वैसे तो सत्तरहवीं सदी के शुरू में ही अंग्रेज भारत आ गए थे, उन्होंने शुरुआत में तो यही बोला था कि वह हमारे देश में कारोबार करने आए हैं, लेकिन धीरे – २ उन्होंने देश की राजनीति में भी घुसपैठ करनी शुरू कर दी और बाद में उनकी ईस्ट इंडिया कंपनी ने धीरे २ देश की अनेक रियासतों पर अपना कब्ज़ा कर लिया और देश को गुलाम बनाकर यहाँ के शासक बन बैठे ! जब यह गुलामी का शिकंजा कसने लगा तब देश के अनेक भागों में इनकी गुलामी की जंजीरों को काटने के लिए लाखों बहादुर देश प्रेमियों ने देश के अलग २ भागों से तरह २ के २ के प्रयास करने आरम्भ कर दिए ! लेकिन इससे भी बहुत वर्ष पहले, बल्कि लगभग तीन हज़ार वर्ष पहले ही देश की बहुत बड़ी आबादी को देश के कुछ शातिर और षड़यन्त्रकारी लोगों ने पूरे देश की तकरीबन 85 प्रतिशत आबादी को गुलाम बना रखा था और इनकी गुलामी का आधार था मनुवादियों द्वारा रचित एक पुस्तक – मनुस्मृति, जिसके अंतर्गत ब्राह्मणों ने पूरे समाज को चार वर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ) में बाँट दिया था ! इस बंदरबाँट के अधीन उन्होंने देश के पूरे प्राकृतिक / आर्थिक संसाधनों को पहले तीन वर्णों में ही बाँट लिया था और चौथे वर्ण – शूद्रों के लिए नियम बना रखा था कि आपके कोई अधिकार नहीं हैं, आपका काम पहले तीन वर्णों की सेवा करना ही है ! उनको पढ़ाई लिखाई, जमीन जायदाद का कोई अधिकार नहीं, इतना ही नहीं, उनको अपनी सुरक्षा का भी कोई अधिकार नहीं (वह कोई हथियार भी नहीं रख सकते थे), पहले तीन वर्णों के लोग उनपर जितना मर्जी जुल्म ज़बरजस्ती / अत्याचार करते रहैं, वह अपनी हिफ़ाजत के लिए कोई हथियार भी नहीं उठा सकते थे !
समय २ इस दलित शोषित / वंचित समाज के हज़ारों विद्वानों ने अपने खोये हुए अधिकार वापिस लेने के अनेक प्रयास किये, लेकिन ब्राह्मणवादी / मनुवादी प्रवृति के लोगों के दिल उनके लिए कभी नहीं पसीजे, बल्कि जब २ दलितों ने अपने जीवनयापन के मौलिक अधिकार माँगने की कोशिश की, इन मनुवादियों ने उनके ऊपर और जुल्म किये ! अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को सार्वजनिक स्थानों से पानी लेने का भी अधिकार नहीं था ! जगह २ खोदे गए कुओं, झीलों और तालाबों वगैराह से कुत्ते, बिल्लियां या फ़िर गाय, भैंस, भेड़, बकरियाँ तो पानी पी सकती थी, लेकिन शूद्र समाज के लोग वहाँ से पानी नहीं ले सकते थे ! महात्मा गौतम बुद्ध, गुरु रविदास जी, संत कबीर जी, गुरु घासी दास, समाजिक क्रांति के अग्रदूत राष्ट्रपिता ज्योतिबा फूले और उनकी पत्नी सावित्री बाई फूले और रामजी सकपाल इत्यादि ने भी अपने समय में दलितों को उनके खोये हुए अधिकार पाने के लिए सैकड़ों संघर्ष किए, लेकिन कोई खास सफ़लता हासिल नहीं हुई ! फिर देश के बौद्धिक और राजनैतिक पटल पर बाबा साहेब डॉ. भीम रॉव अम्बेडकर का उदय हुआ, वह दलित समाज के 1912 में पहले ग्रेजुएट और 1916 में पहले परास्नातक पास करने वाले विद्यार्थी थे और अपने समाज की ऐसी दुर्दशा देखकर उनको बड़ी पीड़ा होती थी । उन्होंने दलितों की ऐसी गुलामी की जंजीरें काटने के लिए अनेक प्रयास किये, लेकिन कट्टरपन्थी, अस्पृश्ता और छुआछूत को मानने वाले मनुवादी लोग इस मामले में किसी की नहीं सुनते थे और ना ही शूद्रों को कोई आर्थिक, समाजिक और प्रशासनिक अधिकार देने के पक्ष में थे ! वह तो केवल समाज में किसी भी कीमत पर अपनी प्रभुसत्ता बनाये रखना चाहते थे, वह लोग बराबरी नहीं, अपनी समरसता बनाए रखना चाहते थे !
बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने इस मामले में अंग्रेज हुकूमत की भी सहायता लेनी चाही, लेकिन ब्राह्मणों ने उनको भी बोल दिया कि यह हमारी धार्मिक और समाजिक व्यवस्था हज़ारों वर्षो से चली आ रही है, आप इसमें दखल मत देना ! लेकिन पानी एक ऐसा मसला है जिसके बिना जीवन यापन करना बहुत ही कठिन कार्य होता है। बाबा साहेब के बार २ अगड़ी जातियों के लोगों से वार्तालाप करने से भी कुछ हासिल नहीं हो रहा था ! छोटे मोटे तो क्या, हिंदुओं के उस वक़्त के सबसे बड़े नेता गंगाधर तिलक, महात्मा गाँधी और सरदार पटेल भी इस मुद्दे पर दलितों की समस्या समझने को तैयार नहीं थे ! देश के सभी कुदरती संसाधनों पर देश के सभी नागरिकों का बराबरी का अधिकार है, यह बात ब्राह्मणवादी / सामंतवादी मानसिकता वाले लोग मानने को तैयार ही नहीं थे, क्योंकि वे तो दलितों को इन्सान ही नहीं समझते थे ! बाबा साहेब ने जगह २ जाकर अपने समाज के लोगों को इसके बारे में समझाना शुरू कर दिया और अपने प्रस्तावित सत्याग्रह के बारे में अवगत करवाया ! उनके कार्यकर्ताओं ने गाँव २ जाकर दलित, शोषित व वंचित समाज के छोटे बड़े सब नेताओं से मिलने एवं उनसे इस आंदोलन में शामिल होने का अनुरोध किया ! इस तरह 20 मार्च, 1927 को महाड़ के चवदार तालाब (जोकि महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले की महाड़ तहसील में पड़ता है) से इस सत्याग्रह की शुरुआत करने का निर्णय लिया गया । इस शान्तिपूर्ण सत्याग्रह से लगभग तीन महीने पहले से ही बाबा साहेब ने इसके बारे में अख़बारों में खूब लेख लिखे और अपने होने वाले सत्याग्रह से सरकार को और अगड़ी जातियों को भी बखूबी इत्तला कर दी ! निश्चित तिथि को केवल महाराष्ट्र के अनेक जिलों से ही नहीं, आसपास के गुजरात और राजस्थान से भी दलित शोषित वंचित समाज के हज़ारों लोग चवदार तालाब पर इक्कठे होना शुरू हो गए ! क्योंकि अगड़ी जातियों के लोगों ने इसका घोर विरोध किया हुआ था अतः अपने समर्थकों की एक कारगर रणनीति के तहत बाबा साहेब ने पुलिस को भी दलित समाज के लोगों की उचित सुरक्षा प्रदान करने के लिए लिखित रूप में निवेदन कर दिया !
निश्चित समय आने पर बाबा साहेब स्टेज पर आये और उन्होंने बोलना शुरू किया, “मेरे प्यारे साथियो, भाईयो और बहनों ! जैसे कि आप जानते ही हैं, हमारे आत्माभिमान का सूरज आसमान में चमकने लगा है और दमन के बादल छंट रहे हैं। दबे एवं शोषित वर्गों ने हिम्मत दिखानी शुरू कर दी है। हालाँकि महाड़ तालाब से दलितों द्वारा पानी लेने के अधिकार का मसौदा बंबई विधान परिषद् में 1923 में पारित किया जा चुका था और संकल्प के अनुपालन में महाड़ नगरपालिका ने महाड़ तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया था, परन्तु यह निर्णय केवल कागजों तक ही सीमित था, सवर्ण हिंदुओं के कड़े विरोध के चलते अछूत अपने इस अधिकार का प्रयोग नहीं कर पा रहे थे। अतः अपना यह अधिकार लेने के लिए उनके समाज के पंद्रह साल की उम्र के लड़कों से लेकर सत्तर साल के वृद्ध तक, सब खाने की पोटलियां अपने कंधों पर टांगे, सौ – डेढ़ सौ मील से भी अधिक की दूरी पैदल सफ़र तय कर महाड़ पहुंच गए हैं । महाराष्ट्र और गुजरात के लगभग सभी जिलों से दमित वर्गों के करीब दस हज़ार प्रतिनिधि, कार्यकर्ता और नेता महाड़ सम्मेलन में भागीदारी करने उपस्थित हो चुके हैँ। इस सत्याग्रह को सफ़ल बनाने के लिए हर संभव प्रयास किये गए, हर संभव सुविधा जुटाई गई है और हर चीज़ का ध्यान रखा गया है ।”
बाबा साहेब की आवाज़ में एक अजीब सी उत्तेजना थी, जोश था । उन्होंने सबसे पहले अपने बचपन से पाठशाला में दाखिला लेने के संघर्ष का जिक्र करते हुए उनके साथ पाठशाला में अगड़ी जातियों के लड़कों और अध्यापकों द्वारा किये गए अमानवीय व्यवहार के अनेक किस्से सुनाये। कॉलेज में उनके साथ घटित अनेक प्रकार के छुआछूत और अस्पृश्यता और नीचा दिखाने वाले किस्से सुनाते हुए अगड़ी जातियों के लोगों द्वारा उनके साथ दुर्व्यवहार के किस्से भी बताये ! दापोली गाँव, जहां से उनकी शिक्षा की शुरुआत हुई थी, का भी वर्णन किया। उन्होंने कहा कि जिस स्थान पर हमारा बचपन बीतता है वह स्थान हमारे लिए हमेशा आकर्षण का केंद्र रहता है और अगर वह स्थान प्राकृतिक सुन्दरता से भरपूर हो तो उसके प्रति हमारा आकर्षण और बढ़ जाता है। अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए उन्होंने कहा कि “एक समय था जब हम, जिन्हें आज अछूत बोलकर नीची निगाहों से देखा जाता है, हमारा तिरस्कार किया जाता है, अगड़े वर्गों की तुलना में हम बहुत उन्नत थे और शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्र में उनसे बहुत आगे थे, चन्द्रगुप्त मौर्या, राजा अशोक से लेकर बृहद्रथ तक, लगभग 350 वर्षों तक हमारे पूर्वज इस देश के शासक हुआ करते थे । उन दिनों देश का यह हिस्सा हमारे लोगों के महान कार्यों और प्रभाव से प्रफुल्लित था।”
फिर उन्होंने अपने लोगों को अत्यंत गंभीरता और उत्साह से जो संदेश दिया, उसने महाराष्ट्र के गांवों, पहाड़ों और घाटियों को गुंजायमान कर दिया। बीच २ में, डॉ. अम्बेडकर जिंदाबाद, भीम रॉव संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं, इत्यादि नारे खूब गूँज रहे थे ! उन्होंने कहा कि हमारे लोगों के प्रभाव का एक कारण है सैन्य सेवाओं से हमारा दूर हो जाना। “सेना पूर्व में हमें अपने जीवन स्तर को बेहतर बनाने और सैन्य अधिकारी बतौर अपनी योग्यता, प्रज्ञा, साहस और कुशाग्रता साबित करने के अद्वितीय अवसर उपलब्ध करवाती थी। उन दिनों अछूत भी सैनिक स्कूलों के प्रधानाध्यापक भी होते थे और सैन्य कैम्पों में प्रदान की जाने वाली अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा अत्यंत प्रभावी और समग्र थी।” अंग्रेजों द्वारा उन अछूतों के लिए सेना के दरवाज़े बंद करना, जिन्होंने उस समय भारतीय साम्राज्य की स्थापना में उनकी सहायता की थी, जब वहां की सरकार नेपोलियन के साथ युद्धों में फ्रांसीसियों के चंगुल में फंसी हुई थी, घोर विश्वासघात और धोखा हुआ है हमारे साथ ।”
इसके बाद, उन्होंने अपने समाज को जागृत करने के लिए अत्यंत प्रेरक शब्दों में कहा, “हम तब तक अपनी स्थाई उन्नति की उम्मीद नहीं कर सकते जब तक कि हम अपने आचरण में सुधार नहीं लाते । हमें अपनी बात कहने के तरीके को बेहतर बनाना चाहिए और अपनी सोचने समझने के तौर तरीके और विवेकशीलता को बदलना चाहिए। मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि आप इसी क्षण यह प्रतिज्ञा करें कि हम लोग मृत पशुओं का सड़ा-गला मांस नहीं खाएंगे। अब समय आ गया है कि हम सबसे पहले अपने मन से ऊँच-नीच का विचार निकाल फैंके ! आप यह संकल्प करें कि हम फेंके हुए टुकड़े नहीं खाएंगे। हमारी आत्मोन्नति तभी होगी जब हम स्वावलंबी होंगे। हम अपना आत्मसम्मान पुनः अर्जित करेंगे और आत्मज्ञान प्राप्त करेंगे।” उन्होंने अपने लोगों से यह आग्रह भी किया कि वे थलसेना, नौसेना और पुलिस में उनकी नियुक्ति पर लगाए गए प्रतिबंध के ख़िलाफ़ आंदोलन करें। इसके बाद उन्हें सरकारी नौकरियों और शिक्षा का महत्व भी समझाया।
उन्होंने वहाँ एकत्रित भीड़ से ज़ोरदार अपील की कि वे अपना अपमान करने वाली और उन्हें गुलाम बनाने वाली परंपराओं को हमेशा के लिए त्याग दें और अपने-अपने वतनों को छोड़ कर वनभूमि पर खेतीबाड़ी करें। अंत में, उन्होंने हृदयस्पर्शी स्वर में कहा, “पूरी सृष्टि में केवल इन्सान ही ऐसे जीव हैं जो अपने बच्चों को अपने से कहीं बेहतर स्थिति में देखना चाहते हैं और इसके लिए हमेशा प्रयासशील भी रहते हैं, अगर आप ऐसा नहीं करते तो हममें और पशुओं में कोई अंतर नहीं रहेगा।” सम्मेलन में कई महत्वपूर्ण विषयों पर प्रस्ताव पारित किए गए। एक संकल्प के जरिए सम्मेलन ने सवर्ण हिंदुओं से यह अपील की कि वे नागरिक अधिकार पाने में अछूतों की मदद करें, उन्हें नौकरियां दें। अछूत विद्यार्थियों के लिए दोपहर के भोजन की व्यवस्था करें और अपने मृत पशुओं को स्वयं ठिकाने लगाएं। एक अन्य प्रस्ताव द्वारा, सम्मेलन ने सरकार से अपील की कि वह विशेष कानून बनाकर अछूतों द्वारा मृत पशुओं के मांस के सेवन पर प्रतिबन्ध लगाएं, शराबबंदी करें, उन्हें अनिवार्य और निशुल्क प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध करवाएँ, दलित और शोषित वर्गों के छात्रावासों के लिए सहायता प्रदान करें । चारों तरफ़ बाबा साहेब की हिम्मत और हौंसले के जोरदार नारे लग रहे थे, सवर्ण हिन्दुओं की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वे बाबा साहेब का आज विरोध करे ! ऐसे ही नारों से आसमान गूँज रहा था और फ़िर बाबा साहेब धीरे २ तालाब के किनारे की तरफ़ बढ़ने लगे और उनके साथ एक विशाल जन-समूह भी ! बाबा साहेब ने तालाब के किनारे जाकर हाथ मुँह धोये और फ़िर पानी पिया ताकि वह तालाब से पानी लेने के अपने अधिकार को स्थापित कर सकें ! यह एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक घटना थी, जिसका परिदृश्य बहुत विशाल और परिणाम अत्यंत ही दूरगामी होने वाले थे ! वहाँ पर एक ऐसी घटना घट रही थी, दासता-विरोधी, जाति-विरोधी, ग़ुलाम मानसिकता विरोधी और पुरोहित-विरोधी, जोकि पूरे दलित शोषित समाज को जागृत करने का भी काम कर रही थी और अगड़ी जातियों को अंदर तक झकझोरने का भी ।
इस प्रकार, अस्पृश्य लोग अपने इतिहास में पहली बार अपने ही एक बड़े नेता के नेतृत्व में अपने अधिकारों को स्थापित कर रहे थे। उन सबने भरपूर अनुशासन, ऊर्जा और उत्साह दिखाया, क्योंकि आज से पहले वे सार्वजनिक जल स्रोत से पानी नहीं ले सकते थे, अपनी जन्मभूमि और पुण्यभूमि हिन्दुस्तान में किसी भी सार्वजनिक पुस्तकालय में पढ़ नहीं सकते थे। वे आदमी अब अत्याचारियों के अहंकार को चुनौती दे रहे थे, अपने आप को उच्च वर्ण कहलाने वाले लोगों की नीचता की पोल भी खोल रहे थे! फ़िर बाबा साहेब के हज़ारों अनुयाईओं ने भी उनसे इशारा पाकर तालाब से पानी पीने का अनुसरण किया और अपने अधिकार को स्थापित किया। तत्पश्चात जुलूस शांतिपूर्वक पंडाल में लौट आया। पानी पीने के बाद बाबा साहेब ने फ़िर कहा कि ऐसा नहीं है इस तालाब से पानी पीकर हम लोग अमर हो जाएंगे, बल्कि केवल बात सिद्ध करना ही है कि हम भी अन्य हिन्दुओं की तरह ही इन्सान हैं और हम भी आप ही की तरह जीते जागते इन्सान हैं और सभी प्रकार के प्राकृतिक संसाधनों पर हमारा भी उतना ही अधिकार है !
इस घटना के थोड़ी ही देर बाद कुछ कुंठित बुद्धि सवर्ण हिंदुओं ने झूठी अफ़वाह फ़ैला दी कि अब अछूत वीरेश्वर मन्दिर में प्रवेश करने की योजना बना रहे हैं। इस पर उनके द्वारा भड़काए गए असामाजिक तत्वों की एक बड़ी भीड़ ने महाड़ सत्याग्रहियों पर लाठी डंडों से हमला कर दिया, दोनों तरफ़ से हिंसा शुरू हो गई ! दरअसल वह लोग यह घटना हज़म नहीं कर पा रहे थे कि बाबा साहेब की अगुवाई में दलितों ने तालाब से पानी पीकर अपना पानी लेने का अधिकार सिद्ध कर दिया है, वह इसे अपना अपमान समझ रहे थे। उन्होंने बदला लेने की भावना से ही यह अफ़वाह सोच समझकर फ़ैलाई थी ! पुलिस ने अनियंत्रित भीड़ को नियंत्रण करने के लिए बाबा साहेब से अनुरोध किया कि आप अपने लोगों से बोलो कि वह हिंसा रोकें और हम मनुवादी हिन्दुओं को रोकते हैं ! बाबा साहेब ने अपने अनुयाईओं को समझाया कि अनुसाशन तोड़ने से हमारा सत्याग्रह कमजोर पड़ जायेगा, लेकिन इसी बीच बाबा साहेब के सिर पर एक लाठी लगने से उनका सिर फट गया ! बड़ी मुश्किल से भीड़ को नियंत्रित किया गया !
उसके दो तीन दिन तक माहौल बड़ा गंभीर बना रहा, फिर कटड़पंथी ब्राह्मणों ने उस तालाब को गोबर और गंगाजल से अपने अंध-विश्वासपूर्ण विधि से मंत्र उच्चारण करते हुए पवित्र करने की कोशिश भी की ! इससे भी विलक्षण बात यह हो गई कि वे मानते थे कि उनके भगवान के भी अपवित्र हो जाने का ख़तरा है, इस अपमानजनक चुनौती से उनके दिल कांप रहे थे, उनके हाथ फड़फ़ड़ा रहे थे और उनके चेहरे क्रोध से तमतमाये हुए थे। इधर बाबा साहेब ने इस आंदोलन की कामयाबी की ख़ुशी में अपने अख़बार “मूकनायक” का नाम बदलकर “बहिष्कृत भारत” रख दिया ! इधर मनुवादियों ने अदालत में बाबा साहेब और उनके कुछ ख़ास २ सहयोगियों पर मुक़द्द्मा दायर कर दिया कि इन्होंने उनके पवित्र तालाब को अपवित्र कर दिया है और रोकने पर हमारे साथ हिंसा की है ! दूसरी तरफ़, बाबा साहेब ने भी प्रशसन से पानी के सत्याग्रह के बाद हुई हिंसा और दंगों की जाँच करने के लिए मेमोरैंडम सौंप दिया ! बहुत से रूढ़िवादी दंगाईयों को गिरफ्तार भी किया गया । क्योंकि बाबा साहेब खुद एक वकील भी थे, यह मुक़दमा उन्होंने खुद ही लड़ा जिसका फ़ैसला 6 जून, 1927 को आ गया ! अदालत में मनुवादियों की दलील धराशाई हो गई कि महाड़ तालाब उनकी ही संपत्ति है और बाबा साहेब यह बात सिद्ध करने में कामयाब हो गए की सभी प्राकृतिक संसाधनों पर सभी इन्सानों का बराबर का अधिकार है और ब्राह्मणों का उनको वहाँ से पानी लेने से रोकना असंवैधानिक और गैर क़ानूनी है ! रूढ़िवादी ब्राह्मणों को कठोर हार का सामना करना पड़ा और उनके पाँच नायकों को जिला दंडाधिकारी द्वारा चार महीने के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। इस फ़ैसले के बाद पत्रकारों के एक सवाल के उत्तर में डॉ. अम्बेडकर ने यह बिल्कुल वाजिब / स्पष्ट टिप्पणी की कि यदि जिले के मुख्य अधिकारी गैर-हिन्दु ना होते, तो अछूतों को निष्पक्ष न्याय नहीं मिल पाता। यहाँ यह बात बताना भी अनिवार्य हो जाती है कि अनेक अदालतों के फैसलों के उदाहरण देकर बाबा साहेब यह बात पहले ही सिद्ध कर चुके थे कि ब्राह्मण न्यायाधीश जाति और धर्म देखकर फ़ैसले लेते हैं और ऐसे ब्राह्मणों को अदालतों और पुलिस में ऊँचे ओहदों पर तैनात करना सम्पूर्ण समाज के हित्त में नहीं है, अत: अंग्रेज हुकूमत ने ब्राह्मणों के जज बनने पर यह कहकर, बहुत पहले ही रोक लगा दी थी कि “ब्राह्मणों के अंदर न्यायिक चरित्र यानि निष्पक्षता नहीं होती।”
महाड़ सत्याग्रह की भरपूर सफ़लता के बाद और अदालत में भी जीत हासिल होने से डॉ.आंबेडकर जी और उनके सहयोगियों का हौंसला और भी बुलंद हो गया ! अत: उन्होंने अपनी कोर समिति के सदस्यों के साथ मिलकर आगे की रणनीति बनाई और सम्पूर्ण दलित शोषित समाज पर शोषण और अत्याचार सिखाने वाली उनकी काले कानूनों की पुस्तक और पूरे समाज को बिलकुल ही ग़लत और अवैज्ञानिक धारणाओं के आधार पर चार वर्णों में बाँटने वाली उनकी पुस्तक “मनुस्मृति” पर और भी कड़े आक्रमण करने शुरू कर दिए ! इधर बाबा साहेब की बढ़ती हुई चढ़त देखकर ब्राह्मण भी तिलमिलाए घूम रहे थे लेकिन वह कुछ कर नहीं पा रहे थे, क्योंकि पुलिस और अदालतों में बड़े २ अधिकारी अंग्रेज़ ही थे और उनका न्यायनिक चरित्र ब्राह्मणों से कहीं अधिक ऊँचा था । साथ ही बाबा साहेब अपनी तर्कशीलता से अपना पक्ष अच्छी तरह स्थापित कर देते थे ! बाबा साहेब ने भी इस स्थिति का भरपूर लाभ उठाते हुए, ब्राह्मणों को जातिगत भेदभाव सिखाने वाली और सदियों से सम्पूर्ण दलित समाज पर अत्याचार और शोषण सिखाने वाली उनकी काली पुस्तक मनुस्मृति को 25 दिसम्बर, 1927 को भी महाड़ में जला दिया ! मनुस्मृति दहन के प्रबल समर्थकों में से बाबा साहेब के समर्थकों और दोस्तों में उनके एक ब्राह्मण मित्र जी.एन.सहस्त्रबुद्धे, वी.के. गायकवाड़, एन.टी. यादव एवं गंगू बाई सावंत प्रमुख थे। उनके ब्राह्मण मित्र जी.एन.सहस्त्रबुद्धे ने महाड़ में मनुस्मृति दहन के समय प्रथम आहुति के लिए संस्कृत में एक श्लोक भी पढ़ा था।
इस पुस्तक को जलाते समय बाबा साहेब ने अपने समाज को पाँच प्रण ऊँचे स्वर में उन के पीछे २ बोलने और दिल से मानने के लिए भी प्रेरित किया – 1. मैं जन्मजात चतुर्वर्ण व्यवस्था में विश्वास नहीं रखूँगा, 2. मैं जातिगत भेदभाव में विश्वास नहीं रखूँगा , 3. मैं जातिगत हिन्दू धर्म को कलंक / अभिशाप मानता हूँ और इसे समाप्त करने की पूरी कोशिश करूँगा, 4. मैं यह मानकर कि कोई भी ऊँचानीचा नहीं है, सब बराबर हैं, हिन्दुओं द्वारा बताये गए खानपान में प्रतिबन्ध नहीं मानूँगा और आख़िर में – 5. मेरा दृढ़ विश्वास है कि बहुजनों का मन्दिर, तालाब, कुएँ , सभी शिक्षा संसधानों इत्यादि पर भी बराबरी का अधिकार है !
इस घटना के लगभग तीन वर्ष बाद बाबा साहेब ने अपने सैकड़ों समर्थकों के साथ 2 मार्च, 1930 को नासिक के कालाराम मन्दिर में भी प्रवेश किया, जिसका अंग्रेजों और मुसलमानों ने भी पुरजोर समर्थन किया। लेकिन याद रखने वाली बात यह भी है कि बाबा साहेब वहाँ कोई पूजा अर्चना इत्यादि करने के लिए नहीं, बल्कि यह सिद्ध करने के लिए गए थे कि – मन्दिर भी एक सार्वजानिक स्थान है और अगर कोई पिछड़ी जाति का आदमी भी वहाँ अपनी श्रद्धा से जाना चाहे, तो जा सकता है!
आर.डी. भारद्वाज “नूरपुरी”