प्रिया जिंदल
बीएड छात्रा, इग्नू
आज दीवारे नम हैं। गीली ररसती हुई। करीने से सजे इस घर में आज अचानक ऐसा क्या हुआ जो आज ये घर, घर नही, कुछ मुरझाई उजड़ी दीवारों का मात्र एक ढाांचा ही रह गया। हिम्मत करकर मैंने पूछ ही लिया “आखिर क्या है तुम्हारी व्यथा”। वो सिसक पड़ी, चल्लाने लगी, तड़पकर अपनी पीड़ा बताने लगी।
“आज माँ चली गयी”। अपनी इच्छानुसार नही , लडखडाती हुई, गिड़गिड़ाती हुई। ना निकाले जाने की गहुार सांतानों से लगाती हुई। वर्षों से ये दीवारे साक्षी थी उस ममता की, उस प्रेम –स्नेह, दुलार व चिंता की। सांतान के, परिवार के प्रत्येक जन के प्रति निःस्वार्थ समर्पण की। पर आज ये दुर्भाग्यशाली दीवारे गवाह बन गयी थी, ममता की निर्मम हत्या की।
बेचारी तब से रोये ही जा रही है अपने दुर्भाग्य पर, अपनी बेबसी पर, अपनी मढ़ूता पर। ईश्वर से शिकायत कर रही है कि उसने इन्हें हाथ क्यों नही दिए? होते तो आज ये उस लडखडाती माँ को संभाल तो पाती। उस बेचारी को गिरने ना देती। उसे बाहों में भर लेती ।
उसने इन्हें जुबान क्यों नही दी? बोल सकती तो पूछती उस निर्दयी सांतान से-तुम्हे वर्षों गोद में उठाने वाली, तुम्हे पेट भर खिलाने वाली, तु म्हारे प्रत्येक सुख दुःख से क्षण-प्रतिक्षण प्रभावित होने वाली माँ , जिसके लिए तुम्ही उसका सांसार थे , आज तुम पर भार कैसे हो गयी? तुम मे इतनी नफरत कहाँ से आ गयी? क्या उसकी ममता, उसके प्रेम, उसके त्याग का यही पुरस्कार था जो तुमने आज उस अबला को ,इस आयु में बेघर कर दिया?
अगर जुबान होती तो चीत्कार करती इस घोर कुकृत्य का, इस पाप का। पर आज माँ की तरह ये दीवारे भी बेबस हैं। इनकी मूक चीत्कार किसी को सुनाई नही देती। वैसे भी पत्थर दिलों को जब माँ का क्रंदन, दर्द ही नही दिखा तो इन दीवारों का किन आँखों से दिखेगा।