इन्कलाब के लम्हों पर, क्यूँ इंतज़ार का पहरा है?

यायावर 

पत्थर का सीना तोड़ दिया, अब राह बनाना बाकी है|
धरती की माटी धधकी है, जल-धार बहाना बाकी है|

घर-घर में कैद पड़ी सीता, कूंचे-कूंचे में रावण है|
टंकार धनुष का राम करो, एक व्यूह रचना बाकी है|

उजडें हैं बाग़ तूफानों से, मुर्दे गुल, मरघट सुना है|
बरसात बहारों की आए, वह राग सुनाना बाकी है|

बहुतों का खून बहाते हैं, शहरों में शेर शराफत के|
बारूद लहू को बनने दो, यह रस्म जलाना बाकी है|

फिर इन्कलाब के लम्हों पर, क्यूँ इंतज़ार का पहरा है?
माथे पर कफ़न लपेटो तुम, एक वज़्म सजाना बाकी है|