रईस सिद्दीक़ी
पूर्व केंद्र निदेशक ,आकाशवाणी भोपाल
शायर ,१५ किताबों के लेखक एवं सामाजिक चिंतक
भोपाल और दिल्ली के अनेक पुरस्कारों से सम्मानित
आज मेरी आँखों के सामने से यादों का झरोका गुज़रने लगा. जी हाँ , पचास साल पहले का लखनऊ ! उस वक़्त मेरी उम्र आठ नौ साल की होगी। शिद्दत से गर्मी पड़ रही थी ,जैसे आजकल यहाँ गर्मी से हालत बुरी है. मैं रमज़ान में रोज़ सुबह सहरी में अपने आप उठ जाता था या यूँ कहें कि दूध-फेनी और आलू के पराठों की खुशबु मुझे उठा देती थी, इसके अलावा उस वक़्त रोज़ कुछ लोग सहरी में जगाने वाले अपनी अक़ीदत भरी आवाज़ में सहरी-नग़में गाते , ज़ोरदार ऊँची आवाज़ में गाते ताकि सोने वाले उठ जाएँ। रोज़ाना सहरी कर के मैं सो जाता था। उन दिनों रोज़ शाम को मस्जिद में इफ़्तारी देने का रिवाज था, सो ये मेरी ड्यूटी थी कि मैं रोज़ मस्जिद में इफ़्तारी पहुचाऊं और वहीँ मैं रोज़ा खोलता, इफ़्तार करता.
एक दिन अम्मी ने कहा कि जब तुम रोज़ सहरी करते हो, रोज़ा इफ़्तार करते हो तो तुम्हें रोज़ा रखना चाहिए। चुनांचे चौदहवां रोज़ा ,रोज़ा कुशाई के लिए मुक़र्रर हुआ.
सहरी में मेरी पसंद की चीज़ें बनाई गयीं ,दुपहर से इफ्तारी और खाने का एहतिमाम होने लगा. रिश्तेदारों और मोहल्ले के बहुत से लोगों को इफ़्तारी की दावत दी गई। इस काम में मुझे भी लगाया गया जिसका फ़ायदा यह हुआ की मेरा बहुत सा वक़्त इसमें गुज़र गया। कुछ वक़्त मस्जिद में तिलावत-ए -क़ुरआन और नमाज़ में गुज़रा. जो जो वक़्त गुज़र रहा था ,प्यास और भूक शिद्दत इख़्तियार कर रही थी . अम्मी ये सब कुछ महसूस कर रही थीं. लिहाज़ा, बीच बीच में वो मुझे अपने पास बुलातीं और रोज़ा रखने की फ़ज़ीलत बतातीं। मुझे याद है कि उनहूँ ने एहसास दिलाया की बहुत से ग़रीब लोग भूक और प्यास से बीमार हो जाते हैं , हमें उनकी मदद करनी चाहिए, अपने साथ हमेश पानी और कुछ खाने का सामन रखना चाहिए ताकि रास्ते में, स्कूल में या अपने दर पर आये ग़रीबों की मदद करना चाहिए।
फिर कहतीं जाओ थोड़ीदेर आराम करलो। मैं अपने कमरे में जाता,लेटता , करवटें बदलता , उठ जाता ,कुछ पढ़ता लेकिन आराम कहाँ ? फिर बाहर आजाता , अम्मी मुस्कुरातीं और अपने पास बिठा कर माहे रमज़ान की अहमियत बतातीं–
ये महीना हमें ट्रैन करता है की हम अपनी भूक, प्यास ,ग़ुस्से, लालच और तमाम बुराइयों पर कैसे क़ाबू पाएं ताकि आयेंदा दिनों में एक अच्छे इंसान की तरह, समाज का भला कर सकें।
बहरहाल, शाम के ६ बज गए , मुझ से तैयार होने के लिए कहा गया। मुझे नया जोड़ा दिया गया जो मेरी खाला मेरी लिए लेकर आयीं थीं. सफ़ेद चूड़ीदार पैजामा , लखनवी कुरता और सफ़ेद शेरवानी के साथ लखनवी टोपी पहन कर दल्हे राजा की तरह मुझे तैयार किया गया. अम्मी ने बहुत अच्छा इत्र लगाया जो मेरी मुंह बोली फुफी लेकर आयीं थीं।
कुछ लोग फल, कुछ लोग खाने का सामान सेनी ( बड़ी थाली ) में सजाकर, सुनहरे और रुपहले गोटे लगे किनारे वाले लाल रेशमी ख़्वान से ढक कर लाये थे. मुबारकबाद और दुआओं का सिलसिला जारी था, बहुत प्यार और मोहब्बत से कोई गले लगा रहा था तो कोई सर पर शफ़क़त भरा हाथ फेर रहा था, गोया जान-ए -महफ़िल मैं और सिर्फ़ मैं था।
दफ्तर से वालिद साहिब भी आगये, बहुत प्यार से मुझे अपने सीने से लगाए रखा. दुआएं दीं।
लगभग ७ बजे सभी लोग दस्तर -ख़्वान पर बैठ गए , इफ़्तारी में खजूर , तुख्मे मलंगां का शरबत (सफेद छोटे छोटे दाने के बराबर फूल वाला शरबत), फ़ालसे का शरबत, शिकंजी, लाल शरबत ( रूह अफ़ज़ा ) , लस्सी , प्याज़ के पकोड़े ,बेसन में तली हुई हरी मिर्च ,तले हुए काले चने और न जाने क्या क्या दस्तर-ख़्वान की ज़ीनत बने हुए थे और उन्हें देख देख कर मेरे मुंह में पानी आरहा था।
वालिद साहिब ने मेरी हालत-ए -ग़ैर को ग़ौर से देखा और फ़रमाया:
ये वक़्त अपने नफ़्स पर क़ाबू करने की तरबियत का है. इस वक़्त अल्लाह से दुआ करो की वो हमारा रोज़ा क़ुबूल फ़रमाये और हमें तौफ़ीक़ दे की हम पुरे महीने रोज़ा रख सकें. हम सभी लोग दुआ करने लगे की इतने में गोला दग़ा और फिर अज़ान की आवाज़ आयी। मैं ने सब से पहले लाल शरबत पिया और जल्दी जल्दी पकोड़े खाने लगा ,अम्मी ने इशारा किया की आराम से खाऊं।
इफ़्तारी के बाद घर ही पर नमाज़ बा-जमाअत अदा की क्यों की ख़ानदान और मोहल्ले के बहुत से लोग मेरी रोज़ा कुशाई में शरीक हुए थे।
कुछ देर बातें हुई, फिर खाना लगने लगा, डिनर में भी बी कई पकवान थे। मुझे यखनी पुलाव और सफ़ेद ज़र्दा बहुत पसंद है , क़ोरमे के साथ शीरमाल भी खाई, शाही टुकड़ों का भी मज़ा लिया यानी इतना खाया की पेट फूल गया।
फिर मेरी ड्यूटी लगी की मस्जिद के इमाम साहब को खाना देकर आओ ,उन दिनों मस्जिद के इमाम को दुपहर और रात का खाना पहुँचाना मोहल्ले के हर घर पर लाज़मी था , हर घर का दिन और वक़्त यानि दुपहर या रात मुक़र्रर था।
बड़ों को कहते सुना था कि खाना तो कुत्ते को भी मिल जाता है लेकिन मेरा अनुभव कहता है की अब खाने के लिए पापड़ बेलने पड़ते हैं , और कभी कभी तो भूक ख़ुदकुशी करने पर आमादा करती है !
सरकारी सेवा से बंधन – मुक्त होने के बाद, न जाने क्यों पुरानी यादें मेरे इर्द-गिर्द घूम रही हैं , शायद हर व्यक्ति की ज़िन्दगी का, ला-हासिल ज़िन्दगी का, यही सरमाया है, यही पूँजी है !