-प्रेमबाबू शर्मा
‘एक था राजा एक थी रानी’ शो में किस तरह का किरदार निभा रहे हैं ?
इस शो में मैंने खूंख्वार आदिवासी काल नामक किरदार को निभाया है। बहुत क्रूर लेकिन वह महल की राजनीति का शिकार है। अभी तक शो की जो कहानी चल रही थी उस में अब जबरदस्त बदलाव देखने को मिलेगा।
शो में किरदार में वास्तविक लगे,इसके लिए कुछ खास किया ?
यह कहानी आजादी से पूर्व रियासतों के दौर की है। मैंने अपनी ऐक्टिंग में सब से ज्यादा हावभाव और लुक पर फोकस किया ताकि चलने बोलने में कहीं आज के दौर की झलक न दिखे. पुराने दौर के शो में एक दायरा होता है, जिसे पार नहीं करना होता है। यही ध्यान में रखना होता है। इस शो में मुझे इसलिए ज्यादा परेशानी नहीं हुई, क्योंकि इस से पहले मैं मुगलकालीन शो ‘जोधा अकबर’ कर चुका था।
अभिनय के क्षेत्र में कब कदम रखा ?
5 साल की उम्र से ही अभिनय से जुडने का मौका मिला। बी आर चोपड़ा की ‘महाभारत’ में बलराम का रोल ने मुझे पहचान दी। इस के बाद अनेकों सीरियल्स और फिल्मों के अलावा 75 से ज्यादा कमर्शियल ऐड फिल्मों में काम किया है।
बदलते परिवेश में आज के विलेन पर आपकी राय ?
पुरानी और आज की फिल्मों में पहले नैगेटिव रोल के लिए जीवन, रंजीत व अमरीशपुरी जैसे कलाकार थे जो सिर्फ नैगेटिव रोल ही किया करते थे, पर आज की फिल्मों का हीरो सभी किरदार निभा लेता है। वही विलेन बन जाता है, वही कौमेडी कर लेता है, मतलब निर्देशक एक ही व्यक्ति से सारे काम कराना चाहता है। एक बात और आज के नैगेटिव रोल कर रहे कलाकारों में है, वह यह कि वे आज भी टाइपकास्ट नहीं हुए हैं, जो भी रोल आॅफर होता है वे कर लेते हैं, चाहे उस रोल में उन्हें कौमेडी ही करनी हो. पर मेरी विचारधारा इन सब से अलग है। मैं नैगेटिव रोल करूंगा जो भी अच्छा लगता है।
नैगेटिव किरदार ही निभाने की कोई खास वजह ?
लोगों को मेरा चेहरा खलनायक जैसे लगता हैं, इसी कारण हमेशा मुझे विलेन के रोल के लिए ही एप्रोच किया गया। वैसे मैंने छोटे परदे पर कई पौजिटिव रोल किए हैं।
आप अपने रोल को साइन करने से पहले क्या देखते हैं?
मेरे पास जब भी किसी फिल्म या शो की कहानी आती है तो में सब से पहले उन किरदारों की लिस्ट बनाता हूं, जिन का रोल ग्रे शेड है और उन में से सब को अपने से जोड़ कर देखता हूं कि मैं कहां, किस किरदार में फिट बैठता हूं. जो किरदार मुझे सब से ज्यादा पसंद आता है उसी के लिए हामी भरता हूं.
सिनेमा में आएं बदलाव को किस तरह से देख रहे हैं?
सही बताऊं, आज केवल टैक्नोलौजी में बदलाव आया है, स्टोरी और कंटैंट में नहीं. पहले की फिल्मों में मजबूत कंटैंट होता था. कहानी के अनुसार अभिनेता और खलनायकों के लिए अच्छे रोल और डायलौग गढ़े जाते थे. तभी तो उन फिल्मों की कहानी आज भी हमारे दिलोदिमाग में जिंदा है और बारबार उन्हें देखने का भी मन करता है. आज ऐसा कुछ नहीं है, कुछेक फिल्मों को छोड़ दें तो अधिकतर फिल्मों में वही घिसीपिटी स्टोरी है. सिर्फ तकनीकी पक्ष मजबूत हुआ है. स्पैशल इफैक्ट और डिजिटल एडिटिंग ने आज की फिल्मों को हौलीवुड की फिल्मों के बराबर खड़ा कर दिया है.