The Time Paradox Theory

गीता 

समय क्या है ?
वास्तव में समय कुछ नही है हमारे मस्तिष्क की कल्पना या रचना मात्र है . लोग कहते हैं …..मैं सुबह 5 बजे सो कर उठा , सुबह 8 : 3 0 पर ऑफिस के लिए निकला , मेरी क्लाइंट  मीटिंग मंगलवार को शाम को 6 बजे है, पडोसी से कल 1 2 बजे मिलना है , मुंबई राजधानी शाम को 5 :2 0 पर स्टेशन आएगी , रात में 2 बजे नाईट शो ख़त्म हुआ . 
इन वाक्यों को ध्यान से देखने से मालूम होगा की प्रत्येक समय किसी न किसी घटना से जुड़ा हुआ है . समय दरसल समय कोई वस्तु  ही नही है . यदि कोई क्रिया या घटना न हुई हो तो हमारे लिए समय का कोई अस्तित्व ही नही होगा . 
4 बज कर 2 0 मिनट , अगस्त , 1 9 4 7 , परसों, कल, पांच दिन बाद, यह सब घटनाओं का सापेक्षता [ relativity ] है.  2 0 1 3 को विक्रम, शक संवत, आर्य संवत के हिसाब से कुछ और कहा जा सकता है.

अक्सर लोग समय की माप उस अवस्था में करते हैं जब पृथ्वी में जीवन अस्तित्व में आया . कल्पना करें अगर पृथ्वी का अस्तित्व ही नही होता तो हमारे लिए समय क्या होता ? यदि हम घटनों या क्रियाओं से परे हो जाएँ  तो समय नाम की कोई वस्तु  संसार में नही हैं . 

परिवर्तन अविधि को ही काल या समय कहते हैं . समय हमें इसलिए बदलता हुआ लगता है की उसे हम घटनाओं के परिपेक्ष में देखते हैं . घटनाएं बदलती और गुजरती है . यह क्रम अनादि काल से था और अनंत समय तक रहेगा लेकिन समय स्थिर है और बदलाब सृष्टि में होता है और यही गतिवान और प्रवाहवान भी है. लेकिन आँखों को बदलता और बहता समय ही लगता है . 
थ्योरी ऑफ़ लाइट quantam के अनुसार जो वस्तु  कण के रूप में है वह उसी प्रकार से तरंग के रूप में है. साधरण अवस्था में हम उसे ठीक  तरंग रूप में नही देख पाते हैं क्योकि हमारा मस्तिष्क पदार्थ से बंधे हुए रहता है . 
पदार्थ, स्थान और समय की कोई सत्यता नहीं है . कोई भी एक मुलभुत समय नही है जिसमें कोई घटना घटित हुई हो , निरिक्षण के अनुभव ही समय की रचना करते हैं . और इसी समय की मदद से हम ब्रह्माण्ड को, स्थान को या अपने जीवन को नापते हैं . 
यदि हम आपने मस्तिष्क को समय से ऊपर उठा दें तो अपने अमरत्व की अनुभूति कर सकते और पदार्थों पर नियंत्रण कर सकते हैं . 

समय का फैलाना या सुकड़ना 

Einstein के अनुसार दुरी और समय की मान्यता भ्रामक और आवस्तविक है. जो कुछ दिखाई देता है वह खोखला आवरण मात्र है, हमारे नेत्रों और मस्तिष्क संसथान अपनी बनावट और अपूर्ण संरचना के कारण वह सब देखता है जो हमें यथार्थ लगता है लेकिन होता कुछ और है .
  
केवल घन पदार्थ ही फैलते या सुकड़ते नहीं हैं वरन समय भी फैलता और सुकड़ता है . सिद्धांत के अनुसार गति की तीब्रता होने पर समय की चाल घट जाती है . जैसे एक घंटे में पैदल चलने पर तीन मील का सफ़र होता है , मोटर से 80 मील पार कर लेते हैं, ट्रेन से और अधिक दूरी  और हवाई जहाज़ से उससे भी अधिक दूरी तय कर सकते हैं . समय की गति को शिथिल या अवरुद्ध किया जा सकता है . 
Einstein  के अनुसार गति में वृद्धि होने पर समय की चाल स्वभावता कम हो जायेगी . यदि 1,86,000 मील प्रति सेकंड प्रकाश की चाल से चला जाए तो समय की गति इतनी कम हो जायेगी की उसके व्यतीत होने का पता ही नही चलेगा . 
प्रकाश की गति से अगर कोई राकेट अन्तरिक्ष में जाता है और लौट कर हज़ार साल बाद पृथ्वी पर आता है तो यात्री देखेगा की यहाँ पर कई पीढियां, परिस्थियाँ बदल चुकी है जबकि उस यात्री की आयु में तनिक भी अंतर नहीं दिखाई पड़ेगा वह उतना ही जवान होगा जितना अन्तरिक्ष में जाने के समय था . 
भौतिक जगत में समय को घटनाओं के परिपेक्ष में देखने का प्रचलन है . इस आधार पर जो कुछ सामने दृष्टिगत पड़ता है , समय के उस भाग को वर्तमान कहते हैं . और जो बीत गया उस भाग को भूत  और आने वाले भाग को भविष्य कहते हैं . लेकिन समय ना भूत हैं ना वर्तमान और ना ही भविष्य ही है . समय एक सम्पूर्ण इकाई है . 
समय को घटा बढ़ा सकना साधरण स्थिति में भी संभव है .  समय न तो छोटा है और न ही बड़ा यह तो स्थिर है इसका छोटा या बड़ा होना हमारी गति पर निर्भर करता है . 
यदि कोई मुंबई से शिर्डी की 253 किलोमीटर की यात्रा पैदल करता है तो उसे कुछ दिनों का समय लग सकता है लेकिन यही दुरी मोटर द्वारा तय करता है तो 3 -4 घंटे का समय लग सकता है , अगर वायुयान से तय करता है तो कुछ मिनटों में यह दुरी तय हो जाएगी . यदि यह दुरी प्रकाश की गति से की जाए तो सेकंड का ही कुछ अंश ही लगेगा . 
अतः गति के बढ़ने  के साथ साथ समय सुकड़ने लगता है . 
वास्तव में समय न तो किस के लिए बढता है और न फैलता है और न ही सुकड़ता ही है .यह तो दो भिन्न जीवन शैलियों के दो भिन्न परिणाम  हैं .. समय सबको बराबर मिला हुआ है यह मस्तिष्क विशेष के ऊपर निर्भर करता है की कोई इसका सर्वोत्तम प्रयोग कर महापुरुष बन सकता है तो किसी किसी के लिए एक एक पल गुजारना भारी पड़ सकता है . 
अर्थात संसार में मस्तिष्क की रचना के अतिरिक्त कुछ भी नही है. जब हम अपने को समय से ऊपर उठ कर देखते हैं तो हमें अपने मस्तिष्क चेतन के अतिरिक्त और कुछ नही दिखाई देता है , तब हमारा एक विभिन्न व्यक्तित्व हो जाता है , और हम लगातार विचार, अनुभूति या प्रकाश की किरण के सामान हो जाते हैं . स्थूल शरीर के प्रति हमारा मोह भाव समाप्त हो जाता है . 
ऐसी कल्पना तभी हो सकती है जब हमारा चिंतन, क्रिया कलाप छोड़कर मस्तिष्क बन जाएँ या मस्तिष्क में केन्द्रीभूत हो जाएँ .


तो आखिर समय की रचना किसने की ? 
हमारे शास्त्रों के अनुसार समय की रचना ब्रह्मा जी ने की हैं । उन्होंने ही संवत्सर , ऋतु , वार, तिथि , दिन, रात आदि की रचना की है । तो क्या ब्रह्मा जी की अन्य सृष्टि की तरह समय या काल का भी अन्त होता है ? अगर हाँ तो कौन करता है इसे ? इस काल का अंत का भी अन्त करता है महा काल अर्थात भगवान शिव । ब्रह्मा की सारी की सारी सृष्टि का अंत महाकाल ही करता है । यही अर्थ है हमारे कहने का की यदि घटनाओं या क्रियाओं का अंत हो जाए या हम उससे परे हो जाएँ तो समय नाम की कोई चीज़ नहीं रहेगी ।
ऐसी अवस्था तो समाधी में प्राप्त होती हैं । जब योगी परम चैतन्य हो कर केवल स्थिर होता है , कामना शून्य होकर आपने आप से संतुष्ट रहता है ….इसे ” स्थिर प्रज्ञता ” भी कहते हैं ।
  
अर्थात जिस काल में मन में आयी सम्पूर्ण कामनाओं का भली भांति त्याग कर अपने-आप से अपने-आप में ही संतुष्ट रहना , उस काल वह योगी स्थिर -प्रज्ञ कहा जाता है ।