यह बात 1907 की है और उस वक़्त बाबा साहेब डॉ.भीम राव अम्बेडकर जी महाराष्ट्र के जिले सतारा में एक सरकारी स्कूल में दसवीं क्लास में पढ़ते थे ! वह बचपन से ही बड़े होनहार विद्यार्थी और तीक्षण बुद्धि के मालिक थे ! एक बात उनके पिताजी रामजी सकपाल ने बचपन से ही उनके दिमाग़ में बिठा दी थी कि अगर आप अपनी ज़िन्दगी का रुख बदलना चाहते हो, जातिपाति धर्म मज़हब वाली विकृत विचारधारा वाली दलदल से ऊपर उठना चाहते हो, तो अपने समय का हमेशा सदुपउपयोग करो और फ़िज़ूल की बातों को जहां तक हो सके नज़र-अंदाज़ करते हुए आगे बढ़ते चलो ! भीम रॉव जी अबतक इस बात से भी अच्छी तरह वाक़िफ़ हो चुके थे कि अगड़ी जातियों के केवल उनके सहपाठी ही नहीं , बल्कि कभी २ तो उनके अध्यापक भी उनका मज़ाक उड़ाया करते थे और उनको जातिसूचक शब्दों से सम्बोधन करके उनका निरादर और तिरस्कार किया करते थे , जोकि उन दिनों जातिपाति / छुआछूत की वजह से बहुत ज़्यादा हुआ करता था !
एक दिन उनके स्कूल के हेडमास्टर स्कूल का राउंड लगा रहे थे और घूमते २ वह भीम रॉव की क्लास में आ गए ! थोड़ी देर उन्होंने बच्चों से कुछ बातें करने के बाद उन्होंने एक सवाल पूछा , “अच्छा बच्चो ! यह बताओ कि वह कौनसी वस्तु या पदार्थ है जो हम देख तो सकते हैं लेकिन छूह नहीं सकते ?” अलग २ बच्चों ने अपनी २ सोच और बुद्धि के हिसाब से जवाब दिए – जैसे की हवा, चाँद, सूरज और आसमान में चमकने वाले लाखों सितारे , इत्यादि ! और जब भीम राव की बारी आई तो उन्होंने केवल अन्य बच्चों को ही नहीं , बल्कि अपने हेड मास्टर को भी अपने उत्तर से आश्चर्यचकित कर दिया ! उन्होंने जवाब दिया , “गुरु जी ! हमारी इस धरती से लाखों करोड़ो किलोमीटर दूर आसमान में चमकाने वाले सूरज, चाँद और सितारों की बात तो बहुत दूर की है , इस धरती पर ही नहीं , बल्कि हमारी पाठशाला में ही ऐसी अनेकों वस्तुएँ हैं जिसको मैं देख तो सकता हूँ , मगर छूह नहीं सकता !” हेड मास्टर ने बड़ी उत्सुकता से पूछा , “बतायो तो ज़रा ! किसी एक वस्तु का नाम लेकर बतायो , वह कौन सी ऐसी वस्तु है ?” तो भीम राव ने पाठशाला के बाहर रखे हुए पानी के घड़े की तरफ़ इशारा करके उत्तर दिया , “वोह देखो पानी का घड़ा ! आप सभी और मैं भी उसे बिलकुल स्पष्ट देख तो सकते हैं , लेकिन मैं इसे ना तो छूह सकता हूँ और ना ही इसमें से पानी लेकर पी सकता हूँ , क्योंकि कुच्छ लोगों के दिल और दिमाग में इस झूठी, आधारहीन और रूढ़िवादी जातिपाति आधारित प्रचलित धारणाओं की वजह से , उस घड़े को मेरे छूने से वह घड़ा और उसके अन्दर रखा गया पानी अपवित्र हो जायेगा और अन्य विद्यार्थियों के लिए पीने के काबिल नहीं रहेगा !”
भीम राव का जवाब सुनकर उनकी कक्षा के सभी विद्यार्थी दंग रह गए , क्योंकि वहां रखे गए पानी के घड़े को छूने की भीम राव और उसके भाईओं को इजाजित नहीं थी , वह पीने के लिए पानी अपने घर से ही लाया करते थे और क्लास में बैठने के लिए टाट या बोरी भी अपने घर से ही लाते थे और पाठशाला प्रबंधकों की तरफ़ से सभी बच्चों के लिए बिछाए गए टाट पर बैठने से उनको सख़त हिदायत देकर वंचित रखा गया था , मना किया गया था ! अगड़ी जातियों के बच्चों में से कोई बच्चा उनके साथ बैठने को / अपने साथ बिठाने को तैयार ही नहीं होता था ! भीम राव का संजीदा उत्तर सुनकर पाठशाला के हैड मास्टर और उनके क्लास टीचर अचम्बित तो जरूर हो गए थे , लेकिन उन्होंने भीम राव के उत्तर में छुपी हुई उनकी पीड़ा को ना तो समझने की कोशिश की और ना ही उनकी तकलीफ़ दूर करने का कोई प्रयास किया !
अभी थोड़े ही दिन पहले राजस्थान के जालौर जिले में घटी एक बड़ी दुखदाई घटना से मुझे बाबा साहेब के स्कूल के दिनों की वह घटना याद आ गई , जिसमें एक स्कूल के अध्यापक ने दलित समाज के एक बच्चे (इंद्र कुमार मेघवाल) को ऐसी ही एक वजह से तीसरी कक्षा के 9 वर्ष के एक छोटे से मासूम बच्चे को इतनी बेरहमी से जानवरों की तरह पीटा कि बाद में उस पिटाई से बच्चे के शरीर पे जगह २ हुए जख्मों के कारण बच्चे की मृत्यु ही हो गई ! देश आज़ादी की 75 वीं वर्षगांठ अमृत उत्सव के नाम से मना रहा है, लेकिन अगड़ी जातियों के तथाकथित पढ़ेलिखे लोगों की सोच व मानसिकता अभी भी 18 वीं सदी वाली पिछड़ी हुई ही है ! अमृत तो क्या दलित समाज के छोटे से बच्चे को स्कूल में पानी तक नहीं पीने दिया जाता ? जिस अध्यापक को खुद भी अभी तक इस सच्चाई की समझ नहीं आई कि सभी इन्सान उसी भगवान के बनाए हुए हैं और सब बराबर ही हैं, वह बच्चों को क्या शिक्षा देता होगा ? किसी बच्चे की जिन्दगी सँवारने और उसे बेहतर दिशा देने में माँ बाप के बाद अगर किसी का योगदान होता है, वह उसके अध्यापक ही होते हैं, लेकिन यह अध्यापक तो उस बच्चे के लिए यमदूत बन गया ? देश के सभी बड़े २ नेतागण इस घटना पे चुपी बनाये बैठे हैं, जबकि पीटने वाले उस अध्यापक को तो फाँसी की सजाह होनी चाहिए और बच्चे के माता पिता को उचित मुआवजा दिया जाना चाहिए ! अगर इस बच्चे की जगह किसी गाय की मृत्यु हो गई होती तो टीवी चैनल वाले तीन चार दिन इस पे बहस ही करवाते रहते ? अभी भी लोगों की बुद्धि / मानसिकता ऐसी बनी हुई है कि वह जानवरों का तो पिशाव भी पी सकते हैं , लेकिन एक दलित के पानी के घड़े को छूना बर्दाश्त नहीं कर सकते ? बड़े शर्म और चिंता की बात है ! जालौर के उस स्कूल के अध्यापक को उसके इस घिनौने अपराध की कड़ी सजह तो मिलनी ही चाहिए , जिसकी वजह से एक दलित परिवार से छोटा सा मासूम बच्चा इस दुनियां से ही चला गया !
एक और सोचने समझने वाली बात है कि आख़िर ऐसे घिनौने अपराध दलित समाज या फिर अन्य पिछड़ी जातियों के लोगों के साथ ही क्यों होते हैं, और वोह भी राजस्थान , उत्तर प्रदेश , उत्तराखंड , हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और बिहार में सबसे ज्यादा होते हैं ? किसी युवक की इसलिए पिटाई कर देते हैं कि उसने मूछें क्यों रख ली हैं , किसी दलित दूल्हे को शादी वाले दिन घोड़ी पे चढ़ने नहीं देते, वह अन्य दूल्हों की तरह हाथ में तलवार लेकर नहीं चल सकता, हज़ारों गाँवों में किसी दलित की मृत्यु हो जाने पर उस गाँव के साँझी शमशान भूमि में अन्तिम संस्कार नहीं करने देते, राजस्थान में तो कहीं २ यह भी एक नियम बनाया हुआ है कि अगर किसी पिछड़ी जाति के बन्दे ने ब्राह्मणों के घर के सामने से गुजरना है तो वह अपनी चप्पल / जूते इत्यादि उतारकर जाये , साइकिल / स्कूटर पे जा रहा है तो उस साधन से उत्तरकर जाये ? क्यों बई ? दलित समाज के लोग इन्सान नहीं हैं क्या ? ऐसी अनेक ग़लत धारणाओं के पीछे सदियों पुराणी रूढ़िवादी और मनुवादी विचारधारा काम करती है जिसकी वजह से बहुजन समाज के लोगों को इन्सान ही नहीं समझते ? देश की आज़ादी के बाद क़ानूनी तौर पे यह सब घटिया मानसिकता वाले रीति रिवाज़ क़ानूनी रूप में बंद कर दिए गए थे, 26 जनवरी 1950 में लागू हुए संविधान के बाद इनका कोई स्थान नहीं है, सब इन्सान एक समान हैं, वैसे भी यह सब अवैज्ञानिक धारणाएँ हैं, लेकिन जब भी कोई जातिगत उत्पीड़न / छुआछुत / शोषण / अत्याचार / दुर्व्यवहार / मारपीट का मामला सामने आता है, तो अपराध करने वाले के ख़िलाफ़ पुलिस ज्यादातर कोई करवाई नहीं करती, क्योंकि ज़्यादातर थानों में बड़े अधिकारी तो अगड़ी जातियों के लोग ही होते हैं , वह अपराधी पक्ष के कई प्रकार के प्रलोभनों में आकर मामले को रफ़ादफ़ा करने में और अपराधी को बचाने में लग जाते हैं , या फिर उनपे कमज़ोर धाराएँ लगाते हैं ! तीसरा बड़ा कारण यह भी एक कड़वा सत्य है कि अगर वो मामला अदालत में गया , तो पीड़ित समाज के लोग साधनविहीन होने के कारण वहाँ भी अपना मामला ज़्यादा लंबे समय तक लड़ नहीं पाते ! और हमारे देश में अदालतों में मामले के फ़ैसले आने में कितने वर्ष लग जाते हैं, यह भी किसी से छुपा हुआ नहीं है ? एक और बात – जबसे बहुजन समाज के बच्चे उच्च शिक्षा हासिल करके बड़े २ अधिकारी बनने लग गए हैं, देश के भीतर और अंतरराष्ट्रीय खेलों में भी खूब सारे मैडल जीतने लग गए हैं, मनुवादी मानसिकता वाले लोगों को नज़रों में पिछड़ी जातियों के लिए नफ़रत और ईर्षा और भी बढ़ने लग गई है और वह अपनी खुन्नस निकालने के लिए अपनी सामंतवादी सोच की वजह से इनपे तरह २ के अपराध करते हैं !
और सबसे बड़ा सत्य जोकि हमारे बड़े २ नेतागण और पुलिस प्रसाशन और न्याय प्रणाली अभी तक गंभीरता से समझने में असफ़ल रही है – वह यह है कि अगर आप देश / समाज को एक बेहतर दिशा में लेजाना चाहते हो , तो आपको हर प्रकार के अपराधियों को सजह तो दिलवानी ही चाहिए , वरना समाज प्रगति और विकास की बजाये अवनति और गिरावट की तरफ़ ही बढ़ता जायेगा ? सबका साथ , सबका विकास जैसे दावे केवल खोखले झुनझने ही साबित होते रहेंगे ?
आर डी भारद्वाज ” नूरपुरी ”