महात्मा ज्योतिबा फुले (1827 से 1890) 19वीं सदी का प्रमुख समाज सेवक, विचारक, विद्वान, दार्शनिक और एक क्रन्तिकारी नेता थे, जिन्होंने भारतीय समाज में फ़ैली अनेक समाजिक कुरूतियों / बुराईयों को दूर करने के लिए निरंतर संघर्ष किया, अछुतोद्वार, नारी-शिक्षा, विधवा – विवाह और किसानों के हित्तों के लिए उल्लेखनीय कार्य किया है ! वह जीवन-यापन के लिए बाग़-बगीचों में माली का काम भी करते थे और साथ ही साथ फ़ूल बेचने / फूलों की मालाएँ बनाकर भी बेचा करते थे, जिसके कारण उनका नाम फुले (अर्थात – फ़ूलवाला) पड़ गया था ! लड़कियों को शिक्षा प्रदान करने के लिए अनेक अथक आंदोलन किये और अपनी पत्नी – सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर 1848 में पुणे में सभी वर्गों की लड़कियों के लिए पहली पाठशाला भी उन्होंने ही खोली थी, जिसके लिए समाज के बड़े – २ लोगों ने उनका घोर विरोध भी किया, और धर्म के कुच्छ ठेकेदारों ने इस मामले को लेकर ज्योतिबा को पापी / अधर्मी तक बोल दिया, क्योंकि वह लोग नहीं चाहते थे कि लड़कियाँ शिक्षित होकर जागरूक बन जाएं, लेकिन वह इन सबकी आलोचनाओं की प्रवाह किये बिना अपने उद्देश्य की ओर आगे बढ़ते चले गए !
राष्ट्रपिता ज्योतिबा फूले ने 24 दिसम्बर, 1873 को एक पंथ की स्थापना की जिसका नाम रखा गया “सत्यशोधक समाज” (अर्थ : सच की खोज करने वाला समाज) ! यह एक छोटे से समूह के रूप में शुरू हुआ और इसका उद्देश्य शूद्र एवं अस्पृश्य जाति के लोगों को मनुवादी / ब्राह्मणवादी प्रवृति के लोगों द्वारा सदियों से समाज के दबे कुचले वंचित और शोषित समाज को ब्राह्मणों द्वारा बनाये गए बेसिरपैर की रीति रिवाज़ों से , ढोंगों से और पाखण्डबाजिओं से मुक्ति दिलवाना था और उनकी सोच विचार बदलकर उनको शिक्षा के उजाले की और खींचना था ! इस संस्था का एक उद्देश्य समाज में शुद्रो पर हो रहे शोषण तथा दुर्व्यवहार पर अंकुश लगाना भी था | दरअसल इस समाज की स्थापना से पहले, उन्होंने एक पुस्तक “गुलामगिरी”, लिखी थी और इस पुस्तक के छपने के बाद जब यह बाजार में आई तो महात्मा ज्योतिबा फुले के कुच्छ दोस्तों ने उनको सुझाव दिया था कि जिस समाज की कल्पना आपने अपनी पुस्तक में की है, क्यों ना उसको यथार्थ का एक स्वरूप दे दिया जाये और सच में एक ऐसे ही समाज को जीवत किया जाये, ताकि हमारे दलित समाज के लाखों अनपढ़ लोगों को सही मार्ग दिखलाने के लिए एक सही सेध मिल जाये ! सो बस इसी सुझाव पर अमल करते हुए अपने समान विचारधारा वाले दोस्तों मित्रों को साथ लेकर इस “सत्यशोधक समाज” का गठन किया गया ! बाबा साहेब भीम रॉव अम्बेडकर जी इनके विचारों से बहुत प्रभावित थे ।
महात्मा फ़ूले द्वारा यह पुस्तक लिखने के बाद एक और प्रसंग बीच में घट गया जिसने ज्योतिबा फूले जी को इस सत्यशोधक समाज के गठन के लिए उनके इरादे और भी मजबूत कर दिए । उनके एक ब्राह्मण मित्र थे जोकि उनके सहपाठी भी थे, और उस मित्र ने ज्योतिबा फुले को अपनी शादी में आने के लिए निमंत्रण दिया ! पहले तो ज्योतिबा ने अपने उस ब्राह्मण मित्र को शादी की बधाई दी और फ़िर उस समय समाज में चल रहे जातिगत भेदभाव और ऊँचनीच की वजह से शादी में आने के लिए मना कर दिया ! लेकिन उनका दोस्त नहीं माना और क्योंकि वह चाहता था उसके सहपाठियों में से एक अच्छा पढ़ालिखा दोस्त उसकी शादी में अवश्य पहुँचे ! अपने दोस्त के इतना ज़ोर देने पर ज्योतिबा शादी में शामिल होने के लिए मान गए और समयानुसार वहाँ पहुँच गए ! लेकिन बारात जब लड़की वालों के गाँव पहुँची तो दुल्हन पक्ष के लोगों में से एक आदमी ने ज्योतिबा को पहचान लिया और उसने लड़की वालों को बता दिया कि इनकी बारात में तो शूद्र भी आये हैं ! इस बात को लेकर वहाँ काफ़ी हंगामा हो गया और उन्होंने ज्योतिबा को कई प्रकार के जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करके उनका बड़ा अपमान किया ! उनका दोस्त जब इनके समर्थन में आगे आया कि यह मेरा दोस्त है और मैंने ही ज्योतिबा को निमंत्रण दिया था, तो लड़की वालों ने स्पष्ट लफ़्ज़ों में लड़के के पिता को बोल दिया कि अगर यह शूद्र लड़का शादी में शामिल हुआ तो यह रिश्ता नहीं हो सकता, क्योंकि हम यह मानने को तैयार ही नहीं हो सकते कि शूद्र हमारे बराबर हैं, अगर यह हमारे समान नहीं हैं तो फ़िर इनसे ऐसा मिलना जुलना कैसे ? यह सब सुनकर ज्योतिबा फुले को बहुत बुरा लगा और उसने अपने दोस्त से कहा, “यार ! मैंने तो तुझे पहले ही बोला था, लेकिन तुम ही नहीं माने; चलो ख़ैर ! मेरा भी एक सिद्धांत है, यहाँ मेरी इज्जत ना हो , मुझे भी वहाँ उठना बैठना अच्छा नहीं लगता , सो मैं चलता हूँ , आप अपनी खुशियाँ मनाओ !”
वापिस घर आने पर ज्योतिबा के पिता ने भी उसे डांटा , “मैंने तो तुझे पहले ही समझाया था कि इस शादी में तुम्हें नहीं जाना चाहिए , क्योंकि यह लोग धर्म ग्रंथों में लिखी हुई बातों को ही मानते हैं , इनकी नज़र में पढ़े लिखे होने की कोई अहमियत नहीं है!” ज्योतिबा ने उत्तर दिया , “मुझे नहीं पता कि यह तथाकथित धर्म ग्रन्थ किसने लिखे हैं , लेकिन यह बात अच्छी तरह समझता हूँ कि यह जातिपाति , ऊँचनीच , धर्म मज़हब सब बेकार की मान्यताएँ हैं , अगर हम सब भगवान के बनाये हुए बन्दे हैं , तो ऐसे भेदभाव कैसे और क्यों ? दूसरी बात – अगर यह समस्त सृष्टि ब्रह्मा ने ही बनाई है तो फ़िर यह चार वर्णों की व्यवस्था केवल हमारे देश भारत में ही क्यों पाई जाती है, बाकी दुनियाँ के अन्य देशों में तो ऐसा नहीं है ? आप देख लेना , मैं एक दिन एक ऐसा समाज बनायूँगा जिसमें ऐसे भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं होगा , और सब एक समान बराबरी के पायदान पर ही खड़े होंगे ! धर्म तो जीवन का आधार है, तो फ़िर भी धर्म को बताने वाली पुस्तकों / धर्मग्रंथों / शास्त्रो में ऐसा क्यों लिखा है? अगर सभी जीवों को भगवान ने बनाआ है तो मनुष्य-मनुष्य मे इतना विभेद क्यों हैं? कोई ऊँची जाति का, और कोई नीची जाति का कैसे हो सकता है? अगर ये हमारे धर्मग्रंथों में लिखा है और जिसके कारण समाज में इतनी विषमता व छूआछूत है तो यह परम सत्य कैसे हो गया ? यह बिलकुल ही झूठ हैं , मैं इनको हरगिज़ नहीं मानता । यदि यह सब असत्य हैं तो मुझे सत्य की खोज करनी पड़ेगी और समाज को बताना भी पड़ेगा।” अतः उन्होंने इस काम के लिए अपने मित्रों और समाज सेवा में विश्वास रखने वाले लोगों के साथ मिलकर एक संगठन बनाया और उसका नाम रखा “सत्यशोधक समाज”।
इस समाज के गठन के बाद ब्राह्मणों और मनुवादी विचारधारा वाले लोगों मे बड़ी खलबली मच गई और उनमें तेजी से हलचल होनी शुरू हो गई , क्योकि ज्योतिबा एक अच्छा पढ़ालिखे और समाजिक कार्यों में बड़े चेतन / सक्रिय नेता थे, ब्राह्मणों को लगा कि अगर देशभर में यह संगठन फ़ैल गया तो हमारी गैर-बराबरी, भेदभाव पैदा करने वाली ब्राह्मण वर्चस्व की व्यवस्था ही समाप्त हो जाएगी और यह मूलनिवासी समाज तो आजाद हो जाएंगे। यही सोचकर ब्राह्मणों ने एक सभा बुलाई और उस समय का ब्राह्मणों का सबसे बडा नेता मूलशंकर तिवारी उर्फ दयानंद सरस्वती को बुलाया गया, जोकि उन दिनों गुजरात के राजकोट से रहते थे ! वह सभा में भाग लेने मुम्बई आये और उसने सत्यशोधक समाज का प्रभाव खत्म करने के लिए 1875 में आर्य समाज बनाया। इस पूरे घटनाचक्र से आपको पता चलेगा कि कैसे समय समय पर ब्राह्मणों ने मूलनिवासी लोगों के आजादी के आंदोलन को नये नये संगठन और राजनीतिक पार्टियां बनाकर मूलनिवासियों के आंदोलनों का प्रभाव खत्म करने के कोशिशें की / उनके प्रगति के रस्ते में रुकावटें खड़ी कीं ।
सत्यशोधक समाज की कार्यकारिणी समिति ने एक निर्णय यह भी लिया कि सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ता ही मूलनिवासी लोगों में सैद्धांतिक रूप में, अंधविश्वास और पाखंड रहित शादियाँ करवाएंगे। मूलनिवासी लोगों की शादियों / अन्य सामाजिक / पारिवारिक समरोहों में किसी भी ब्राह्मण पण्डित / पुरोहितों को ऐसे समारोह सम्पन्न करवाने के लिए नहीं बुलाएंगे , ब्राह्मण के द्वारा शादी हरगिज नहीं करवाएंगे , ना ही ब्राह्मण को किसी भी किस्म की दान दक्षिणा देंगे। सत्यशोधक समाज के इस निर्णय के विरोध में पुणे में ब्राह्मण लोग अदालत में चले गए और उन्होंने एक केस दर्ज करवा दिया कि यह दलित समाज द्वारा गठित सत्यशोधक समाज का निर्णय सरासर ग़लत है , यह सदियों से चली आ रही धार्मिक मान्यताओं / रीति रिवाज़ों और सैकड़ों वर्षों से चली आ रही प्रारम्पराओं के ख़िलाफ़ है और ब्राह्मणों से उनकी रोजी-रोटी छीनने वाला मामला है। और इससे ब्राह्मणों में गरीबी , बेरोज़गारी बढ़ जाएगी और इसे तत्काल प्रभाव से निरस्त करके पहले वाली व्यवस्था ही बहाल की जाये ।
इसलिए सत्यशोधक समाज, अगर चाहे तो वह अपनी शादियाँ वगैराह स्वंय करा सकते हैं , परंतु ऐसे समारोह में जो दान दक्षिणा ब्राह्मणो को दी जाती थी, शादी में जो ब्राह्मणों को पैसे और कपड़े लत्ते इत्यादि दिए जाते हैं , उतना रूपया – पैसा यह सत्यशोधक समाज द्वारा ब्राह्मणों को देना होगा । याचिकाकर्ता की ओर से इस कोर्ट केस का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक (महात्मा गाँधी के राजनैतिक गुरु थे) कर रहा था, जोकि कट्टर हिन्दू और मनुवादी मानसिकता रखने वाला बन्दा था ।
इस मामले में ज्योतिबा फुले को भी अदालत में पेश होने के लिए बुलाया गया ! राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले ने ही प्रतिवादी पक्ष की ओर से इस अदालती मामले में सत्यशोधक समज की तरफ़ से पैरवी की और अदालत से इस मामले सम्बन्धी केस दर्ज करवाने वाले पक्ष से कुछ सवाल करने की इजाजत माँगी ! जज से अनुमति मिलने पर ज्योतिबा फुले ने गंगधार तिलक से पूछा – “आप अपनी दाढ़ी खुद बनाते हो या किसी नाई के पास जाते हो ?”
गंगाधर तिलक बोला – ” हाँ ! मैं खुद बनाता हूँ।”
क्या आप रोज़ दाढ़ी बनाते हो?
तो तिलक बोला – हाँ , तकरीबन रोज़ ही बनाता हूँ।
क्या आपके ब्राह्मण वर्ण के अन्य लोग भी अपनी दाढ़ी खुद बनाते हैं ?
तिलक ने उत्तर दिया कि हमारे समाज के अधिकांश लोग खुद ही बनाते हैं, बहुत कम हैं जो इस काम के लिए नाई के पास जाते हैं ।
अबतक के सवालों से गंगाधर तिलक यह माज़रा तुरंत समझ गया कि बाद में ज्योतिबा किस मुद्दे पर आने वाला है , सो वह ज्योतिबा को टोकते हुए झट्ट से बोला – “जज साहब ! इन सवालों का इस मामले से कोई सम्बन्ध नहीं है !”
तो ज्योतिबा फुले ने उत्तर दिया , “नहीं, जज साहेब ! मेरे इन सवालों का इस पूरे मामले से बिलकुल सीधा संबंध है , मुझे इसके लिए थोड़ा समय दिया जाये तो मैं अभी आपके सामने यह बात सिद्ध कर सकता हूँ !” जज ने कहा – “ठीक है ! आपको अनुमति है।”
तो ज्योतिबा फुले ने अपनी पड़ताल जारी रखते हुए अगला सवाल किया , “आप जो दाढ़ी बनाते हो, आपके ब्राह्मण जाति के लोग जो दाढ़ी बनाते हैं, तो क्या आप लोग दाढ़ी बनाकर नाई जाति के लोगों को, जिनका यह वर्षों पुराना जातिगत धंधा है , जिसका रोज़ग़ार ही दाढ़ी बनाना , बाल काटना है , तो क्या आप उनको जाकर इसके पैसा देते हो?”
गंगाधर तिलक इस सवाल का कोई जवाब नहीं दे पाया और शर्मिंदा होकर इधर उधर झाँकने लग गया। फ़िर थोड़ी देर रूककर, बस इतना ही बोल पाया – “जब हम नाई से यह काम ही नहीं करवाते , तो फ़िर बिना मेहनत के मेहनताना कैसा ?”
गंगाधर तिलक की जुबान से यह बयान सुनकर, ज्योतिबा ने थोड़ा ज़ोर से मेज पर हाथ मारा और बोले , “जज साहेब ! यह पॉइन्ट नोट किया जाये, बिना मेहनत के मेहनताना कैसा?” बस इसी मुद्दे का फैसला ही तो हमारे सत्यशोधक समाज ने लिया है, जब यह लोग दूसरों का कार्य स्वंम करके उनको पैसे नहीं देते हैं , तो सत्यशोधक समाज आपके ब्राह्मण पण्डितों / पुरोहितों के द्वारा होने वाले कार्य के पैसे क्यों दे ? ना हम आपसे अपनी शादी विवाह वगैराह के काम करवाएंगे और ना ही इसके पैसे आपको देंगे!”
इसी बात को लेकर ज्योतिबा फुले जी अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहने लगे – “जज साहेब ! जैसे दाढ़ी बनाना , बाल काटना नाई का धर्म नहीं, धंधा है। कपड़े सिलना दर्जी का धर्म नहीं , धंधा है। जूते बनाना और टूटे फूटे जूतों की मुरम्मत करना मोची का धर्म नहीं, उसका धंधा है ।”
ठीक इसी तरह – पूजा पाठ करना भी ब्राह्मण का धर्म नहीं , एक धंधा है । केवल इतना ही नहीं , राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले ने कोर्ट में बहस के दौरान ब्राह्मणों को “कलम कसाई” बोल दिया ! गंगाधर तिलक ने इस शब्द पर कड़ा इतराज़ जताया और ज्योतिबा फुले से ब्राह्मण समाज के लिए ऐसा घटिया शब्द इस्तेमाल करने के लिए मुआफ़ी मांगने के लिए बोला ! लेकिन ज्योतिबा फुले ने उत्तर दिया, “जज साहेब ! मैं बात अदालत में यह बात सिद्ध कर सकता हूँ , कि मैंने ब्राह्मणों के लिए इस शब्द का प्रयोग क्यों किया ?” जज ने उससे अपनी बात सिद्ध करने के लिए कहा ! ज्योतिबा फुले ने उत्तर दिया , “जज साहेब ! जैसे कि आप भलीभाँति जानते ही हैं कि हमारे देश में छोटी बड़ी हज़ारों रियासतें हैं , और प्रत्येक रियासत के राजे महाराजे के सलाहकार यह ब्राह्मण लोग ही होते हैं , सो यह ब्राह्मण सलाहकार राजे के साथ मिलकर ऐसे कायदे कानून बनाते हैं जिनसे मेरे दलित , शोषित, वंचित समाज के लोगों का ज़्यादा से ज़्यादा शोषण हो सके , उत्पीड़न कर सकें, उनसे किसी ना किसी रूप में पैसे ऐंठ सकें ! इन लोगों के बेसिरपैर के कायदे कानूनों की वजह से मेरे समाज के लाखों लोग नाजायज कर देने को मजबूर होते हैं , जबकि यह बात भी सभी जानते हैं कि मेरे समाज के सभी लोगों की माली हालत तो इनके समाज के मुकाबले में बहुत पतली होती है, मेरे समाज के 95% लोग तो साधनविहीन होते हैं, लेकिन यह क्रूर पण्डित अपने ठगने वाले षडयंत्रो से / चालबाज़ियों से बाज़ नहीं आते , और इनकी वजह से ही मेरे समाज के लोग केवल दाल रोटी तक ही सिमटकर रह जाते हैं , उनको कोई उन्नति करने का अवसर ही नहीं मिलता ! उसपे एक और सित्तम, यह मनुवादी लोग मेरे समाज के लोगों के लिए अक्सर अपमानवाली जातिसूचक भाषा का इस्तेमाल करते रहते हैं ! इन्होने ही तो मेरे समाज के लोगों पर पढ़ने लिखने पर भी पाबन्दी लगाई हुई है, क्योंकि यह अच्छी तरह जानते हैं कि अगर मेरे समाज के लोग पढ़लिख कर शिक्षित हो गए, इनकी ग़लत किस्म की कारगुजारियाँ जाहिर हो जाएँगी तो फ़िर मेरे समाज के लोग इनके झाँसे में नहीं आ सकेंगे ? सो इसी तरह यह ब्राह्मण समाज के लोग अपने पढ़े लिखे होने का नाजायज़ फ़ायदा उठाते हैं और मेरे समाज के ऊपर तरह – २ अत्याचार और शोषण करते ही रहते हैं ! ज्योतिबा फुले द्वारा दी गई दलीलें सुनकर जज उनकी बातों से सहमत हो गया और गंगाधर तिलक महोदय को भरी अदलात में एक बार फ़िर शर्मिंदा होना पड़ा !
आख़िर में , दोनों पक्षों के तर्क वितर्क सुनने के बाद जज ने सत्यशोधक समाज के पक्ष में फ़ैसला सुना दिया और ब्राह्मण समाज की याचिका ख़ारिज कर दी गई !
राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले ने यह बात भी अदालत को बताई कि यह ब्राह्मण लोग भारत के निवासी है ही नहीं, वह तो विदेशी हैं , और मूलनिवासी राष्ट्रवाद के जनक राष्ट्रपिता ज्योतिराव फुले ही हैं। दलितों और निर्बल वर्ग को निरंतर न्याय दिलाने के लिए ज्योतिबा फुले द्वारा तमाम उम्र पूरी मानवता की भलाई के लिए निस्वार्थ किये गए हज़ारों कार्यों से खुश होकर उस वक़्त के एक और वरिष्ठ समाजसेवी (राव बहादुर विट्ठलराव कृष्णा जी वान्देकर ) ने उन्हें मई 1888 में मुम्बई की एक विशाल सभा में “महात्मा” की उपाधि प्रदान दी।
बस ब्राह्मणों ने जैसे जैसे इनको बेवकूफ बनाया, वह पीढ़ी दर पीढ़ी वैसे ही बेवकुफ बनते रहे, क्योंकि दलित समाज में शिक्षा और आर्थिक शक्ति की बहुत कमी थी और समाजिक पिछड़ापन भी । जैसा ब्राह्मणों ने उनको बताया, उन्होंने वैसा ही करते रहे और ब्राह्मणों ने चारों जातियों की उत्पति के बारे में जो उलटे सीधे / मनगढंत सिद्धांत बताये , वह मानते रहे !
आज जो ओबीसी लोगों की जो भयंकर स्थिति है उसका कारण यही है वह चाहकर भी अनुसूचित लोगों के आन्दोलन में शामिल नहीं होते , बस ब्राह्मण को ही अपना मुक्तिदाता समझकर घन्टा बजाने में ही मशगूल रहते हैं। जो ब्राह्मणों की इस कूटनीति को थोड़े बहुत समझ गए हैं, वो ही आवाज उठा रहे हैं, लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है? जबतक अधिकांश रूप में अनुसूचित जाति , जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के लोग संगठित होकर इस मनुवादी समाज की ग़लत नीतियों / धारणाओं / मान्यताओं का विरोध नहीं करते, तब तक इनको कुछ ख़ास लाभ होने वाला नहीं है !
आर. डी .भारद्वाज “नूरपुरी “