वंचितों को अधिकार दिलाने हेतु इस महापुरुष ने नौकरी करने वाली महिलाओं को प्रसूति अवकाश दिलाने में बहुत बड़ी वकालत की थी ! इतना ही नहीं, पहली अप्रैल, 1935 को रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया की स्थापना भी उनकी लिखी हुई  पुस्तक  “The Problem of the Rupee – Its Origin and It’s Solution.”  के आधार पर ही की गई थी !  बाबा साहेब विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के निर्माण कर्ता, भारतीय संविधान के प्रमुख शिल्पकार भी बने और बाद में वे स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री भी । डॉ.अम्बेडकर अदभुत प्रतिभा के धनि थे। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की और ऐसी ख्याति प्राप्त करने वाले वह पहले और अबतक आख़िरी भारतीय हैं। उन्होंने विधि, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान के शोध कार्य में ख्याति प्राप्त की। जीवन के प्रारम्भिक करियर में वह अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर रहे और वकालत भी की। उनका बाद का जीवन राजनैतिक गतिविधियों में ज़्यादा बीता। फ़रवरी 1990 में, उन्हें भारत रत्न, भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से मरणोपरांत सम्मानित किया गया था, जब डॉ. वी पी सिंह देश के प्रधान मंत्री थे । ऐसे महान विद्वान व समाज सुधारक को हमारा लाख २ प्रणाम, क्योंकि आज पूरा दलित व शोषित और वंचित वर्ग का समाज जो भी चेतनता, शिक्षा, सुख – सुविधाओं और प्रगति की बुलंदियाँ छू रहा है,  वह सब उस महान क्रन्तिकारी संघर्ष कर्त्ता की बदौलत ही है और उनको अपने ज़माने के कांग्रेस के सभी बड़े २ नेताओं से समाज के उत्थान और कल्याण के लिए बहुत कड़ा संघर्ष करना पड़ा था ! डॉ. अम्बेडकर के साथ २ आज हम चर्चा करेंगे उस महान देवी की, जिसने बाबा साहेब के संघर्ष के दिनों में उनके साथ न केवल अत्यंत ही भीषम आर्थिक व समाजिक प्रस्थितियों का सामना किया, बल्कि बाबा साहेब के साथ हमेशा कन्धे से कन्धा मिलाकर चलती रही और उनकी कामयाबी में इस महान महिला का बहुत बड़ा तप त्याग और सहयोग भी रहा है ! 

ऐसा माना जाता है कि प्रत्येक महापुरुष की अपार सफ़लता के पीछे उससे सम्बंधित किसी नजदीकी महिला का बहुत बड़ा संघर्ष और योगदान होता है, फ़िर वह महिला भले ही उसकी माता, बहन या फ़िर जीवन-संगिनी ही क्यों ना हो । डॉ. अम्बेडकर के जीवन में उनकी माता भीमाबाई ने और उनकी पत्नी रमाबाई ने हज़ारों ऐसी कुर्बानियाँ दी जिनकी बेग़ैर डॉ. आंबेडकर वह ऊँचाईआं ना छू पाते जो बड़े २ मुकाम उन्होंने अपनी छोटी सी जिन्दगी में हासिल किये थे ! लेकिन आज हम केवल उनकी जीवन साथी रमाबाई के बारे में ही बात करेंगे, क्योंकि आज 27 मई को उनकी पुण्यतिथि है ! भारतीय महिलाओं की प्रेरणा स्रोत और त्यागमूर्ती माता रमाबाई आंबेडकर के उस त्याग और सहयोग के बिना डॉ. बाबा साहेब का इतना ऊँचा महापुरुष बनना आसान नहीं होता । रमाताई अम्बेडकर इसी त्याग और समर्पण की प्रतिमूर्ति थीं, जिसके आधार पर डॉ. अम्बेडकर देश के वंचित / शोषित समाज का इतना बड़ा उद्धार कर सकें | रमाबाई का जन्म महाराष्ट्र के दापोली के निकट वणंद गांव में 07 फरवरी, 1898 में हुआ था। इनके पिता का नाम भीकू धूत्रे (वणंदकर) और मां का नाम रुक्मणी था। वह एक रेलवे स्टेशन पर कुलीगिरी का काम करते थे और परिवार का पालन-पोषण बड़ी मुश्किल से ही कर पाते थे। रमाबाई के बचपन का नाम रामी था। बचपन में ही माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण रामी और उसके भाई-बहन अपने मामा और चाचा के साथ मुंबई आ गए , जहां वो लोग एक चाल में रहते थे। जैसा कि उन दिनों एक रिवाज़ परिचलित था कि लड़कियों की शादी बड़ी छोटी उम्र में ही कर देते थे , सो ऐसे ही रमाबाई की शादी भी बड़ी छोटी उम्र में ही – 12 मार्च  1906 को भीमराव अम्बेडकर के साथ कर दी गई थी ।

डॉ. अम्बेडकर अपनी पत्नी को प्यार से ‘रामू ‘ कहकर पुकारा करते थे, जबकि माता रमा जी बाबा साहब को “साहेब” ही कहती थी। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर जब अमरीका में थे, उस समय रमाबाई ने बहुत कठिन समय व्यतीत किया, तब भारत में रमाबाई को कई प्रकार की आर्थिक परेशानियाँ झेलनी पड़ीं , लेकिन उनकी कोशिश होती थी कि उनकी व्यक्तिगत और पारिवारिक परेशानियों की भनक डॉक्टर अम्बेडकर को न लगे, नहीं तो वह जिस संघर्ष में दिन रात लगे रहते थे, उसमें किसी प्रकार की वाधा आने से वह अक्सर डरती रहती थी । वह यह बात बड़ी अच्छी तरह जान चुकी थी कि बाबा साहेब केवल पढ़ने लिखने में ही बहुत अच्छे नहीं हैं , बल्कि उनके दिल में गरीबों के लिए और अपने बाकी समाज के लिए बहुत कुछ कर गुजरने की तमन्ना रखते थे और वह इसके लिए दिनरात चिंतित भी रहते थे ! एक समय जब बाबा साहेब पढ़ाई के लिए इंग्लैंड में थे तो धन अभाव के कारण रमाबाई को उपले (पाथियाँ) बेचकर गुजारा करना पड़ा था। लेकिन उन्होंने कभी भी इसकी फिक्र नहीं किया और सीमित साधनों में ही जैसे तैसे घर का खर्चा चलाती रहीं। पहनने ओढ़ने के लिए नए कपड़ों के लिए उनको कभी २ दो तीन वर्ष तक भी इन्तेज़ार करना पड़ता था , लेकिन उन्होंने इसके लिए कभी भी बाबा साहेब से गिला शिक़वा नहीं किया ! 

उनकी गृहस्थी में सन 1924 तक पॉँच बच्चों ने जन्म लिया (एक बेटी इन्दु और चार बेटे – यशवंत, गंगाधर, रामेश और राज रतन ), लेकिन घर में विभिन्न प्रकार के अभावों की वजह से वह अक्सर बिमार पड़ जाती थी , ख़ुद भी वह शारीरक रूप से कमज़ोर ही थी और उनके बच्चे भी कमज़ोर ही पैदा हुए, बीमार होने पर वह ठंग से इलाज़ भी नहीं करवा पाती थी, जिसकी वजह से उनके चार बच्चे छोटी उम्र में ही मृत्युलोक चले गए ! किसी भी मां के लिए अपने पुत्रों की मृत्यु देखना सबसे ज्यादा दुख व पीड़ा की घड़ी होती है। माता रमाबाई को भी यह दुख चार बार सहना पड़ा। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर और माता रमाबाई जी ने अपने पॉँच बच्चों में से चार को अपनी आंखों के सामने इलाज के अभाव में मरते हुए देखा। गंगाधर नाम का पुत्र ढाई साल की अल्पायु में ही चल बसा। इसके बाद रमेश नाम का पुत्र भी नहीं रहा। इन्दु नामक एक पुत्री हुई मगर, वह भी बचपन में ही चल बसी थी। सबसे छोटा पुत्र राज रतन भी ज्यादा उम्र नहीं देख पाया। केवल उनके बड़े बेटे यशवंत राव ही थे जो बड़ी उम्र तक ज़िन्दा बचे। इन सभी बच्चों ने गरीबी और अनेकों प्रकार के आर्थिक अभाव में ही दम तोड़ दिया। जब गंगाधर की मृत्यु हुई तो उसकी मृत देह को ढ़कने के लिए गाँव के लोगों ने रिवाज़ के मुताबिक नया कपड़ा (कफ़न) लाने के लिए कहा, मगर उनके पास कफ़न खरीदने के लिए इतने पैसे नहीं थे। तब माता रमाताई ने अपनी साड़ी में से ही एक टुकड़ा फाड़कर दे दिया ; और फ़िर उसी कपड़े में मृत देह को लपेटकर लोग शमशान घाट ले गए और ऐसे पार्थिव शरीर का अन्तिम संस्कार किया । केवल उनका बड़ा बेटा यशवंत ही लंबी उम्र भोग पाया ! 

माता रमा जी इस बात का ध्यान रखती थी कि पति के काम में कोई बाधा न हो। रमाबाई सबर – संतोष, सहयोग और सहनशीलता की जीती जागती मूर्ति थी। डॉ. अम्बेडकर अपनी समाज सेवा के उपलक्ष में बहुत बार घर से बाहर ही रहते थे। वे जो कुछ कमाते थे, उसे वे रमा को सौंप देते और जब आवश्यकता होती, उतना मांग लेते थे। रमाबाई घर का खर्च चलाकर कुछ पैसा जमा भी करती थी। बाबा साहेब की पक्की नौकरी न होने से उनको काफी दिक्कत होती थी। आमतौर पर कोई भी आम स्त्री अपने पति से जितना वक्त और प्यार की अपेक्षा किया करती है, रमाबाई को वह डॉ. अम्बेडकर अपने समाजिक कार्यों की वजह से नहीं दे पाते थे ; माता रमा जी भी उनकी यह परेशानी और मजबूरी भली भाँति जानती, समझती थी कि डॉक्टर साहेब अपने समस्त समाज के कल्याण और उनकी समस्याएँ निपटाने में दिन रात हमेशा जुटे रहते हैं , इसलिए उन्होंने भी अपने पति से कभी शिक़वे शिकायतें नहीं की ! लेकिन उन्होंने बाबा साहेब का पुस्तकों से प्रेम और अपने समाज के उद्धार के प्रति दृढ़ संकल्प का हमेशा सम्मान किया। वह हमेशा यह ध्यान रखा करती थीं कि उनकी वजह से डॉ. अम्बेडकर को कोई दिक्कत का सामना ना करना पड़े, और उन्होंने इसके लिए जो भी लक्ष्य / उद्देश्य निर्धारण किये हुए हैं, बाबा साहेब उनको निश्चित रूप में हासिल कर लें | 
बाबा साहेब के दिल में एक बड़ी तीव्र इच्छा थी की किसी भी तरह वह अपनी जीवन संगिनी के लिए एक अच्छा सा घर बनाएं , बस इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए उन्होंने दादर पूर्व हिन्दु कॉलोनी में एक प्लॉट खरीदा और क़र्ज़ लेकर वहां घर बनाया, ताकि उनकी पत्नी जिसने तमाम उम्र इतनी दुःख तकलीफें ही झेली हैं , वह उसके लिए अपने घर की सुख सुविधा का इंतेज़ाम कर सकें ! यह बात अलग है की यह घर बनाने के सिलसिले में उनकी पत्नी के जो थोड़े बहुत गहने थे, वह भी बेचने पड़ गए ! घर पूरा होने पर उन्होंने घर का एक हिस्सा किराये पर दे दिया ताकि घर के खर्चे के लिए कुछ पैसों का थोड़ा जुगाड़ भी हो जाये ! उन्होंने घर का नाम “राजगृह” रखा और उसे अपनी पत्नी को उपहार स्वरूप भेंट किया ! डॉ.अम्बेडकर के सामाजिक आंदोलनों में भी रमाबाई की सहभागिता हमेशा बनी रहती थी। दलित समाज के लोग माता रमाबाई को “आईसाहेब” और डॉ. अम्बेडकर को ‘बाबा साहेब’ कह कर संबोधन किया करते थे। बाबा साहेब अपने कामों में व्यस्त होते गए और दूसरी ओर रमाबाई की तबीयत दिन प्रतिदिन डावांडोल होने लग गई। अपने सीमित साधनों में तमाम संभव इलाज के बाद भी वह स्वस्थ नहीं हो सकी और अंतत: 27 मई, 1935 में 37 वर्ष की छोटी सी उम्र में ही डॉ. अम्बेडकर साहेब का साथ छोड़कर इस दुनियाँ से विदा हो गई।

माता रमाबाई जी की मृत्यु से डॉ.अम्बेडकर को बहुत गहरा सदमा लगा। उनके दोस्त मित्र व साथी बताते हैं कि अपनी पत्नी की मृत्यु पर वे बच्चों की तरह फ़ूट – फ़ूटकर रोये थे। बाबा साहेब का अपनी पत्नी के साथ अगाध प्रेम था। बाब साहेब को विश्वविख्यात महापुरुष बनाने में माता रमाबाई जी का ही घनिष्ट सम्बन्ध और बहुत बड़ा सहयोग था । बाबा साहेब के जीवन में रमाबाई का क्या महत्व था, यह डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखी गई एक पुस्तक में कुच्छ लाइनों से पता की जा सकती है। दिसंबर 1940 में बाबा साहेब अम्बेडकर ने “थॉट्स ऑफ पाकिस्तान” नाम की एक पुस्तक को अपनी पत्नी रमाबाई को ही भेंट / समर्पित किया। उस पुस्तक की प्रस्तावना में बाबा साहेब ने लिखा था – “रामू को उसके मन की सात्विकता, मानसिक सदवृत्ति, सदाचार की पवित्रता और मेरे साथ दुःख झेलने में, अभाव व परेशानी के दिनों में जबकि उस वक़्त हमारा कोई सहायक न था, मैं उनकी असीम सहनशीलता और सहमति दिखाने की प्रशंसा स्वरुप भेंट करता हूं…..…”

डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखे गए इन शब्दों से स्पष्ट होता है कि माता रमाबाई ने बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर का किस प्रकार संकटों और लंबे संघर्ष के दिनों में साथ दिया और बाबा साहेब के दिल में उनके लिए कितना सत्कार, मान सम्मान और प्रेम था। हमारे देश का समस्त दलित, शोषित व वंचित समाज इस महान महिला को कोटि २ नमन करता है और सदैव उनका ऋणी रहेगा , क्योंकि उनके तप त्याग और कड़े संघर्ष के बदौलत ही बाबा साहेब अपने कीमती समय में से इतना अधिक हिस्सा अपने पूरे समाज और देश को दे पाए और इतने बड़े २ कार्यों को सफ़लता पूर्वक अंजाम दे सके ! 
                                   
द्वारा : आर.डी. भारद्वाज  “नूरपुरी ”