अन्य उपनिषदों की तरह, छान्दोग्य उपनिषद में भी आत्मा, सत, ब्रहृम, परब्रहृम आदि की विवेचना हुई है । इसी संदर्भ में आरूणि तथा श्वेतकेतु का वार्तालाप है !
ऋषि आरूणि का पु़त्र श्वेतकेतु गुरूकुल में विद्याध्ययन कर जब घर वापस आया, तब पिता को अनुभूति हुई कि पुत्र में कुछ घमण्ड आ गया है। पिता ने कहा – ‘‘बेटे, तुम समझते हो कि तुम सब जान गए हो, पर यह तो बताओ कि क्या तुम ने वह विद्या पढ़ी है, जिसे पढ़कर सब कुछ पा लिया जाता है ? श्वेतकेतु ने कहा – ‘‘वह तो मैं नहीं जानता, आप मुझे बतलाइए ।‘‘
श्वेतकेतु एवं आरूणि |
बात कुछ गहरी थी, श्वेतकेतु ने कहा – ‘‘मुझे ठीक से समझाइए ।‘‘ आरूणि ने तरह-तरह से समझाया । ऋषि ने कहा – ‘‘ सामने के वट वृक्ष का एक फल ले आ । ‘‘ पिता ने फल तोड़ने के लिए कहा । तोड़ने पर पिता ने पूछा – ‘‘क्या दीखा ।‘‘ ‘‘अणु जैसे छोटे-छोटे दाने हैं ।‘‘ पिता ने कहा – ‘‘इन दानों को तोड़ । ‘‘ तोड़ने पर पिता ने पूछा – ‘‘कुछ दिखाई दिया ?‘‘ ‘‘इसमें तो कुछ दिखाई नहीं दिया।‘‘ पिता ने समझाया – ‘‘जो सूक्ष्म वस्तु दिखाई नहीं देती, उस अणिमा का ही यह विराट् वटवृक्ष है । वही सत् है ।‘‘
पुत्र ने जिज्ञासा प्रकट की -‘‘ वह कैसे सर्वत्र व्याप्त हैं ?‘‘ पिता ने पुत्र को नमक की एक डली लाकर पानी में डालने के लिए कहा । अगले दिन सुबह पिता ने पानी के बर्तन से वही नमक की डली निकालने के लिए कहा । श्वेतकेतु ने बर्तन में हाथ डाला । उसने पहले दिन डाली हुई डली को खोजा, पर वह नहीं मिली । श्वेतकेतु बोला – “नमक की डली तो नहीं मिल रही !” पिता ने कहा – “इस जलपात्र का पानी अलग-अलग स्थानों से निकाल कर चख कर देखो ।” पुत्र बोला – “पानी सब जगह एक जैसा नमकीन है ।”
ऋषि आरूणि ने कहा – ‘‘जिस तरह नमक की डली दिखाई नहीं देती, परन्तु वह पानी में सब जगह व्याप्त है, उसी तरह वह सत् भी सब जगह व्याप्त है। वही आत्मा है, वही तुम हो । “
‘ तत्त्वमसि‘ |
श्वेतकेतु भी वही हो गया ।