आदाब अर्ज़ है–रईस सिद्दीक़ी
अक्सर सियासतदां / राजनेता अपनी सियासी बात को प्रभावशाली बनाने के लिए उर्दू शेर-ओ-शायरी का प्रयोग करते हैं। लेकिन शायरों को सियासतदानों / राजनेताओं से किया शिकायत है, क्या दर्द है और वो उनसे किया अपेक्षा करते हैं, यह जानना बहुत दिलचस्प होगा। आज हम ऐसे ही कुछ शायरों के चुनींदा शेर पेश कर रहे हैं जो सियासत और सियासतदानों से मुख़ातिब हैं।
न मंदिर से रग़बत , न मस्जिद से उलफ़त |
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अपनी उर्दू तो मोहब्बत की ज़बान थी प्यारे अब सियासत ने उसे जोड़ दिया मज़हब से सियासत -राजनीति —राजेंदर पाल सिंह सदा अम्बालवी |
जाने कब इसमें हमें आग लगानी पड़ जाये हम सियासत के जनाज़े को ,चिता कहते हैं –खालिद इरफ़ान |
तुम्हारी मेज़ चांदी की , तुम्हारे जाम सोने के यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है –अदम गोंडवी |
ऐसे -वैसे कैसे- कैसे हो गए कैसे -कैसे ऐसे-वैसे हो गये –ख़लिश |
खेलना जब उनको तूफानों से आता ही न था फिर वो हमारी कश्ती के नाखुदा क्यों बन गए ? नाखुदा-मल्लाह –– अफ़सर मेरठी |
इस नए दौर में देखें हैं वो रहज़न हमने जो बहारों को गुलसिताँ से चुरा ले जाएँ रहज़न -लुटेरा, गुलसिताँ -बाग़ —सबा अफ़ग़ानी |
ज़रा इतना तो फ़रमा दे कि मंज़िल की तमन्ना में भटकते हम फिरेंगे, ऐ अमीरे -कारवाँ , कब तक ? अमीरे -कारवाँ- -कारवां का लीडर –फ़ना कानपुरी |
ये शाख काटी , वो शाख काटी , इसे उजाड़ा , उसे उजाड़ा यही है शेवा जो बाग़बाँ का ,तो हम गुलसिताँ से जा रहे हैं शेवा -रीति -नीति , बाग़बां -माली / लीडर ,शाख=टहनी —नफ़ीस संडेलवी |
क़ौम का ग़म लेकर दिल का ये आलम हुआ याद भी आती नहीं अपनी परेशानी मुझे —ब्रिज नारायण चकबस्त लखनवी |
नशेमन के लुट जाने का ग़म होता, तो क्या ग़म था यहां तो बेचने वालों ने , गुलशन ही बेच डाला है नशेमन -घर / घोंसला , गुलशन -बाग़ —बेकल उत्साही |
बफ़ैज़े -मसलेहत, ऐसा भी होता है ज़माने में कि रहज़न को अमीरे -कारवां कहना पड़ता है बफ़ैज़े -मसलेहत-दुनियादारी के कारण , अमीरे -कारवां-लीडर —जगन्नाथ आज़ाद |
ये इन्क़िलाबे -दौरे -ज़माना तो देखिये मंज़िल पे वो पहुंचे, जो शरीके-सफ़र न थे इन्क़िलाबे-दौरे-ज़माना =समय की विडम्बना शरीके -सफ़र= सफ़र में शामिल —जोश मलिहाबादी |
जितना मल्लाह का डर है मुझको उतना तूफ़ान का डर नहीं है मल्लाह==खेवनहार /अगुआकार –ज़फ़र इक़बाल |
रोने वालों की हंसी को, पहले वापस लाइये शौक़ से फिर जश्ने -आज़ादी मनाते जाइये —अर्श मलसियानी |
अब बर्क़ , नशेमन को मेरे फूंक दे , लेकिन गुलशन की तबाही मुझे मंज़ूर नहीं है बर्क़ -बिजली , नशेमन-घर ,घोंसला —हफ़ीज़ जालंधरी |
न मंदिर से रग़बत , न मस्जिद से उलफ़त इबादत की बातें हैं , सियासत की बातें रग़बत-लगाव , उलफ़त -प्रेम –-रईस सिद्दीक़ी |