भारतीय सिनेमा के 100 साल – शुरूआती दिग्गज

प्रेमबाबू शर्मा
राजा हरिश्चंद्र
भारतीय सिनेमा के लिए मई का महीना वाकई में भाग्यशाली कहा जा सकता है, क्यों 100 साल पहले 3 मई, 1913 को बालीवुड की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ रिलीज हुई थी। लेकिन बहुत कम लोग जानते होगें कि भारतीय सिनेमा में पहली फिल्म ‘पुंडलीक’थी। समय बदला बाद ग्लेमरस की दुनियां में नित नये प्रयोग होते रहे। आज हालीवुड भी बालीवुड की ताकत के आगे नतमस्तक करता है। लेकिन इस सौ साल के सफर में कितनी परेशानीयां सामने आई । कितने स्टूडियों, बैनर बनें और कितने डूबे जैसे अनेक हादसे भी सामने आए। इस लेख में भारतीय सिनेमा के शुरूआती दिग्गजों की फिल्मों और उसके सफर के बारे बताते है।
पहली फिल्म राजा हरीशचन्द्र कैसे बनी ? पलटते है अतीत के पन्ने…. यह वाकया 1896 का है। लुमिएरे बन्धु पेरिस में अपनी लघु फिल्मों के प्रदर्शन के एक साल बाद अपनी कुछ लघु फिल्मों के साथ भारत आए थे । उन्होंने सात जुलाई को वाट्सन होटल में इन फिल्मों का प्रदर्शन किया। इसके दो साल बाद 1898 में प्रोफेसर स्टीवेंसन पेरिस से बायस्कोप लेकर कलकत्ता पहुंचे । इस बायस्कोप के जरिए उन्होंने ‘द फ्लावर ऑफ पर्शिया’ का प्रदर्शन किया ।
इसी साल एक भारतीय फोटोग्राफर हीरालाल सेन ने स्टीवेंसन से उधार लिए कैमरे से एक लघु फिल्म ‘ए डांसिंग सीन’ का निर्माण किया । 1902 में बम्बई के एक बिजनेसमैन जमशेदजी फ्रामजी मदन ने कलकत्ता में एक मेकशिफ्ट मूवी थियेटर कलकत्ता मैदान में टेंट लगा कर स्थापित किया। उन्होंने बाद में पेरिस के पाथे बन्धुओं से उपकरण प्राप्त कर फिल्म एग्जिबिशन बिजनेस की शुरुआत कर दी । पांच साल बाद मदन ने एक स्थाई मूवी थियेटर में फिल्मों की स्क्रीनिंग शुरू कर दी । इस प्रकार स्थापित द एल्फिंस्टन पिक्चर पैलेस देश का पहला स्थाई सिनेमाघर बन गया। आज भी यह चैपलिन थियेटर के नाम से चलाया जा रहा है ।
फिल्म ‘पुंडलीक’ और‘ तोरणो’ राम चन्द्र गोपाल तोरणो ऐसे फिल्मकार थे, जिन्होंने पहली भारतीय फिल्म का निर्माण किया । 1912 में रिलीज ‘पुंडलीक’ उनकी पहली फिल्म थी । इसके बावजूद दादा साहेब फाल्के को भारतीय सिनेमा का पितामह कहा जाता है । क्योंकि तोरणो ने पुंडलीक को प्रोसेसिंग के लिए विदेश भेजा था ।  जबकि राजा हरिश्चन्द्र पूरी तरह से स्वदेश में बनी फिल्म थी । इसके अलावा पुंडलीक केवल 22 मिनट की फिल्म थी ।
भारत में बनी पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ 3 मई 1913 को तत्कालीन बम्बई के कोरोनेशन थियेटर में रिलीज हुई थी । यह कभी झूठ न बोलने वाले अयोध्या के राजा हरिश्चन्द्र की कहानी भारतीय दर्शकों की जानी पहचानी थी, इसलिए मूक युग में कहानी समझने के लिए ऐसे विषय जरूरी थे । डीजी डाबके और पीजी साणो अभिनीत इस फिल्म में कोई महिला कलाकार नहीं थी । यहां तक कि तारामती का रोल भी पीजी साणो ने किया था । 3700 फीट लम्बी इस फिल्म की अवधि मात्र चालीस मिनट थी ।
दादा साहब फालके
उस समय फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं समझ जाता था, इसलिए दादा साहब फालके ने अपने तमाम कलाकारों को यह हिदायत दी थी कि वह लोगों को यही बताएं कि वह किसी हरिश्चन्द्र की फैक्ट्री में काम करते हैं। भारत की पहली पूरी लम्बाई की फिल्म को देखने के लिए दर्शक सड़कों पर उतर पड़े। फालके को ग्रामीण क्षेत्रों में फिल्म दिखाने के लिए इसके और प्रिंट तैयार करवाने पड़े । राजा हरिश्चन्द्र चार रीलों की फिल्म थी । लेकिन, नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया के पास इसकी आखिरी रील ही है।
दादा साहब फालके त्रयम्बकेश्वर महाराष्ट्र में संस्कृत के एक विद्वान के घर पैदा हुए धुंधिराज गोविन्द फालके को भारतीय फिल्मों का पितामह भी कहा जाता है । उन्होंने 1896 से 1912 के मध्य कई नाटकों और लघु फिल्मों का निर्माण किया । राजा हरिश्चन्द्र उनकी और देश की पहली फीचर फिल्म थी । उन्होंने बर्थ ऑफ ए पी प्लांट जैसी कुछ ट्रिक फिल्मों का निर्माण भी किया । उन्होंने 1917 की शुरुआत में आम आदमी को फिल्म कैसे बनाई और दिखाई जाती है की जानकारी देने के लिए हाउ फिल्म्स आर मेड का निर्माण किया। फालके आजीवन कैमरा और सम्पादन तकनीक में प्रयोग करते रहे। उन्होंने सत्तर फिल्मों का निर्माण किया । उन्होंने फिल्म निर्माण की पहली भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ स्क्रिप्ट, निर्माण, निर्देशन, शूटिंग और एडिटिंग सहित लगभग सभी विधाओं में काम किया।दादा फाल्के की सबसे अधिक सफल फिल्मों में ‘लंका दहन’, ‘श्रीकृष्ण जन्म’ और ‘कालिया मर्दन’ जैसी पौराणिक फिल्में शामिल हैं।
समय बदला 1920 में फिल्म निर्माण के क्षेत्र में अन्य लोग भी जुड़ गए। जिस साल सवाक फिल्म आलमआरा रिलीज हुई, फालके की फिल्म सेतु बन्धन का भी प्रदर्शन हुआ । सवाक, आलमआरा के सामने मूक सेतु बन्धन की सफलता संदिग्ध थी। इसलिए सेतु बन्धन को 1934 में डब करके रिलीज किया गया । दादासाहब फालके की अंतिम फिल्म ‘गंगावतरण’ 1937 में प्रदर्शित हुई थी । लेकिन, यह फिल्म दर्शकों को आकर्षित कर पाने में असफल रही । इसे विडम्बना ही कहा जायेगा कि भारतीय फिल्मों के इस पितामह ने 1944 में गुमनामी के अंधेरे में अपनी अंतिम सांस ली ।
आलमआरा
पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ फिल्मों को आवाज देने वाले आर्देशर ईरानी पहली रंगीन फिल्म ‘किसान कन्या’ आर्देशर ईरानी की 81 साल पहले बम्बई के मैजिस्टिक सिनेमा में रिलीज फिल्म ‘आलमआरा’ भारत की पहली टॉकी फिल्म थी । इस फिल्म से फिल्मों में संगीत की शुरुआत भी हुई । दो घंटा चालीस मिनट की यह फिल्म टेनर साउंड सिस्टम में बनायी गई थी । जोसेफ डेविड द्वारा लिखित इस पीरियड फैंटेसी फिल्म की कहानी एक बूढ़े राजा और उसकी दो रानियों नव बहार और दिल बहार के बीच राज्य की बागडोर सम्हालने के लिए रचे जा रहे षड्यंत्र की थी ।
किसान कन्या
क्योंकि एक नजूमी ने नवबहार के राजा का उत्तराधिकारी बनने की भविष्यवाणी कर दी थी । इस फिल्म और इसके संगीत को जबर्दस्त सफलता मिली । फिल्म में मोहम्मद खान का गाया गीत ‘दे दे खुदा के नाम पर’ ने उस दौर में खासी धूम मचाई थी। फिल्म आलमआरा का निर्माण शोर शराबे से बचने के लिए पूरी शूटिंग रात में होती थी। कलाकारों की आवाज टेप करने के लिए माइक्रोफोन कैमरे के दायरे में छुपा दिया जाता था । इस फिल्म का अंतिम प्रिंट पुणे फिल्म संस्थान में लगी एक आग में नष्ट हो गया । फिल्म में विट्ठल, जुबैदा, एलवी प्रसाद और पृथ्वीराज कपूर मुख्य भूमिका में थे ।
फिल्मों के गूंगे चरित्रों को आवाज दिलाने वाले आर्देशर ईरानी ने ही ‘किसान कन्या’ के तमाम किरदारों में रंग भरे। किसान कन्या भारत में ही प्रोसेस की गयी पहली फिल्म थी । एक गरीब किसान और जमींदार की बेटी की इस रंगीन प्रेम कहानी को खास सफलता नहीं मिली । वास्तविकता तो यह थी कि उस दौर में रंगीन चित्रों को दर्शकों ने मान्यता नहीं दी । सोहराब मोदी की 1953 में रिलीज फिल्म ‘झांसी की रानी’ टेक्नीकलर में बनायी गयी पहली फिल्म थी । विष्णु गोविन्द दामले और शेख फत्तेलाल की फिल्म ‘संत तुकाराम’ ने वेनिस फिल्म मेले में इंटरनेशनल एग्जीबिशन ऑफ सिनेमाटोग्राफिक आर्ट की श्रेणी में चुनी गई तीन फिल्मों में स्थान पाया । किसान कन्या में पद्मादेवी, जिल्लो, गुलाम मोहम्मद और निसार की मुख्य भूमिका थी पाश्र्वगायन की शुरुआत प्रारम्भ में पर्दे पर नायक नायिका अपने गीत खुद ही गाते थे ।
1935 में नितिन बोस ने अपनी फिल्म ‘धूप छांव’ में पाश्र्व गायन की तकनीक इंट्रोड्यूज की । इस तकनीक ने पर्दे पर कभी नजर न आने वाले पाश्र्व गायकों और गायिकाओं को भी स्टार बना दिया ।
आर्देशर ईरानी
ध्वनि तकनीक के विस्तार के साथ ही ‘इन्द्रसभा’ और‘देवी देवयानी’ जैसी गीत संगीत से भरपूर फिल्मों का निर्माण हुआ । मदन थियेटर द्वारा निर्मित भारत की दूसरी सवाक फिल्म ‘शीरी फरहाद’ 30 मई 1931 को रिलीज हुई। इस फिल्म का निर्देशन जे0जे0 मदन ने किया था । इस फिल्म में 18 गीत थे सबसे ज्यादा 69 गीतों वाली फिल्म इन्द्रसभा थी ।
खान बहादुर आर्देशर ईरानी का जन्म 5 दिसम्बर 1886 को पूना में हुआ था। वह मशहूर लेखक, निर्माता, निर्देशक, एक्टर, फिल्म वितरक और फोटोग्राफर थे । उन्होंने हिन्दी, तेलुगु, इंग्लिश, जर्मन, इंडोनेशियन, पर्शियन, उर्दू और तमिल में फिल्में बनाईं। उनके कई फिल्म थियेटर थे तथा वह ग्रामोफोन कंपनी के मालिक थे । उन्होंने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम 1920 में ‘नल दमयंती’ फिल्म बना कर किया । 14 मार्च 1931 को पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ रिलीज हुई । उन्होंने एक अंग्रेजी फीचर फिल्म ‘नूरजहां’ का भी निर्माण किया । पहली रंगीन फिल्म ‘किसान कन्या’ बनाने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है । भारतीय सिनेमा को पृथ्वीराजकपूर और महबूब खान जैसी हस्तियां आर्देशर ईरानी के इम्पीरियल स्टूडियो के कारण ही मिली । उन्होंने कुल 158 फिल्मों का निर्माण किया । उनकी मृत्यु 14 अक्तूबर 1969 को हुई ।