आत्मानुभूति

मधुरिता 

आत्मा की अनुभूति मानव जीवन में ही सरलता व सुगमता से चेतन (तत्व) का अनुभव ज्ञान लाभ कर सकते हैं केवल हमें गुहार लगाने की देर है अर्थात सच्चे मन से,सरल ह्रदय से उनका दर्शन संभव है |

मानव जीवन का लक्ष्य क्षणिक सुख प्राप्त करना नहीं है,स्थायी शांति और चिर-स्थायी आनंद तभी संभव है जब हमें अनंत की अनुभूति हो तथा इस तथ्य की अनुभूति हो की अनंत ईश्वर ही हमारा वास्तविक स्वरुप है |

हम जीवन के उच्चतम मूल्यों और आदर्शों के प्रति आकर्षित होते हैं क्योंकि जीवन में पूर्णता प्राप्त करना है परन्तु साथ ही साथ हम शारीरिक इच्छाओं के दास बन जाते हैं |यही अंतर्द्वंद का कारण है , अर्थात एक प्रकार से अंतरात्मा की पुकार तथा इन्द्रिय सुख के प्रलोभन के बीच हम ऐसे उलझ के रह जाते हैं की अपने परम लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति की सच्ची लगन अनुभव तो करते हैं लेकिन अपने राह से भटक जाते हैं | हम जैसा सोचते हैं वैसा ही बन जाते हैं |


जो अंतरात्मा की पुकार सुनता है व जो अन्तर्द्वंदों की अनुभूति करता है वही सफल होता है | मनुष्य का विवेक उसकी बुद्धि उसका हृदय यह सभी इस संसार रुपी क्षीर सागर के मंथन में लगे हुए हैं | दीर्घ काल तक मथने के बाद उसमें से मक्खन निकलता हैं और यह मक्खन है भगवान् | हृदयवान व्यक्ति मक्खन पा लेता है और कोरे बुद्धिमानों के लिए सिर्फ छाछ बच जाती है |

यदि दूसरों को सिखलाना हो तो बहुत सी विद्वता और बुद्धि की आवश्यकता होगी , पर आत्मानुभूति के लिए यह आवश्यक नहीं है | क्या हम शुद्ध हैं ? क्या हम पवित्र हैं ? यदि शुद्ध हैं तो परमेश्वर को पायेंगे | जिनका हृदय शुद्ध है वे धन्य हैं क्योंकि उन्हें परमात्मा की प्राप्ति अवश्य ही होगी | पर यदि हम शुद्ध नहीं हैं फिर चाहे दुनिया के सारे विज्ञान ही हमें मालूम क्यों न हो,उसका कुछ भी उपयोग न होगा |

वह हृदय ही है जो अंतिम ध्येय तक पहुँच सकता है इसलिए हृदय का ही अनुगमन करना चाहिए | शुद्ध हृदय सत्य के प्रतिबिम्ब के लिए सर्वोत्तम दर्पण है | इसलिए सारी साधना हृदय के शुद्धिकरण के लिए ही है | ज्यों ही वह शुद्ध हो जाता है त्यों ही सम्पूर्ण सत्य उसी क्षण उस पर प्रतिबिंबित हो जाता है | हृदय पर्याप्त शुद्ध होगा तो दुनिया के सारे सत्य उसमें प्रकट हो जायेंगे | इसलिए सदा हृदय को पवित्र बनाना चाहिए क्योंकि वो हृदय ही है जिसके द्वारा भगवान् स्वयं कार्य करते हैं और बुद्धि द्वारा हम |

भाव का उद्गम स्थान ही हृदय है | अतः कहा गया है भाव के सूक्ष्म होने पर ही ईश्वरीय दर्शन संभव है | सच ही तो है –‘भाव का भूखा हूँ मैं ,भाव ही बस सार है
भाव से मुझको भजो तो भव से बेडा पार है |
भाव बिन सूनी पुकारें मैं कभी सुनता नहीं
भाव पीड़ित टेर ही करती मुझे लाचार है…करती मुझे लाचार है |’

उसी को भगवान् मिलते हैं | मीरा को भी मिले, तभी तो वह गा उठी – “पायो जी मैंने राम रतन धन पायो |”
अभी तक सम्पूर्ण मानव जाति बुद्धि को ही तीव्र करने में लगी हुई है | हृदय अर्थात भाव की तरफ ध्यान तो दिया ही नहीं है,जिसके कारण हमारी मानवीय सभ्यता दिशाहीन हो गयी है-विनाश की तरफ ही जा रही है | इसे अगर रोकना है तो हमें हृदय की तरफ देखना होगा अर्थात हमें अपने भावों को उदात्त बनाना ही होगा |

बुद्धि और हृदय का योग अर्थात ज्ञान तथा भक्ति का योग होना ही होगा तभी हमारे कर्म शुद्ध होंगे तथा मानवता पल्लवित, पुष्पित एवं फलित होगी –इसके साथ ही सुगन्धित भी होगी – सत् चित् आनंद से |