नवरात्रि: नौ शक्तिशाली दिन


प्रो.उर्मिला पोरवाल सेठिया
बैंगलोर

नवरात्रि ईश्वर के स्त्री रूप को समर्पित है।
स्त्री शक्ति की पूजा इस धरती पर उपासना का सबसे प्राचीन रूप है। सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि पूरे यूरोप और अरब तथा अफ्रीका के ज्यादातर हिस्सों में स्त्री शक्ति की हमेशा पूजा की जाती रही है। दुनिया में हर कहीं पूजा का सबसे बुनियादी रूप देवी पूजा या कहें स्त्री शक्ति की पूजा ही रही है। भारत की इकलौती ऐसी संस्कृति है जिसने अब भी उसे संभाल कर रखा है। हालांकि हम शिव की चर्चा ज्यादा करते हैं, मगर हर गांव में एक देवी मंदिर जरूर होता है। यह हमारी संस्कृति का ही प्रमाण है कि हम शिवशक्ति की एकसमान पूजा करते है।

दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती स्त्री-गुण के तीन आयामों के प्रतीक हैं। वे अस्तित्व के तीन मूल गुणों – तमस, रजस और सत्व के भी प्रतीक हैं।

तमस का अर्थ है जड़ता। रजस का मतलब है सक्रियता और जोश। सत्व का अर्थ एक तरह से सीमाओं को तोडक़र विलीन होना है, पिघलकर समा जाना है।

इसी तरह तीन खगोलीय पिंडों से हमारे शरीर की रचना का बहुत गहरा संबंध है – पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा। इन तीन गुणों को इन तीन पिंडों से भी जोड़ कर देखा जाता है। पृथ्वी माता को तमस माना गया है, सूर्य रजस है और चंद्रमा को सत्व।

नवरात्रि के पहले तीन दिन तमस से जुड़े होते हैं। इसके बाद के तीन दिन राजस से, और नवरात्रि के अंतिम तीन दिन सत्व से जुड़े होते हैं।

जो लोग शक्ति, अमरता या क्षमता की इच्छा रखते हैं, वे स्त्रैण के उन रूपों की आराधना करते हैं, जिन्हें तमस कहा जाता है, जैसे काली या धरती मां।

जो लोग धन-दौलत, जोश और उत्साह, जीवन और भौतिक दुनिया की तमाम दूसरी सौगातों की इच्छा करते हैं, वे स्वाभाविक रूप से स्त्रैण के उस रूप की ओर आकर्षित होते हैं, जिसे लक्ष्मी या सूर्य के रूप में जाना जाता है।

जो लोग ज्ञान, बोध चाहते हैं और नश्वर शरीर की सीमाओं के पार जाना चाहते हैं, वे स्त्रैण के सत्व रूप की आराधना करते हैं। सरस्वती या चंद्रमा उसका प्रतीक है।

इन तीनों आयामों में आप खुद को जिस तरह से लगाएंगे, वह आपके जीवन को एक दिशा देगा। अगर आप खुद को तमस की ओर लगाते हैं, तो आप एक तरीके से शक्तिशाली होंगे। अगर आप रजस पर ध्यान देते हैं, तो आप दूसरी तरह से शक्तिशाली होंगे। लेकिन अगर आप सत्व की ओर जाते हैं, तो आप बिल्कुल अलग रूप में शक्तिशाली होंगे। लेकिन यदि आप इन सब के परे चले जाते हैं, तो बात शक्ति की नहीं रह जाएगी, फिर आप मोक्ष की ओर बढ़ेंगे।

आपको अपने अस्तित्व और पोषण के लिए इन तीन आयामों को ग्रहण करने में समर्थ होना चाहिए, क्योंकि आपको इन तीनों की जरूरत है। पहले दो की जरूरत आपके जीवन और खुशहाली के लिए है। तीसरा परे जाने की चाहत है।

दुर्गा चालीसा एक पवित्र पाठ है जो कि भक्त-गण विभिन्न आशाओं के साथ पढ़ते हैं। दुर्गा को दुर्गति नाशिनि माना जाता है जो कि भक्तों को सुलभ गति प्रदान करती है। दुर्गा चालीसा के सरल भाव सहित-

नमो नमो दुर्गे सुख करनी । नमो नमो अम्बे दुःख हरनी ॥
आपको प्रणाम, ओ दुर्गा माता, जो सभी को हर्ष प्रदान करती हैं। आपको प्रणाम, ओ अम्बा माता, जो सभी के दुःख हर लेती हैं।

. निराकार है ज्योति तुम्हारी । तिहं लोक फैली उजियारी ॥
आपकी ज्योति निराकार है, अर्थात असीम है। ये तीनों लोकों में उजाला फैला रही है।

शशि ललाट मुख महाविशाला । नेत्र लाल भृकुटी विकराला ॥
आपका महा विशाल मुख चन्द्रमा की तरह चमक रहा। आपकी आँखें लाल हैं और आपकी भौंहे डरावनी हैं।

. रूप मातु को अधिक सुहावे । दरश करत जन अति सुख पावे ॥
आपकी दृष्टि मोहित करने वाली है। आपके दर्शन करने से लोग हर्षित होते हैं।

तुम संसार शक्ति लै कीना । पालन हेतु अन्न धन दीना ॥
आपमें संसार की सारी शक्तियां विद्यमान हैं। आप इसके पालन के लिए अन्न और धन प्रदान करती हैं।

अन्नपूर्णा हुई जग पाला । तुम ही आदि सुन्दरी बाला ॥
आप अन्नपूर्णा बन के संसार का पालन करती हैं। आप ही आदि सुन्दरी बाला हैं।

प्रलयकाल सब नाशन हारी । तुम गौरी शिव शंकर प्यारी ॥
प्रलय के समय, आप सब कुछ नाश कर देती हैं। आप गौरी हैं तथा शिव प्रिया हैं।

. शिव योगी तुम्हरे गुण गावें । ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें ॥
शिव और योगी आपके गुण गाते हैं। ब्रह्मा और विष्णु आपको सदा ध्याते हैं।

रुप सरस्वती को तुम धारा । दे सुबुद्धि ॠषि मुनिन उबारा ॥
आप ही सरस्वती का रूप धारण करती हैं। आप ऋषियों को सद्-बुद्धि प्रदान करके उनका उद्धार करती हैं।

. धरा रूप नरसिंह को अम्बा । प्रकट भई फाडकर खम्बा ॥
आपने ही नरसिंह का रूप धरा था और खम्बे को फाडकर प्रकट हुई थीं।

. रक्षा करि प्रह्लाद बचायो । हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो ॥
आपने ही प्रह्लाद को बचाया तथा हिरण्याक्ष को स्वर्ग पहुंचा दिया।

. लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं । श्री नारायण अंग समाहीं ॥
आप ही जगत माता लक्षमी का रूप धारण करती हैं। आप ही श्री नारायण के अङ्ग में समाई हैं।

क्षीरसिन्धु में करत विलासा । दयासिन्धु दीजै मन आसा ॥
आप क्षीर सागर में वास करती हैं। आप दया की सागर हैं, मेरे मन की आशा पूर्ण करें।

. हिंगलाज में तुम्हीं भवानी । महिमा अमित न जात बखानी ॥
आप हिंगलाज में भवानी हैं। आपकी महिमा अमित है और ये शब्दों में कही नहीं जा सकती।

. मातंगी धूमावति माता । भुवनेश्वरि बगला सुखदाता ॥
आप मातङ्गी तथा धूमवति माता हैं। आप भुवनेश्वरि तथा बगला हैं जो सुख प्रदान करती हैं।

श्री भैरव तारा जग तारिणि । छिन्न भाल भव दुःख निवारिणि ॥
आप श्री भैरवी तथा जगत को तारणे वाली तारा देवी हैं। आप माता छिन्नमस्ता हैं, जगत के दुःख निवारण करने वाली।

केहरि वाहन सोह भवानी । लांगुर वीर चलत अगवानी ॥
आप भवानी बन कर सिंह की सवारी करती हैं। आपकी अगवाई करते हुए हनुमान आपके आगे आगे चलते हैं।

. कर में खप्पर खड्ग विराजे । जाको देख काल डर भागे ॥
आपके हाथ में खप्पर तथा खडग रहते हैं। जिसको देख कर काल (समय) भी भाग जाता है।

. सोहे अस्त्र और त्रिशूला । जाते उठत शत्रु हिय शुला ॥
आपके पास अस्त्र तथा त्रिशूल रहते हैं जिनको देख कर शत्रुओं के हृदय भय से काँप उठते हैं।

. नगरकोट में तुम्हीं विराजत । तिहूं लोक में डंका बाजत ॥
आप नगरकोट में विराजमान रहती हैं। तीनों लोकों में आपका नाम गूँजता है।

शुंभ निशुंभ दानव तुम मारे । रक्तबीज शंखन संहारे ॥
आपने ही शुंभ तथा निशुंभ दानवों का वध किया। आपने ही अगणित रक्तबीजों का संहार किया।

महिषासुर नृप अति अभिमानी । जेहि अघ भार मही अकुलानी ॥
राजा महिषासुर अधिक अभिमानी था। उसने भिन्न तरह के पापों से धरती को भर दिया था।

रूप कराल कालिका धारा । सैन्य सहित तुम तिहि संहारा ॥
आप ने काली का महा विकराल रूप धारण किया। आपने ही उसका सेना सहित विनाश कर दिया।

परी गाढं संतन पर जब जब । भई सहाय मातु तुम तब तब ॥
जब भी संत लोगों पर कोई सङ्कट आया, माता आपने उनकी सहायता की।

अमरपूरी अरू बासव लोका । तब महिमा रहें अशोका ॥
अमरपुरी तथा और लोक आपकी महिमा के कारण ही शोक रहित रहते हैं।

. ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी । तुम्हें सदा पूजें नर नारी ॥
ज्वालामुखी में आपकी ज्योति विराजमान रहती है। नर और नारी सदा आपकी पूजा करते हैं।

. प्रेम भक्ति से जो यश गावे । दुःख दारिद्र निकट नहिं आवे ॥
जो भी आपकी यश गाथा प्रेम तथा भक्ति से गाता है, उसके निकट दुःख तथा निर्धनता नहीं आती।

ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई । जन्म मरण ताको छुटि जाई ॥
जो आपको मन लगा कर ध्यान करता है वो जन्म मरण के बन्धन से छूट जाता है।

. जोगी सुर मुनि कहत पुकारी । योग न हो बिन शक्ति तुम्हरी ॥
योगी, देव तथा मुनी ये पुकार करते हुए कहते हैं कि आपकी शक्ति के विना योग नहीं हो सकता है।

शंकर आचारज तप कीनो । काम अरु क्रोध जीति सब लीनो ॥
शङ्कराचार्य ने तप किया और काम-क्रोध को जीत लिया।

. निशिदिन ध्यान धरो शंकर को । काहु काल नहीं सुमिरो तुमको ॥
उन्होने प्रतिदिन शङ्कर का ध्यान किया। पर आपके बारे में कभी नहीं सोचा।

. शक्ति रूप को मरम न पायो । शक्ति गई तब मन पछतायो ॥
उन्होने शक्ति रूप की महिमा नहीं समझी। जब उनकी शक्ति चली गई तब उनको पछतावा हुआ।

शरणागत हुई कीर्ति बखानी । जय जय जय जगदम्ब भवानी ॥
उन्होने आपकी शरण ली तथा आपकी कीर्ती का गायन किया। जगदम्बे भवानी, आपकी जय जय जय हो।

. भई प्रसन्न आदि जगदम्बा । दई शक्ति नहिं कीन विलंबा ॥
हे आदि जगदम्बा, आप प्रसन्न हो गईँ तथा अविलम्ब आपने उनकी शक्ति उनको प्रदान कर दी।

. मोको मातु कष्ट अति घेरो । तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो ॥
ओ माता, मैं घोर कष्ट से घिरा हुआ हूँ। आपके अतिरिक्त मेरे दुःखों को कौन हरेगा।

आशा तृष्णा निपट सतावें । मोह मदादिक सब विनशावें ॥
आशा तथा तृष्णा सदा ही मुझे सताती हैं। मोह और अभिमान मेरा नाश करते हैं।

. शत्रु नाश कीजै महारानी । सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी ॥
हे महारानी। मेरे शत्रुओं का नाश कीजिए। हे भवानी, मैं एकचित होकर आपका स्मरण करता हूँ।

करो कृपा हे मातु दयाला । ॠद्धि सिद्धि दे करहु निहाला ॥
हे दयालु माता, कृपा करो। मुझे ऋद्धि सिद्धि प्रदान करके निहाल करें।

जब लगि जिऊं दया फल पाऊं । तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊं ॥
जब तर मैं जीऊँ, तब तक आपकी दया का फल पाता रहूँ। आपकी यश गाथा मैं सदा गाऊँ।

. दुर्गा चालीसा जो नित गावै । सब सुख भोग परम पद पावै ॥
जो सदा दुर्गा चालीसा का गान करते हैं वो सभी सुखों को भोग कर परम पद को प्रापत कर लेते हैं।

देवीदास शरण निज जानी । करहु कृपा जगदम्ब भवानी ॥
जे जान लेने पर, देवी दास ने आपकी शरण ली है। हे जगदम्बा भवानी, कृपा करें।

नवरात्रि के बाद दसवां और आखिरी दिन विजयदशमी या दशहरा होता है। इसका अर्थ है कि आपने इन तीनों गुणों पर विजय पा ली है। आपने इनमें से किसी से हार नहीं मानी, आपने तीनों के आर-पार देखा है। आप हर एक में शामिल हुए मगर आपने किसी में भी खुद को लगाया नहीं। आपने उन्हें जीत लिया। यही विजयदशमी है यानि विजय का दिन। इससे हमें यह संदेश मिलता है कि हमारे जीवन में जो चीजें मायने रखती हैं, उनके लिए श्रद्धा और कृतज्ञता का भाव रखना सफलता और जीत की ओर ले जाता है। इस धरती पर रहने वाले हर इंसान के लिए विजयदशमी या दशहरा का उत्सव बहुत सांस्कृतिक महत्व रखता है, चाहे उसकी जाति, वर्ग या धर्म कोई भी हो। इसलिए इस उत्सव को खूब उल्लास और प्रेम से मनाना चाहिए।