7 फ़रवरी करोड़ों देशवासियों ने, खास तौर पे करोड़ों बहुजन समाज के भाईओं और बहनों ने माता रमाबाई आंबेडकर , देश के उच्कोटि के विधिवेत्ता, अर्थ शास्त्री, राजनीतिज्ञ और महान समाज सुधारक नेता और भारत के संविधान निर्माता , डॉ. बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर जी की पत्नी का जन्म दिवस मनाया । उन्होंने दलित बौद्ध आंदोलन को प्रेरित किया और दलितों के ख़िलाफ़ सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध एक प्रभावशाली अभियान चलाया और कॉफ़ी हद तक उन्हें इस कार्य में सफ़लता भी हासिल हुई । उन्होंने पुरज़ोर तरीके से श्रमिकों और महिलाओं के अधिकारों का समर्थन किया । भारत के मसीहा, महिलाओं को समानता का अधिकार दिलाने वाले, मानव जाति का उत्थान करने वाले, दलितों और शोषितों और वंचितों को उनके सदियों से छीने गए अधिकार दिलाने इस महापुरुष ने नौकरी करने वाली महिलाओं को प्रसूति अवकाश दिलवाने में बहुत बड़ी भूमिका सफलता पूर्वक निभाई ! इतना ही नहीं, पहली अप्रैल , 1935 को रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया की स्थापना भी उनकी लिखी हुई पुस्तक “The Problem of the Rupee – Its Origin and It’s Solution.” के आधार पर ही की गई थी ! बाबा साहेब विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के निर्माण कर्ता, भारतीय संविधान के प्रमुख शिल्पकार भी बने और बाद में वे स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री भी । डॉ. अम्बेडकर अदभुत प्रतिभा के धनि थे। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थ शास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की और ऐसी ख्याति प्राप्त करने वाले वह पहले और अबतक आख़िरी भारतीय हैं । उन्होंने विधि, अर्थ शास्त्र और राजनीति विज्ञान के शोध कार्य में ख्याति प्राप्त की। जीवन के प्रारम्भिक करियर में वह अर्थ शास्त्र के प्रोफ़ेसर रहे और वकालत भी की। उनका बाद का जीवन राजनैतिक गतिविधियों में ज़्यादा बीता। फ़रवरी 1990 में, उन्हें भारत रत्न, भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से मरणोपरांत सम्मानित किया गया था, जब डॉ. वी पी सिंह देश के प्रधान मंत्री थे । ऐसे महान विद्वान व समाज सुधारक को हमारा लाख – २ प्रणाम ! आज पूरा दलित व शोषित और वंचित वर्ग का समाज जो भी चेतनता, शिक्षा, सुख – सुविधाओं और प्रगति की बुलंदियाँ छू रहा है, वह सब उस महान संघर्ष कर्त्ता और बहुत बड़े आन्दोलनकारी / क्रन्तिकारी नेता की बदौलत ही है और उनको अपने ज़माने के कांग्रेस के सभी बड़े – २ नेताओं से समाज के उत्थान और कल्याण के लिए बहुत कड़ा संघर्ष करना पड़ा था ! डॉ. अम्बेडकर के साथ – २ आज हम चर्चा करेंगे उस महान देवी की, जिसने बाबा साहेब के संघर्ष के दिनों में उनके साथ न केवल अत्यंत ही भीषम आर्थिक व समाजिक प्रस्थितियों का सामना किया , बल्कि बाबा साहेब के साथ हमेशा कन्धे से कन्धा मिलाकर चलती रही और उनकी कामयाबी में इस महान महिला का बहुत बड़ा तप – त्याग , संघर्ष और सहयोग भी रहा है !
ऐसा माना जाता है कि प्रत्येक महापुरुष की अपार सफ़लता के पीछे उससे सम्बंधित किसी नजदीकी महिला का बहुत बड़ा संघर्ष और योगदान होता है , फ़िर वह महिला भले ही उसकी माता , बहन या फ़िर जीवन-संगिनी ही क्यों ना हो । डॉ. अम्बेडकर के जीवन में उनकी माता भीमाबाई ने और उनकी पत्नी रमाबाई ने हज़ारों ऐसी कुर्बानियाँ दी जिनकी बेग़ैर शायद डॉ. अम्बेडकर वह ऊँचाईआं शायद ना छू पाते जो बड़े २ मुकाम उन्होंने अपनी छोटी सी जिन्दगी में हासिल किये थे ! लेकिन आज हैं केवल उनकी जीवन साथी माता रमाबाई के बारे में ही बात करेंगे , क्योंकि कल ही समस्त बहुजन समाज ने उनका जन्म दिवस मनाया है ! भारतीय महिलाओं की प्रेरणा स्रोत और त्यागमूर्ति माता रमाबाई अम्बेडकर के उस त्याग और सहयोग के बिना डॉ. बाबा साहेब का इतना ऊँचा महापुरुष बनना आसान नहीं होता । रमाबाई अम्बेडकर इसी त्याग और समर्पण की प्रतिमूर्ति थीं, जिसके आधार पर डॉ. अम्बेडकर देश के वंचित / शोषित समाज का इतना बड़ा उद्धार कर सके | रमाबाई का जन्म महाराष्ट्र के दापोली के निकट वणंद गांव में 7 फरवरी, 1898 में हुआ था। इनके पिता का नाम भीकू धूत्रे (वणंदकर) और मां का नाम रुक्मणी था। वह एक रेलवे स्टेशन पर कुलीगिरी का काम किया करते थे और परिवार का पालन-पोषण बड़ी मुश्किल से ही कर पाते थे। रमाबाई के बचपन का नाम रामी था। बचपन में ही उनके माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण रामी और उसके भाई-बहन अपने मामा और चाचा के साथ रहने के लिए मुंबई आ गए , जहां वो लोग एक चाल में रहते थे। जैसा कि उन दिनों ऐसा ही रिवाज़ परिचालित था कि लड़कियों की शादी बड़ी छोटी उम्र में ही कर देते थे , सो ऐसे ही रमाबाई की शादी भी बड़ी छोटी उम्र में ही – 12 मार्च 1906 को भीमराव अम्बेडकर कर दी गई थी , जब माता रामबाई मात्र नौ वर्ष की थी और बाबा साहेब अम्बेडकर जी 14 वर्ष के थे । वह तीन भाई बहनों में से सबसे बड़ी थी ! रमाबाई की सास भीमाबाई और ससुर रामजी राव सकपाल थे । इनकी जेठानी लक्ष्मीबाई ( विधवा ) बाबा साहेब के बड़े भाई आनन्दराव की पत्नी थीं और इनका एक भतीजा मुकुन्द राव था ।
बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर अपनी पत्नी को प्यार से ‘रामू कहकर पुकारा करते थे, जबकि माता रमा जी बाबा साहब को “साहेब” ही कहती थी। बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर जब अमरीका में थे, उस समय रमाबाई ने बहुत कठिन समय व्यतीत किया, बाबा साहेब जब विदेश में थे, तब भारत में रमाबाई को कई प्रकार की आर्थिक दिक्कतों को झेलना पड़ा, लेकिन उनकी कोशिश होती थी कि उनकी व्यक्तिगत और पारिवारिक परेशानियों की भनक डॉक्टर अम्बेडकर को न लगे, नहीं तो वह जिस संघर्ष में दिन रात लगे रहते थे, उसमें किसी प्रकार की वाधा आने से वह अक्सर डरती रहती थी । वह यह बात बड़ी अच्छी तरह जान चुकी थी कि बाबा साहेब केवल पढ़ने लिखने में ही बहुत अच्छे नहीं हैं , बल्कि उनके दिल में गरीबों के लिए और अपने बाकी बहुजन समाज के लिए बहुत कुछ कर गुजरने की बेजोड़ तीव्र इच्छा है और वह इसके लिए दिन-रात चिंतित भी रहते थे ! एक समय जब बाबा साहेब पढ़ाई के लिए इंग्लैंड में थे तो घर में धन आभाव के कारण रमाबाई को जिन लोगों के घर गाय भैंसे होती थी, उनके घर से गोबर ले आती और उसके उपले (पाथियाँ) बनाकर, बेचकर गुजारा किया करती थी । कभी – २ उनकी पड़ोस की औरतें और अन्य स्त्रियों उनका मजाक भी बनाती और कहती – कि देखो एक बैरिस्टर की पत्नी होते हुए भी यह गोबर ढोती है और अपने पति की इज्जत धूल में मिला रही है । लेकिन रमाबाई अपने संकल्प की और घर के बेहतरी के लिए इतनी पक्की और संकल्पवद्ध थीं कि झट्ट से उनको जवाब दे देती – “अपने घर के काम में करने में शर्म लज्जा कैसी ? मुझे किसी भी हालत में अपना घर गृहसथी सम्भालनी है !” उनको फ़िक्र यह होता था कि अपने सीमित साधनों में ही जैसे तैसे घर का खर्चा कैसे चलाना है ? पहनने ओढ़ने के लिए नए कपड़ों के लिए उनको कभी – २ दो तीन वर्ष तक भी इन्तेज़ार करना पड़ता था , लेकिन उन्होंने इसके लिए कभी भी बाबा साहेब से गिला शिक़वा नहीं किया !
उनकी गृहस्थी में सन 1924 तक पॉँच बच्चों ने जन्म लिया, लेकिन घर में विभिन्न प्रकार के अभावों की वजह से वह अक्सर बिमार पड़ जाती थी , ख़ुद भी वह शारीरक रूप से कमज़ोर ही थी , क्योंकि उनको खाने पीने के लिए अच्छा नसीब नहीं होता था और उनके बच्चे भी कमज़ोर ही पैदा हुए, बीमार होने पर वह ठंग से इलाज़ भी नहीं करवा पाती थी , जिसकी वजह से उनके चार बच्चे छोटी उम्र में ही मृत्यु को प्राप्त हो गए | किसी भी मां के लिए अपने बच्चों की मृत्यु देखना सबसे ज्यादा दुख की घड़ी होती है। माता रमाबाई को भी यह दुख तकलीफ़ चार बार सहनी पड़ी ! बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर और माता रमाबाई जी ने अपने पॉँच बच्चों में से चार को अपनी आंखों के सामने वित्तीय अभाव में मरते हुए देखा। गंगाधर नाम का पुत्र ढाई साल की अल्पायु में ही चल बसा। इसके बाद रमेश नाम का पुत्र भी नहीं रहा। इन्दु नामक एक पुत्री हुई मगर, वह भी बचपन में ही चल बसी थी। सबसे छोटा पुत्र राज रतन भी ज्यादा उम्र नहीं देख पाया। केवल उनके बेटे यशवंत राव जो सबसे बड़े पुत्र थे, वही लम्बी उम्र तक ज़िन्दा बचे। इन सभी बच्चों ने गरीबी , लाचारी और अनेकों प्रकार के अभाव में ही दम तोड़ दिया। उनके बेटे गंगाधर की मृत्यु हुई तो उसकी मृत देह को ढ़कने के लिए गाँव के लोगों ने जब रिवाज़ के मुताबिक नया कपड़ा (कफ़न) लाने के लिए कहा, मगर उनके पास कफ़न खरीदने के लिए इतने पैसे नहीं थे। तब रमाताई ने अपनी एक साड़ी में से ही एक टुकड़ा फाड़कर दे दिया ; और फ़िर उसी कपड़े में मृत देह को लपेटकर लोग शमशान घाट ले गए और ऐसे पार्थिव शरीर का अन्तिम संस्कार किया गया ।
जब उनके सबसे छोटे बेटे राज रतन की मृत्यु के पश्चात अंतिम संस्कार करके वापिस घर आये, तो थोड़े ही समय बाद बाबा साहेब नहाकर फ़िर से अपना सूटकेस पैक करने लग गए , तो माता रामबाई को शक हो गया और वह भी इतनी मानसिक पीड़ा के बावजूद भी उनके पीछे – २ आई ! बाबा साहेब को सूटकेस में कपडे पैक करते देखकर उनको बहुत आश्चर्य और दुःख भी हुआ और उन्होंने बाबा साहेब से कुच्छ दिन और वहाँ रुकने के लिए बोला , लेकिन बाबा साहेब से कोई ख़ास जवाब ना मिलने से बहुत ख़फ़ा होकर बाहर आकर अपने गुस्से का इज़हार करने लग गई ! उसे ऐसे ऊँची आवाज़ में बोलते सुनकर बाबा साहेब के बड़े भाई आनंदराव भी वहाँ आये उन्होंने पूरा माज़रा भाँपकर बाबा साहेब से कहा , “आज ही तुम्हारा बेटा मृत्युलोक चला गया है और तुम फिर से कहीं जाने की तैयारी में जुट्ट गए हो ? ” अपनी पत्नी नहीं तो बाकी बचे अपने इकलौते बेटे का ही ख़्याल कर लो ! तुम्हें कम से कम दस दिन कहीं नहीं जाना चाहिए ! लेकिन बाबा साहेब ने उत्तर दिया, “क्या करें , मजबूरी ही ऐसी है , चाहता तो मैं भी हूँ कि यहीं रहूँ और रामू का दुःख बांटू , लेकिन मुझे कल ही लंदन जाना है ! तीसरी गोलमेज़ कॉनफेरेन्स में भाग लेने के लिए !” इसपर उनके बड़े भाई ने थोड़ा चिल्लाकर कहा , इस कॉनफेरेन्स में तो और भी कोई जा सकता है, लेकिन तुम्हारी पत्नी के इतने पहाड़ जैसे दुःख में केवल तुम ही उसका सहारा बन सकते हो !” फिर बाबा साहेब पत्नी के पास गए और उसका हाथ पकड़कर बोले , “रामू ! मैं जनता हूँ यह हम पर बहुत बड़े दुःख की घड़ी आई है , और तुम्हारा दुःख मेरे से कहीं ज़्यादा है , मैं जनता हूँ कि तुम बच्चों के मेरे से कहीं ज़्यादा करीब हो , लेकिन प्लीज ! अपने आप को सम्भालो और अपने बेटे को भी , देखो ! अगर मैं इस गोलमेज़ कॉनफेरेन्स में भाग लेने लन्दन नहीं पहुँचा , तो यह गाँधी एंड कम्पनी हमारे पूरे दलित समाज का हमेशा के लिए बहुत बड़ा अहित कर देंगे , और मेरे सिवाय इस बैठक में जाकर कोई और हमारे पूरे बहुजन समाज के हित्तों की पैरवी नहीं कर सकता , अबतक का किया कराया सब मिट्टी में मिल जायेगा ! और इस मीटिंग में शामिल होने के लिए मुझे बरतानिया सरकार से मुझे निमंत्रण पत्र तो एक महीना पहले ही प्राप्त हो चुका है और इसकी तिथियाँ भी बहुत पहले ही निर्धारित कर दी गई थी ! और अब मैं अगर अपने घर की समस्याएँ बताकर इस मीटिंग की तारीखों को आगे बढ़ाने के लिए निवेदन भी करूँ , तो कोई सुनेगा नहीं, बल्कि मेरी गैरहाज़िरी को मेरी कमजोरी समझकर हमारे पूरे समाज पर झूठे आरोप लगाकर मामला एक तरफ़ा ही निपटा दिया जायेगा !” और फिर अपने बड़े भाई से उन्होंने बोला , “मेरी गैर-मौजूदगी में मेरे परिवार का ध्यान रखना आपका काम है और पूरे दलित शोषित वंचित समाज की जिम्मेवारी तो मैं समय – २ पर संभालता ही रहूँगा ! इतना समझाकर बाबा साहेब अगले दिन गोलमेज कॉनफेरेन्स में भाग लेने इंग्लैंड चले गए !
माता रमाबाई जी इस बात का ध्यान रखती थी कि पति के काम में कोई भी बाधा न हो। वह सबर – संतोष, सहयोग और सहनशीलता की जीती जागती मूर्ति थी। डॉ. अम्बेडकर अपनी समाज सेवा के उपलक्ष में बहुत बार घर से बाहर ही रहते थे। वे जो कुच्छ कमाते थे, उसे वे रमा को सौंप देते और जब भी उन्हें आवश्यकता होती, उतना मांग लेते थे। रमाबाई घर का खर्च चलाकर कुच्छ पैसा जमा भी करती थी। बाबा साहेब की पक्की नौकरी न होने से उनको काफी दिक्कत होती थी। आमतौर पर कोई भी आम स्त्री अपने पति से जितना वक्त और प्यार की अपेक्षा किया करती है, रमाबाई को वह डॉ. अम्बेडकर अपने समाजिक और राजनैतिक गतिविधियों की वजह से नहीं दे पाते थे , माता रमा जी भी उनकी यह परेशानी और मजबूरी भली भाँति जानती थी कि डॉक्टर साहेब अपने समस्त समाज के कल्याण और उनकी समस्याएँ निपटाने / उनका कोई ना कोई समाधान ढूंढने में हमेशा जुटे रहते हैं , इसलिए उन्होंने भी अपने पति से कभी शिक़वे शिकायतें नहीं की ! लेकिन उन्होंने बाबा साहेब का पुस्तकों से प्रेम और अपने समाज के उद्धार के प्रति दृढ़ संकल्प रहने का हमेशा सम्मान किया। वह हमेशा यह ध्यान रखा करती थीं कि उनकी वजह से डॉ. अम्बेडकर को कोई दिक्कत का सामना ना करना पड़े , और उन्होंने इसके लिए जो भी लक्ष्य / उद्देश्य निर्धारण किये हुए हैं , बाबा साहेब उनको निश्चित रूप में प्राप्त करें |
जैसे की उन दिनों दलितों को सर्वजनक पानी के स्थानों से पानी लेने के अधिकार से मनुवादी समाज ने वंचित कर रखा था , लेकिन बाबा साहेब इसके लिए निरंतर अपनी आवाज़ बुलंद करते रहते थे , बाबा साहेब ने इसके लिए अपने समाज ले लोगों के साथ मिलकर 20 मार्च,1927 में महाड़ सत्याग्रह की जो योजना बनाई , जिसका नेतृत्व बाबा साहेब अम्बेडकर जी को करना था और इस सत्याग्रह आंदोलन में महिलाएं भी जाने बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लिए तैयार थी ! बाबा साहेब ने रमाबाई से कहा “उन महिलाओं का नेतृत्व तुम्हें करना चाहिए. तब माता रमाबाई अम्बेडकर ने कहा “हाँ ! बिलकुल ! मैं भी आऊंगी, और जितने भी सत्याग्रही वहाँ आएंगे , मैं उनके लिए भोजन की व्यवस्था करूंगी | तब बाबा साहेब ने हंस कर कहा ,”रामू ! यह क्या कह रही हो , मालूम है , वहाँ कम से कम नौ दस हजार लोग होंगे , इतने ज़्यादा लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था कैसे करोगी ? तब माता रमाबाई ने बड़े ही हौंसले से उत्तर दिया , “आप क्या समझते हो , इस सत्यग्रह में मैं कोई अकेली महिला हूँ , मैं पहले ही अनेक बहनों के साथ बात कर चुकी हूँ , हम सब मिलकर भोजन की व्यवस्था करेंगे , और सत्यग्रह से एक सप्ताह पहले ही हमने आटा , दालें , चावल और भोजन पकाने के लिए लकड़ियाँ वगैराह इक्कठी करनी शुरू कर देनी हैं, हम सब बहने मिलकर भोजन का मोर्चा संभालेंगे ! और सही वक़्त आने पर उन्होंने महिला मोर्चे के साथ मिलकर पहाड़ जैसा दिखने वाला यह काम भी कर दिखाया ! तो ऐसे माता रमाबाई अम्बेडकर जी का पूरी जिम्मेवारी के साथ यह साहसिक कार्य सम्पन्न हुआ देखकर बाबा साहेब भी दंग रह गए थे और उन्होंने सभी महिलाओं को इसके लिए धन्यवाद दिया |
डॉ. अम्बेडकर के सामाजिक आंदोलनों में भी रमाबाई की सहभागिता अप्रत्यक्ष रूप में बनी रहती थी। दलित और वंचित समाज के लोग रमाबाई को “आई साहेब” और डॉ. अम्बेडकर को ‘बाबा साहेब’ कह कर पुकारा करते थे। बाबा साहेब अपने कामों में व्यस्त ज़्यादा रहते थे , जिसकी वजह से वह रमाबाई की तरफ़ पूरा ध्यान नहीं दे पाते थे , नतीज़ा यह रहा की माता रमाबाई की तबीयत दिन प्रतिदिन बिगड़ने लगी। अपने अपने सीमित साधनों में तमाम सम्भव इलाज के बाद भी वह स्वस्थ नहीं हो सकी और अंतत: 27 मई, 1935 में ही मात्र 37 वर्ष की छोटी सी उम्र में ही डॉ. अम्बेडकर साहेब का साथ छोड़कर इस दुनियाँ से विदा हो गई।
पर्वत जैसे दृढ़ निश्चय रखने वाले और देवदार के पेड़ों जैसे ऊँचे संकल्प निर्धारित करने वाले बाबा साहेब को अपनी पत्नी रमाबाई के देहान्त पर बहुत बड़ा सदमा लगा और उनकी आखों के सामने घोर अँधेरा छा गया । उनके दोस्त मित्र व साथी बताते हैं कि अपनी पत्नी की मृत्यु पर बाबा साहेब बच्चों की तरह फ़ूट – फ़ूटकर रोये थे और आठ दस दिन घर से बाहर ही नहीं निकल पाए ! उनको समझ ही नहीं आ रहा था कि रमा के जाने बाद उनका घर कैसे चलेगा ? बाबा साहेब का अपनी पत्नी के साथ अगाध प्रेम था। बाब साहेब को विश्वविख्यात महापुरुष बनाने में माता रमाबाई जी का ही घनिष्ट सम्बन्ध और बहुत बड़ा सहयोग, तप त्याग और संघर्ष भी था । बाबा साहेब के जीवन में रमाबाई का क्या महत्व था, यह डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखी गई एक पुस्तक में कुच्छ लाइनों से पता की जा सकती है। दिसंबर 1940 में बाबा साहेब अम्बेडकर ने “थॉट्स ऑफ पाकिस्तान” नाम की पुस्तक उन्होंने अपनी पत्नी रमाबाई को समर्पित की । इस पुस्तक की प्रस्तावना में उनके शब्द इस प्रकार थे – “रामू को उसके मन की सात्विकता, मानसिक सदवृत्ति, सदाचार की पवित्रता और मेरे साथ दुःख झेलने में, अभाव व परेशानी के दिनों में भी , जबकि उस वक़्त हमारा कोई सहायक न था, मैं उनकी असीम सहनशीलता और सहमति दिखाने की प्रशंसा स्वरुप भेंट करता हूं…..…”
डॉ. अम्बेडकर द्वारा लिखे गए इन शब्दों से स्पष्ट होता है कि माता रमाबाई ने बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर का किस प्रकार संकटों और लंम्बे संघर्ष के दिनों में साथ दिया और बाबा साहेब के दिल में उनके लिए कितना सत्कार, मान – सम्मान और प्रेम था। हमारे देश का समस्त दलित, शोषित व वंचित समाज इस महान माता और तप त्याग की देवी को कोटि – २ नमन करता है और हमेशा उनका ऋणी रहेगा , क्योंकि उनके तप त्याग और कड़े संघर्ष के बदौलत ही बाबा साहेब अपने कीमती समय में से इतना अधिक हिस्सा अपने पूरे दलित शोषित वंचित समाज के कल्याण हेतु और देश सेवा को दे पाए !
नारी सृष्टि की जननी है , नारी शक्ति की खान है ।
नारी की छत्र छाया में ही बनता पुरूष महान है !!
द्वारा : आर.डी. भारद्वाज “नूरपुरी ”