हम अक्सर सतसंग में अक्सर सुनते हैं या फिर किसी मातम के भोग पर हमें बहुत बार सुनने को मिलता है कि हमारे शरीर में विद्यामान आत्मा, जोकि निरंकार / प्रमात्मा / भगवान या ईश्वर / खुदा – अल्ला या फिर अंग्रेजी में कहें तो गॉड, उस सर्व शक्तिमान और सर्वव्यापक पर्म शक्ति को हम किसी भी नाम से याद कर लें, हमारी आत्मा उस प्रमात्मा का ही अंश है, और इस जीव आत्मा को 84 लाख जन्मों के यात्रा करने के बाद मनुष्य योनि में जन्म मिलता है ! अत: यह मानव जन्म बेहद ही दुर्लभ है, अनमोल होता है ! हमारी आत्मा बिलकुल उसी प्रकार शरीर बदलती रहती है जैसे हम लोग रोजाना कपड़े बदलते हैं ! साधु / संत महात्मा व ऋषि मुनि भी हमें यह भी समझाते हैं कि यह केवल और केवल मनुष्य योनि में ही संभव है कि इन्सान निरंकार / भगवान / ईश्वर की प्राप्ति कर सकता हैं, इसके साथ साथ हमें यह भी समझाया जाता है कि ब्रह्मज्ञान भी केवल सतगुरु / निरंकार की कृपा से ही मिल सकता है, इस जन्म में और पिछले जन्मों के संचित कर्मों के हिसाब से ही निरंकार / ईश्वर / भगवान हमें मानस जीवन में ही ब्रह्मज्ञान लेने की ओर प्रेरित करते हैं , निरंकार की कृपा के बिना तो यह बात हमारे दिल में, मन मन्दिर में बैठती भी नहीं है ! लाखों लोगों को तो इसका ख़्याल भी नहीं आता ! क्योंकि हमारा दिल और दिमाग़ तो अक्सर इस संसार में अनेक प्रकार की भौतिक वस्तुओं के लोभ लालच में ही खोया रहता है , भौतिक पदार्थों की लालसा में ही जकड़ा रहता है ! और यह मायाजाल है भी इतना लुभावना / सुहावना कि इसमें से निकल पाना एक अत्यंत ही कठिन कार्य प्रतीत होता है। ब्रह्मज्ञान के प्राप्ति के लिए केवल यही एक निर्णायक शर्त या प्रतिबन्ध नहीं होता, बल्कि अपने पिछले जन्मों में भी किये गए अच्छे / बुरे कर्मों के फ़ल से मुक्ति पाने के लिए यह भी अनिवार्य है कि हम किसी पूर्ण संत / ऋषि-मुनि / सतगुरु की शरण में जाएँ और उनसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त करके, उसके द्वारा बताये गए रास्ते पर चलते हुए अपने जीवन को सफल बनाएं । तबी हम इस जन्म मरण के बंधन से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं । दरअसल , यही मानस जीवन का एक मात्र लक्ष्य भी है जो हमें अच्छे कर्म करते हुए , गृहस्त जीवन में रह कर अपनी अन्य पारिवारिक / समाजिक ज़िम्मेवारियाँ निभाते हुए ही पूरा करना चाहिए , ताकि इस जन्म के बाद हमारी जीव आत्मा निरंकार में विलीन होकर जीवन मृत्यु के आवागमन चक्र से छुटकारा प्राप्त कर लें , अर्थात – मोक्ष प्राप्त करके हमारी आत्मा उस परमपिता प्रमात्मा में विलीन हो जाए |
मग़र यह चौरासी लाख योनियों हैं कौन कौन सी, यह भी एक सोचने समझने का विषय है ? पद्यम / पदमपुराण में इन सब योनियों के वर्गीकरण को छह भागों बाँटा गया हैं , जोकि इस प्रकार है : 1. नौ लाख जीव जन्तु पानी में अर्थात – समुन्द्रों , तालाबों , नदियों और झीलों इत्यादि रहते हैं , 2. बीस लाख किस्म की वनस्पति है जिसमें पेड़ , पौदे , सब प्रकार की फसलें , घास व वेलें इत्यादि आती हैं , 3. ग्यारह लाख किस्म के अनेक प्रकार के कीड़े मकौड़े धरती पर पाए जाते हैं , 4. दस लाख किस्म के पक्षी / पंछी पाए जाते हैं, 5. तीस लाख किस्म के धरती पर विचरने वाले जानवर हैं , और आखिर में – 6. चार लाख किस्म के आदमी, देवी – देवते, राक्षस, भूत-प्रेत-चुड़ैलें, किन्नर और गन्धर्व इत्यादि हैं ! ऐसे कुल मिलाकर चौरासी लाख योनियों की सृजना होती है और जीव आत्मा इनकी लाखों वर्षों की लम्बी यात्रा करते हुए इन्सान के रूप में दुर्लभ / हीरे-मोतियों से भी अनमोल जन्म लेती है और इसका एक मात्र ध्येय मानस जीवन में विचरते हुए समय २ पर बनती अपनी पारिवारिक / समाजिक जिम्मेवारिआं निभाते हुए ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति करके इस आवागमन के कभी न समाप्त होने वाले कुचक्र से छुटकारा पाना है , जोकि केवल और केवल मानव जीवन में ही संभव होता है, और यह लक्ष्य प्राप्ति हम लोग किसी पूर्ण सतगुरू के आशीर्वाद / कृपा के बिना कभी भी पूरा नहीं कर सकते ! और नित प्रतिदिन सत्संग करना हमारे लिए यह कार्य अत्यंत ही सरल बना देता है | बहुत सी ऐसी सूक्षम बातें हैं जोकि आम तौर पे किसी मनुष्य की बुद्धि में घुसती ही नहीं हैं , क्योंकि हम अक्सर वही बातें समझ पातें हैं जोकि युक्तिसंगत / विश्वसनीय / तर्कशील / वैज्ञानिक दृष्टि से या फिर गणितीय शुद्धता पूर्ण होती हैं | लेकिन अध्यात्मवाद में बुद्धिमत्ता के / वैज्ञानिक तर्क वितर्क नहीं चलते |
सतगुरु की कृपा तो किसी इन्सान पर तभी बरसती है जब वह पूर्ण रूप में अपने गुरु के प्रति तन, मन और धन से समर्पित हो जाये और उसके बताये हुए रास्ते पर ईमानदारी से चलना शुरू कर दे , लेकिन – परन्तु या किसी और किस्म के शक शुभा की इसमें गुँजाइश नहीं होती ! !
आर.डी. भारद्वाज “नूरपुरी “