धर्म अधर्म – प्रगति अवनति !

मुझे मत बता यह मन्दिर  – मस्जिद – गुरुद्वारे और गिरजाघर की कहानी ,
और यह धर्म मज़हब  जातिपाति और ऊँच  नीच की जुबानी  !


ना जाने मैंने और मेरे पुरखों ने सबके लिए ऐसे कितने ही धर्म स्थल  
बनाए , उसमें स्थापित लाखों  मूर्तियाँ भी घड़ीं और फ़िर धर्म के ठेकेदारों ने, 
मुझे और मेरे जैसे लाखों मजदूरों को पूजा अर्चना  के लिए वहाँ घुसने नहीं दिया ?
क्योंकि जब तक यह मन्दिर  मस्जिद गुरुद्वारे निर्माण अधीन होते हैं —
मैं और मेरे लाखों कामगार सिर पे ईंटें, सरिया, सीमेंट ढोते सब मजदूर होते हैं ,
गर्मी सर्दी और बारिश में  हम सब धूल मिट्टी से सन्ने जी जान से मजदूरी करते हैं ,
और हमारी ही मेहनत से जब मन्दिर मस्जिद बनके तैयार हो जाते हैं —-
हम सब मज़दूरों को शूद्र और मुसलमान बोलकर अनादर किया जाता है ? 
इन सब इमारतों के निर्माण काल में तो कोई जाति मज़हब नहीं पूछता ?
हमने ही सबने मिलकर अदालतें , पुलिस स्टेशन , स्कूल ,
कॉलेज अस्पताल सिनेमा घर , शॉपिंग मॉल्स , एम्यूजमेंट पार्क ,
लम्बी चौड़ी सड़के , पुल , बाज़ार , बड़ी २ दुकाने ,  
और ना जाने  कहाँ – २ और  क्या – २ बनाये हैं !
यह सब मन्दिर मस्जिद, पुलिस स्टेशन, अदालतें, कॉलेज अस्पताल ,
बनते ही समाज के एक तबके के लिए क्यों बंद क्यों हो जाते हैं ? 
डिस्पेंसरियों में हमारे लिए दवाईयाँ  समाप्त क्यों हो जाती हैं ? 
नित प्रतिदिन मजलूमों और गरीबों पर हो रहे शोषण और अत्याचार ,
की  पुलिस रिपोर्ट पर कोई ठोस कार्यवाही क्यों नहीं होती ?
अदालतों में  भी  न्याय के लिए हमारी सुनवाई नहीं होती ? 
क्योंकि इसके लिए हम कोई नज़राना भेंट नहीं का सकते ? 
वही नज़राना देकर हमपे जुल्म करने वाले मुज़रिम छूट भी जाते हैं ? 
महंगी अदालतों में  न्याय अन्याय  बदल जाते हैं अपराधी की दौलत और रसूख से ,
पीड़ित और साधन विहीन रह जाते हैं ऐसे इन्साफ़ के मन्दिर के चक्कर काटते – २ ! 
बरसों बाद अदालत का फ़ैसला  तो आ जाता है, मग़र इन्साफ़ नहीं मिलता ? 
क्या यह देश हमारा नहीं है , क्यों  न्याय करने वाला तराजु , 
पक्ष – प्रतिपक्ष संविधान नहीं , गरीबी अमीरी देखकर फ़ैसले सुनाता हैं ?
अगर यही धर्म है , तो ऐसे धर्म से हम अधर्मी ही अच्छे हैं !!
याद रखो ! जिसे आप इसको एक पवित्र धर्म स्थल कहते हो —
कानून कायदे के रखवाले और इन्साफ़ के मन्दिर कहते हो —
यह भी मेरे और मेरे जैसे लाखों मज़दूरों के हाथों से ही बने हैं !!
यहां तक कि संसद भवन और विधान सभा भवन भी हमने ही बनाए हैं !
माना  कि ज़्यादातर  जमीनें जाटों  जमींदारों की ही जागीर हैं ,
मग़र उनके खेतों में अनाज तो मेरे जैसे मज़दूरों की मेहनत से ही पैदा होता है, 
हमारे हाथों से पैदा हुए अनाज से ही आपके घरों में पकवान बनते हैं ,
तो फ़िर क्यों खाते  हो  हमारे उगाए गए अनाज से बने हुए लज़ीज़ पकवान ? 
हमारे ही हाथों से बनी सुन्दर इमारतों में  सज-धज के क्यों बैठते हो ?  
जब आपका जी चाहा हमारे पसीने की मेहनत  का लाभ उठा लिया ,
और जब जी चाहा हमारा अनादर और तिरस्कार कर दिया ? 
दोषपूर्ण है आपका यह रवैया , अपराध जैसा है आपका व्यवहार ?
क्या ऐसा करने से तम्हारी आत्मा तुम्हें झकझोरती नहीं है ? 
क्या ऐसा करते समय तुम्हारी जमीर तुम्हें धिक्कारती नहीं है ?
जब – २ समाज में जुल्म शोषण और अत्याचार बढ़ते हैं ,
वहीं  से ही संघर्ष और आंदोलन की चिंगारियाँ  फूटती हैं ,
जो नींव रखती हैं एक नए युग की , नए परिवर्तन की ,
और नए सृजन होने वाले बराबरी के एक समाज की ! 
और यहाँ ये  सब नहीं हो पाता , वह देश और समाज 
भटक जाते हैं वह प्रगति और विकास के पथ से , 
और फ़िर होने लगते हैं शिकार प्रगतिशील देशों की धौंस के ?
चीन जापान अमरीका जर्मनी ऑस्ट्रेलिया और बरतानियाँ ने —
ऐसे ही नहीं की विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र  में  इतनी प्रगति ,
वहाँ  नहीं होते जातिपाति और धर्म मजहब के नाम से 
झगड़े, दंगे, भेदभाव , शोषण, अत्याचार और पिछड़ों के साथ अन्याय , 
सबके लिए सब जगह मिलते हैं वहां बराबरी के अधिकार ,
शिक्षा , विकास और प्रगति और रोज़गार के बराबर अवसर , 
तभी तो वह देश छूह रहे हैं प्रत्येक क्षेत्र में  शिखरों को ,
और हम आज़ादी के इतने दशकों बाद भी बने हुए हैं उनके पिछलगू  और फिस्सडी ?
राजनैतिक आज़ादी ही कॉफी नहीं होती देश और समाज के लिए ,
गरीबों  और पिछड़ों को चाहिए आज़ादी पाखंडवाद से , जातिवाद से ,
मनुवाद से, सरमायेदारों की नफ़रत से, सामंतवाद और ढकौंसलेबाजी से ,
तभी उनको मिलेगी आर्थिक आज़ादी , जो खोज लेगी राहें प्रगति और विकास की !  

वरना साधन और सत्ता संपन्न अवरोध पैदा करते ही रहेंगे पिछड़ों के कल्याण में ,
लेकिन जैसे – २ जन कल्याण होगा , राष्ट्र निर्माण अपने आप ही होता जायेगा !! 

रचना :  आर डी भारद्वाज  नूरपुरी