महामहिम राष्ट्रपति डॉ. के.आर. नारायणन देश के पहले दलित राष्ट्रपति थे । उनका सम्पूर्ण जीवन संघर्ष से भरा हुआ था। वे केरल के एक छोटे से गांव पेरुमथानम उझावूर, त्रावणकोर में 27 अक्टूबर, 1920 को जन्मे थे ! उनके पिता आयुर्वेदिक ओषधिओं के ज्ञाता थे इसी से वे अपना परिवार चलाते थे ! घर में इतनी भयंकर गरीबी के बावजूद भी उनको घर से 15 किलोमीटर दूर सरकारी स्कूल में पैदल पढ़ने जाना पड़ता था ! घर की आर्थिक हालत ख़राब होने की वजह से कभी – २ वह वक़्त पर अपनी फ़ीस नहीं दे पाते थे जिसके कारण उनके अध्यापक उन्हें क्लास में खड़े रहने का आदेश दे देते थे , लेकिन वह सारा दिन खड़े – २ लेक्चर सुनकर घर आते थे , ऐसा नहीं होता था कि अध्यापक ने क्लास से बाहर निकाल दिया और वह भागकर घर आ गए ! उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में पढ़ाई की ! जब वह 1945 में भारत लोटे तो उनके एक प्रोफेसर – हेराल्ड लास्की ने उनको भारत के प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू के नाम एक पत्र लिखकर दिया, जिसमें उनकी तीक्षण बुद्धि व प्रतिभा की प्रशंसा करते हुए उनको एक बढ़िया नौकरी देने की सिफारिश की गई थी , चूंकि उन्होंने अपनी तीन वर्ष वाली डिग्री केवल दो वर्ष में ही विशेष योग्यता के साथ अच्छे अंक लेकर पास कर ली थी ! जब वह पत्र उन्होंने प्रधान मंत्री नेहरू जी को दिया, तो नेहरू जी ने उन्हें बर्मा में भारतीय एम्बेसी में एक उच्च पद पर नियुक्त कर दिया !
महामहिम राष्ट्रपति डॉ. केआर नारायणन जी ने सन 1943 में त्रावणकोर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में प्रथम श्रेणी से एमए पास किया और पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम आये ! एमए पास करने वाले वह पूरे केरल स्टेट में वह पहले दलित विद्यार्थी थे ! एमए के बाद उन्होंने महाराजा कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर पद के लिये आवेदन किया। लेकिन त्रावणकोर के दीवान सीपी रामास्वामी अय्यर ने नारायणन को आवेदन पत्र से जब इनकी दलित जाति का पता चला , तो उसने इस पद पर नियुक्ति को रोक दिया और कहा कि आपको हम सिर्फ़ क्लर्क पद के लिए ही नियुक्त किया जा सकता हैं !
अय्यर के मन में जातीय भेदभाव इस क़दर भरा हुआ था कि वह कामगार किसान आदिवासी-कबाइली जमात के किसी भी युवक-युवतियों को प्रवक्ता पद पर आसीन होते सहन नहीं कर सकता था। स्वाभिमानी नारायणन जी ने भी क्लर्क की नौकरी पर काम करने से साफ़ – 2 यह बोलकर इन्कार कर दिया कि जब उस पद के लिए मेरी शैक्षणिक योग्यता आपके द्वार निर्धारण के हिसाब से पूरी है , तो उसके लिए मुझे क्यों नहीं नियुक्त किया जा रहा ? इतना बोलकर वह इंटरव्यू से वापिस आ गए , इसके ठीक बाद में विवि के दीक्षांत समारोह में बीए की डिग्री लेने से भी मना कर दिया। इस घटना के चार दशक बाद सन 1992 में उप राष्ट्रपति बनने पर उनके गृह राज्य केरल में उसी विश्वविद्यालय ने उनका स्वागत करने के लिए निमंत्रण दिया ! उस वक़्त की तत्कालीन जातिवादियों की व्यवस्था पर तंज कसते हुए नारायणन जी ने बोला “आज मुझे उन जातिवादियों के दर्शन नहीं हो रहे हैं’ जिन्होंने वंचित जमात का सदस्य होने के कारण इसी विश्व विद्यालय में मुझे मेरी जाति के कारण प्रवक्ता बनने से वंचित कर दिया था”। 1944 में वह जेआरडी टाटा से छात्रवृति प्राप्त करके लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में अर्थ शास्त्र व राजनीति शास्त्र में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड चले गए ! 1946 में श्री नारायणन जी दिल्ली में डॉ. बी. आर. आम्बेडकर जी से मिलने आये थे। डॉ. अम्बेडकर जी उस समय के वायसराय की काउंसिल में श्रम विभाग के सदस्य थे। नारायणन जी की योग्यता को देखते हुए डॉ. अम्बेडकर जी ने उन्हें दिल्ली में ही भारत ओवरसीज विभाग (जिसे अब “विदेश विभाग “कहा जाता है) में 250/- रुपये प्रतिमाह पर सरकारी नौकरी दिलवा दी।
1949 में उन्होंने इंडियन फॉरेन सर्विसेज पास करने के बाद में जब वह बर्मा की एम्बेसी में उच्च पद पर अपनी नौकरी के दौरान ही उनको वहाँ नौकरी कर रही बर्मा की नागरिक लड़की और अपनी एक सहकर्मी अधिकारी, माँ टिनटिन से मोहब्बत हो गई ! लेकिन वह शादी नहीं कर सकते थे , क्योंकि एम्बेसी में काम करने वाले सभी अधिकारियों को एक सरकारी नियम के चलते किसी विदेशी लड़की से शादी करने की मनाही थी ! लेकिन नारायण जी इस बर्मी लड़की के साथ शादी को लेकर बड़े संजीदा थे , इसलिए वह दिल्ली आकर प्रधान मंत्री, नेहरू से मिले और उनसे एम्बेसी में नौकरी के नियमों में से यह क्लॉज़ हटाने के लिए अपील की ; क्योंकि यह क्लॉज़ किसी भी इन्सान के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है ! प्रधान मंत्री नेहरू उनकी उस दलील से सहमत हो गए और शादी में अड़चन पैदा करने वाली क्लॉज़ को सर्विस रूल्स में से हटा दिया गया ! इसके बाद नारायणन जी ने उस लड़की – माँ टिनटिन से 8 जून, 1951 को शादी कर ली और शादी के बाद उन्होंने अपने देश की संस्कृति से मेल खाता हुआ अपनी पत्नी का नाम – “उषा नारायणन” रख दिया !
राजनियिक के तौर पर नारायणन जी टोकियो, लंदन, ऑस्ट्रलिया, हनोई में स्थिति भारतीय उच्चायोग में प्रतिष्ठित पदों पर रहे और चीन के राजदूत भी नियुक्त हुए। वहाँ से रिटायर होने के बाद सन 1979 में लगभग दो साल के लिए जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के कुलपति बन गए ! सन 1980 से 1984 तक अमेरिका के राजदूत भी रहे।
अमरीका के राजदूत के पद से सेवा निवृत होने के बाद नारायणन जी ने उस वक़्त की प्रधान मंत्री, श्रीमती इंदिरा गाँधी के आग्रह करने पर राजनीति में कदम रख दिया और केरल के ओट्टापलल से 1984 में चुनाव जीतकर लोकसभा पहुँच गए ! वहीं से ही वह तीन बार कांग्रेस पार्टी की तरफ़ से चुनाव लड़े और जीते ! 1992 में जब राष्ट्रपति का चुनाव नज़दीक आ रहा था और सभी पार्टियाँ धीरे – २ अपने – २ पत्ते खेल रही थी ! देश के नौवें राष्ट्रपति के लिए जब शंकर दयाल शर्मा का नाम राष्ट्रपति पद के आया, तो उस वक़्त के प्रधान मंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने कांग्रेस के उम्मीदवार शर्मा के समर्थन पाने के लिए सभी बड़ी – २ पार्टियों की बैठक बुलाई और उसमें शर्मा को कांग्रेस का उम्मीदवार बताते हुए उनसे समर्थन माँगा ! इसी बैठक में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के नेता सरदार हरकिशन सिंह सुरजीत ने अपना पक्ष पेश किया – “हम आपके उम्मीदवार को समर्थन देने के बारे में गंभीरता से विचार कर सकते हैं , अगर उप राष्ट्रपति के लिए आप किसी दलित नेता को उम्मीदवार घोषित करें !” सभा में मौजूद भाजपा के नेताओं के पास भी इस तर्क की कोई काट नहीं थी , इसलिए उनके नेता अटल बिहारी बाजपाई ने उत्तर दिया कि अगर कांग्रेस किसी किस्म के विवादों रहत नेता को उप राष्ट्रपति के लिए तैयार हो जाते हैं , तो हम भी उसका समर्थन कर सकते हैं ! फ़िर हरकिशन सिंह सुरजीत से पूछा गया कि क्या कोई ऐसा नेता आपकी नज़र में है ? तब उन्होंने जवाब दिया कि केरल से एक दलित नेता हैं जो बहुत अच्छे पढ़े लिखे भी हैं, जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के कुलपति रह चुके हैं , वह हिन्दू और टाइम्स ऑफ़ इंडिया अख़बार में पत्रकार भी रह चुके हैं, थाईलैंड , तुर्की और चीन के राजदूत रह चुके हैं, चार वर्ष के लिए अमरीका में भारत के राजदूत भी रह चुके हैं ! इतना ही नहीं, राजीव गाँधी की सरकार में मंत्री पद भी सफ़लता पूर्वक सम्भाल चुके हैं — केरल से के.आर. नारायणन , अब तक उनके बारे में कोई विवादित मुद्दा भी नहीं सामने आया है, इसलिए आप इस पे अगर सहमत हो जायें तो देश के अगले उप राष्ट्रपति उनको ही बनाया जाना चाहिए ! उनके नाम के प्रस्ताव का जनता पार्टी के नेता श्री वीपी सिंह ने भी ज़ोरदार समर्थन किया तो ऐसे उनके बारे में सभी बिन्दुओं पर विचार करने के बाद तैय किया गया कि सभी दल राष्ट्रपति के लिए शंकर दयाल शर्मा को वोट करेंगे और उप राष्ट्रपति के लिए केआर नारायणन का नाम पक्का कर लिया गया ! सो इस तरह, वह 21 अगस्त, 1992 को उप राष्ट्रपति बने और जुलाई 1997 में राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा के सेवा निवृत होने के बाद श्री नारायणन जी को कांग्रेस उम्मीदवार बनाया गया और अन्य पार्टियों के साँझा उम्मीदवार – टी.एन. सेशन (जोकि देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त रह चुके थे) ने चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया ! इस चुनाव में नारायणन ने कुल मत्तों के मूल्य के 95 % वोटों के बहुत बड़े मार्जिन से सेशन को हराकर देश के अगले राष्ट्रपति बने ! सो ऐसे 25 जुलाई 1997 को श्री नारायणन देश के दसवें और पहले दलित राष्ट्रपति बने और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जे.एस. वर्मा ने नारायणन जी को राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाई ! वह 25 जुलाई 2002 तक इस पद पर रहे !
1. देश पहले दलित राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने केवल रबड़ के राष्ट्रपति बनने से इन्कार कर दिया और वह अक्सर अपनी बुद्धि और विवेकशीलता से काम लेते थे ! वह कुशल राजनेता होने के साथ-साथ एक अच्छे अर्थशास्त्री भी थे ! जब भी उनको लगता था किसी मुद्दे पर लाया गया सरकार का प्रस्ताव सही नहीं है , तो वह उसे ठुकरा देते थे, वह एक सक्रिया और तर्कशील / अपनी बुद्धि और विवेक से काम करने वाले राष्ट्रपति बनते जा रहे थे और सरकार को प्रस्ताव पे दोबारा विचार करने को कहते थे ! और यही एक जीवंत / प्रगतिशील लोकतंत्र की पहचान है ! क्योंकि वह बहुत पढ़े लिखे थे , देश के कानून क़ायदे से अच्छी तरह वाक़िफ़ भी थे और साथ ही साथ देश में प्रत्येक क्षेत्र में व्यापक छुआछूत और भेदभाव को भी बहुत अच्छी तरह जानते , समझते और खुद भी इसका खामियाज़ा भुक्त चुके थे ! तो ऐसे एक बार उनके पास जब सरकार की तरफ़ से 10 न्यायाधीशों के पैनल के लिए प्रस्ताव आया तो उन्होंने बिना हस्ताक्षर किये फ़ाइल यह कहते हुए वापस कर दी कि – क्या 10 न्यायाधीशों के इस पेनल के लिए इतने बड़े देश में आपको एक भी अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति का कोई योग्य जज क्यों नहीं है ? देश के सभी न्यायालय के जजों में उनकी भी तो उचित भागीदारी होनी चाहिए? आज़ादी के इतने दशकों बाद भी उनको समाजिक न्याय नहीं मिलेगा ? उनके ऐसे तेवर देखकर सरकार और सुप्रीम कोर्ट में हड़कंप मच गया, सत्ता पक्ष को भी समझ आ गया था कि राष्ट्रपति की इस टिप्पणी को ना तो वह हलके में ले सकते हैं और ना ही इसको नज़रअंदाज़ करने की भूल कर सकते हैं ! देश की इतनी बड़ी आबादी के इतने बड़े भाग को आप कब तक ऐसे ही टालते रहोगे ? तब जाकर उस पैनल में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के.जी. बाल कृष्णन का नाम डाला गया , जोकि बाद में अनुसूचित जाति के पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश भी बने!
देश के राष्ट्रपति की इस टिप्पणी से सरकार से लेकर न्यायालय में हड़कंप सा मच गया था और न्यायिक पदों के लिए देश में वंचितों और आदिवासियों के प्रतिनिधित्त्व के मामले में बड़े सत्तर पर बहस शुरू हो गई । एक राष्ट्रपति की इस बेबाक टिप्पणी ने वंचित समाज के लोगों के लिए सर्वोच्च न्यायालय में प्रवेश का रास्ता खोला गया था। सत्तारूढ़ मनुवाद व मुनीमवाद की मान्यताओं / रिवायतों के अनुसार नहीं चलने के कारण ही श्री केआर नारायणन जी को दोबारा राष्ट्रपति का चुनाव के लिए उम्मीदवार नहीं बनाये जाने पर अटकलें लगनी शुरू हो गई थी, क्योंकि उनको केवल एक रबड़ स्टैम्प राष्ट्रपति ही चाहिए था , जोकि सरकार के हर फ़ैसले / प्रस्ताव पर आँखें बंद करके हाँ में हाँ मिलाता जाये ! अपने विपरीत हवा का रुख भाँपकर नारायणन जी ने भी अपना मन स्पष्ट करते हुए राजनैतिक पार्टियों को सन्देश दे दिया था – कि अगर सभी पार्टियाँ आम सहमति से उनको अपना साँझा उम्मीदवार बनाती हैं तो वह दूसरी बार भी चुनाव लड़ सकते हैं , अन्यथा नहीं ! वर्तमान वाले महामहिम राष्ट्रपति को पूर्व राष्ट्रपति श्री नारायणन जी से भी बहुत कुछ सीख लेने की जरुरत हैं । समस्त दलित समाज इसका हिसाब आपसे किसी दिन अवश्य पूछेगा ।
(यहाँ यह बात बता देनी भी उपयुक्त है कि दलित समाज से सम्बंधित दो और सर्वोच्च न्यायालय के जजों के मुख्य न्यायाधीश बनने के अब आसार नज़र आ रहे हैं , कारण – सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम ने मोदी सरकार को जजों की पदोन्नति के लिए दो जजों के नाम भेजे हैं ! कॉलेजियम ने बॉम्बे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति भूषण रामकृष्णा गवई और हिमाचल प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश सूर्या कांत का नाम पिछले बुधवार को पदोन्नति के लिए आगे बढ़ाया है, और सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनाने की सिफ़ारिश की है ! अगर मोदी सरकार इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेती है तो दोनों जज देश के मुख्य न्यायाधीश बन सकते हैं !)
2. दूसरा कड़ा कदम तब उठाया जब वाजपेई सरकार ने वीर सावरकर को भारत रत्न देने के प्रस्ताव यह टिप्पणी करते हुए वापिस भेज दिया कि सावरकर एक बहुत विवादित नाम है और ऐसे बन्दे को भारत रत्न देने का मतलब इतने बड़े रिवॉर्ड की अहमियत कम करना होगा ! उसके बाद इस मुद्दे पर सावरकर का नाम कभी नहीं आया !
3. तीसरा कड़ा कदम उस वक़्त उठाया जब वाजपेई सरकार ने बिहार में राबड़ी देवी की सरकार को खराब कानून कायदे की व्यवस्था का हवाला देते हुए उसे बर्खास्त करने की सिफ़ारिश कर दी ! उन्होंने इस फाइल पर भी अपने हस्ताक्षर करने से इनकार ( सितम्बर 1998 में ) करते हुए प्रस्ताव ख़ारिज कर दिया ! उन्होंने एतराज़ जताया कि एक दलित मुख्य मंत्री को जन्नादेश के मुताबिक उसका पाँच वर्ष का कार्यकाल क्यों नहीं पूरा करने दिया जा रहा ?
4. दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराने पर भी उन्होंने कड़ी आपत्ति जताई थी और इस घटना पर खेद प्रकट करते हुए बोला कि धार्मिक स्थलों को गिराया जाना आज़ाद देश के इतिहास में गलत कृत्य है और देश के इतिहास में इसे एक काले दिन के रूप में जाना जायेगा !
5. 26 जनवरी 2000 को अपने देश के नाम सम्बोधन में उन्होंने इस बात का उल्लेख किया कि देश में व्यापक छुआछात और भेदभाव की वजह से जहाँ दलितों और अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को सामाजिक और आर्थिक न्याय नहीं मिल पा रहा है, जिसकी वजह से भी देश अन्य विकासशील देशों के मुकाबले में आज़ादी के इतने दशकों बाद भी पिछड़ा हुआ है !
ऐसे महामहिम की आज के संदर्भ में सख्त जरूरत अनुभव हो रही है , और देश में जगह – २ घट रही राजनैतिक गतिविधियों पर नज़र रखने वालों को इन सभी बातों को नहीं भूलना चाहिए और समय – २ पर इससे थोड़ी बहुत सीख भी लेनी चाहिए , ख़ास तौर पे उत्तर भारत के करोड़ों दलित समाज के लोगों को भी ! श्री के.आर. नारायणन जी ने कुछ किताबें भी लिखीं, जिनमें “इण्डिया एण्ड अमेरिका एस्सेस इन अंडरस्टैडिंग”, “इमेजेस एण्ड इनसाइट्स” और “नॉन अलाइमेंट इन कन्टैम्परेरी इंटरनेशनल रिलेशंस” काफी महत्त्वपूर्ण हैं ! उनको को टोलेडो विश्वविद्यालय, अमेरिका ने ‘डॉक्टर ऑफ साइंस’ की तथा ऑस्ट्रेलिया विश्वविद्यालय ने ‘डॉक्टर ऑफ लॉस’ की उपाधि दी !
नवम्बर, 2005 में वह गुर्दे की बीमारी से परेशान रहने लगे और दिल्ली के आर्मी रिसर्च एण्ड रैफरल हॉस्पिटल में उनका इलाज चल रहा था, यहीं पर 9 नवम्बर, 2005 को उनके गुर्दों फ़ैल हो जाने के कारण इनका निधन हुआ ! नारायणन जी को उनके महान व्यक्तित्व व महत्वपूर्ण कृत्यों की वजह से हमेशा याद किया जायेगा ! चित्रा और अमृता नाम की उनकी दो बेटियाँ हैं , बड़ी बेटी चित्रा नारायणन तो अपने पिताश्री के ही पद्चिन्नों पर चलते हुए इण्डियन फॉरेन सर्विसेज की बड़ी अधिकारी हैं और अनेक देशों के दर्शन करते हुए स्वीडन, तुर्की , लातविया , वेटिकन और स्विट्ज़रलैंड में भारत की एम्बेसडर के पद पर रह चुकी हैं !
यहाँ इस तथ्य को जगजाहिर करना भी अत्यंत आवश्यक है की कोई भी प्रतिभा / कला / हुनर / सुन्दरता इत्यादि जातिपाति या फ़िर धर्म मज़हब / लिंग की या फ़िर किसी भूगोलिक क्षेत्र की मोहताज़ नहीं होती ! दलित समाज से भी समय – २ पर बड़े २ प्रतिभाशील / होनहार / विद्वान विभूतियाँ जन्म लेती रही हैं , लेकिन उच्च पदों पर बिराज़मान अगड़ी जातियों के अधिकारियों / प्रभावशाली व्यक्तियों ने मनुवादी मानसिकता के कारण हमेशा ही उनका जातिगत विरोध / तिरस्कार / अनादर ही किया है, उनको हमेशा जातिपाति के कलंक की वजह से सदियों से नज़रअंदाज़ करते आये हैं ! जब यह बात लगभग निश्चित हो चुकी थी कि देश अब आज़ादी हासिल करने ही वाला है, और आज़ाद को देश चलाने के लिए अपना संविधान भी चाहिए , तब डॉ. बीआर अम्बेडकर को इस संविधान निर्माण समिति का चेयरमैन बनाया गया था, क्योंकि उनकी टक्कर का कोई और बड़ा विद्वान / इतना ज़्यादा पढ़ा लिखा नेता कोई और था ही नहीं , जोकि इतने विशाल कार्य को सफ़लता पूर्वक अंजाम दे सके ! और उनके सहयोग के लिए अनेक मुद्दों पर काम करने के लिए 30 समितियाँ बनाई गई थी ! इन तीस समितियों में काम करने वाले अनेक अधिकारियों में से 15 महिला अधिकारी भी थी ! और इन 15 महिला अधिकारियों में से केवल एक दलित महिला थी – श्रीमती दक्षयानी वेलयुधन !
इन सभी महिलाएं की शैक्षणिक योग्यता कम से कम स्नातक (ग्रेजुएट) थी ! यह दलित महिला वेलयुधन भी कोचीन, केरल की ही रहने वाली थी और देश की आज़ादी के बाद वह वहां की विधान सभा की दो बार सदस्य (एमएलए) भी चुनी गई थी!
आर डी भारद्वाज नूरपुरी